Magazine - Year 1972 - Version 2
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Language: HINDI
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महानता की दृष्टि से मनुष्य घास से भी छोटा है।
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प्राणियों में पशु पक्षियों और जीव जन्तुओं का ही स्थान नहीं, वनस्पति भी जीवधारियों में ही आती है। उनमें मस्तिष्क न होने से चिन्तनशील प्राणियों की तरह कष्टानुभूति न होने से उन्हें विकसित प्राणियों द्वारा खाया जाता है। हिंसा की बात तो वहाँ आरम्भ होती है जहाँ किसी सचेतन प्राणियों को अपने स्वाद के लिए हम हनन करते हैं। वनस्पति प्राणधारियों का स्वाभाविक आहार होते हुए भी वह भी सजीव वर्ग में ही है।
मनुष्य की सेवा सहायता पशु करते हैं। अब तो कुछ दिन से उनका श्रम मशीनें भी हलका करने लगी हैं, पहले जब वे नहीं बनी थीं तब तो मनुष्य का जीवन आधार एक प्रकार से पशुओं का श्रम ही था, वह स्वयं तो अपने दुर्बल शरीर से बहुत कम कर पाता था, जो करता था वह इतना नहीं होता था कि सुख सुविधा युक्त जीवन जी सके। पशुओं का श्रम दूध, बाल, चर्म आदि की सहायता से ही उसकी समृद्धि भूतकाल में बनी रही। आज भी विश्व का अर्थ उत्पादन पशुओं के माध्यम से इतना होता है जो विश्व उपार्जन का दो तिहाई है। एक तिहाई ही मशीनें उत्पन्न करती हैं।
जिस प्रकार पशु मनुष्य जाति के जीवनाधार रहे हैं उसी प्रकार वनस्पति न केवल मनुष्य की वरन् पशु−पक्षियों को जीवनाधार रही है। यहाँ तक की कीट पतंग भी उसी के अञ्चल में पलते पनपते हैं। विशाल दृष्टि से देखा जाय तो वनस्पति ही जीवन का मूल स्वरूप है। उसी को खाकर जीवधारी जीवित हैं। माँसाहारी कहे जाने वाले जीव भी शाकाहारी प्राणियों को ही खाते हैं। वे शाकाहारी वनस्पति की उपज हैं।
जल जीवों का जीवन क्रम भी यही है। समुद्र, सरोवरों में एक हलके किस्म की वनस्पति होती है, वहीं जल जीवों का मुख्य आधार है। अकेले पानी पर ही वे जीवित नहीं रह सकते, जीवन रक्षा के लिए उन्हें भी वनस्पति चाहिए और वह जिन जलाशयों में छोटे या बड़े रूप में होगी उसी में जल जीव, जन्मेंगे बढ़ेंगे। जल जीवों, में भी पशु पक्षियों की तरह माँसाहारी होते हैं पर वे भी शाकाहारी छोटे जलचरों को ही खाते हैं। कहा जा चुका है कि इस प्रकार घुमा फिरा कर जल जीवों को भी वनस्पति पर ही निर्भर रहना पड़ता है। वनस्पति जगत का प्राणधारियों का अपना संसार है और वह इतना सुन्दर है कि उसका यदि विवेचन विश्लेषण किया जाय तो एक बहुत ही सौम्य, शालीन और सुन्दर लोक का दर्शन होता है।
वनस्पति जगत का सर्वप्रधान और सर्वत्र उपलब्ध पौधा है-घास। ये घास पैरों तले कुचलती रहती और तुच्छ नगण्य प्रतीत होती है पर उसकी गरिमा पर विचार करते हैं तो वह आश्चर्यजनक महत्व की प्रतीत होती है।
वनस्पति शास्त्रियों का कथन है कि घास धरती के पाँचवे हिस्से पर छाई हुई है। उसकी छह हजार जातियाँ अब तक ढूंढ़ी जा चुकी हैं। उसे एक प्रकार से जीवनधारियों का जीवन ही कहना चाहिए। पानी की बाढ़ रोकने के लिये बाँध जो काम करते हैं उससे लाखों गुना अधिक काम घास करती है। यदि घास न हो तो वर्षा का पानी इतनी तेजी से बहे कि नदियों में विकराल बाढ़ें आयें और जमीन का बहुत बड़ा भाग कटकर खड्ड बनने लगे और उपयोगी मिट्टी समुद्र में पहुँच कर उपजाऊ क्षेत्र घटा दें। वह मिट्टी समुद्र को उथला करके और भरा हुआ पानी बाहर फैलने से तटवर्ती स्थानों के डूबने का खतरा हो जाय। जमीन में पानी सोखने की शक्ति घास की जड़ों से ही पैदा होती है। यदि घास न हो तो सूखी मिट्टी ठोस या रेतीली पानी की अधिक मात्रा देर तक पचा सकने में समर्थ न हो।
हर मौसम और हर परिस्थिति में घास अपने आपको जीवित रखती है। घोर गर्मियों में जबकि वह सूख जाती है और जल गई प्रतीत होती है वह भी उसका जड़ वाला भाग गीला और जीवित रहता है। यही कारण है कि वर्षा होते ही वह देखते देखते उग आती है और चारों ओर हरियाली छा जाती है। पहाड़ मैदान, मरुस्थल, शीत प्रधान, अतिऊष्ण प्रदेशों में ही नहीं अथाह समुद्र की तली में भी उसका अस्तित्व पाया जाता है। ‘काई’ के रूप में वह जलाशयों में भी छाई रहती है। अमरबेल की तरह बिना जड़ के भी बिना जमीन की सहायता लिये हुए भी वह अपना अस्तित्व बनाये रह सकती है।
घास का सूक्ष्म रूप है उसका पराग। वह हवा के साथ चार हजार फुट की ऊँचाई तक उड़ जाता है और आँधी तूफानों के साथ हजारों मील की यात्रा करके कहीं से कहीं जा पहुँचता है। मनुष्य के समान तथा जानवरों के शरीरों के साथ लिपट कर भी वह छूत की बीमारी की तरह लम्बी यात्रायें करता है और जहाँ भी अवसर मिलता है वहीं अपनी वंशवृद्धि करने में लग जाता है। पुराने जमाने में अफ्रीका से आदिवासी, अमेरिका में मजूरी के लिए आये गये थे। घास के पराग भी उनके साथ चले आये और वह घास जो अफ्रीका में ही होती थी अमेरिका में भी उगने लगी।
हम गेहूं, जौ, चना, मक्का, आदि अन्न खाते हैं। यह सब क्या है घास के बीज ही तो हैं। पालक, बथुआ, धनिया, पोदीना, मेथी आदि छोटी घास हैं। बड़ी घास शाक भाजियों और खीरा, ककड़ी खरबूज, तरबूज आदि के रूप में फलती है। ईख एक बड़े किस्म की घास ही तो है। चीनी की मिठास वस्तुतः घास का ही अनुदान है।
कीड़े, मकोड़े, पशु-पक्षी, सब घास पर ही जीवित रहते हैं। पौधों पर चिपकने वाले कृमि कीटकों से लेकर कीड़े-मकोड़ों तक की संख्या इस पृथ्वी के जीव जगत का नो बटे दसवाँ भाग है। पशु, पक्षी, मनुष्य और बड़े जलचरों की संख्या एक बटे दस ही है। इनमें से अधिकाँश का अधिकाँश जीवन घास पर ही निर्भर है। पशु तो घास पर ही जीवित हैं। प्रकारान्तर से और सबका भोजन भी उसी पर निर्भर रहता है। छोटे कीड़े मकोड़े घास की पत्तियाँ जड़े आदि खाते हैं। उन्हें चिड़ियाँ खा जाती हैं। चिड़ियाँ या पशु माँसाहारियों के पेट में चले जाते हैं। इस प्रकार माँस भक्षी जीवों का घुमा फिरा कर मूल भोजन घास ही है। इसलिए उसे जीव धारियों का मूलभूत आधार कहा गया है। जड़ी बूटियों के रूप में औषधियों का प्रयोजन भी उन्हीं से पूरा होता है। मनुष्य शरीर भी भौतिक शास्त्रियों की दृष्टि से एक प्रकार वृक्ष ही है। उसकी सारी आवश्यकता भूमि द्वारा उत्पन्न वनस्पतियों से ही पूरी होती है। हवा और जल को छोड़कर मुख से खाये जाने वाले पदार्थों में वनस्पति ही एकमात्र वह आधार है जिसे ‘अन्न’ या आहार कहते हैं। उसके बिना किसी का भी निर्वाह नहीं हो सकता।
घास हर जगह उपलब्ध होने से उसे सस्ती समझकर उपेक्षणीय समझा भर जाता है पर वस्तुतः उसका महत्व किसी भी बहुमूल्य पदार्थ से कम नहीं है। एक पौण्ड घास में इतनी कैलोरी शक्ति रहती है कि आदमी उतने से ही डेढ़ घण्टे तक लकड़ी काट सके। बीजों में इससे चार गुनी अधिक शक्ति होती है। इसलिए आध सेर अन्न खाने वाला यदि दो सेर घास खाले तो उसे उतनी ही शक्ति मिल सकती है। समझा यह जाता है कि दाल, दूध, अण्डा, माँस से ही प्रोटीन प्राप्त होती है पर यह भूल जाते हैं कि घास में प्रोटीन की मात्रा कम नहीं है और वह अपने ढंग की सबसे निर्दोष प्रोटीन है। टूटी-फूटी माँस पेशियों की मरम्मत का उसमें अनुपम गुण है।
घास ऊपर जितनी लम्बी दीखती है उसकी जड़ें जमीन के अन्दर उससे कहीं अधिक लम्बी होती हैं। यही कारण है कि मिट्टी को बाँधे रहती है, उसे पोला रखती है। जिससे वह पानी, खाद और हवा सोख कर उत्पादक बनी रह सके। मिट्टी से जितना जीवन वह लेती हैं उससे भी ज्यादा उसे प्रदान भी करती हैं। जमीन का उपजाऊपन घास पर ही निर्भर है। जहाँ घास नहीं जमेगी वह जमीन अनुत्पादक और वीरान जैसी रहेगी।
संसार में आय के साधन कारखाने व्यापार आदि को समझा जाता है पर सच बात यह है कि मनुष्य जाति का आय का सबसे बड़ा साधन पशु है और वे घास पर निर्भर रहते हैं। इस प्रकार घास को आर्थिक दृष्टि से संसार का सबसे बड़ा आय-साधन भी माना जा सकता है। साफ सुथरी जमीन को घास की ही देन कह सकते हैं यदि वह न हो तो सर्वत्र धूलि ही-धूलि उड़ती दिखाई पड़े या फिर चट्टानों जैसी निर्जीव स्थिति दीख पड़े।
मकान, किवाड़, फर्नीचर, फल, चूल्हा, चटाई, कपड़े कागज, जिधर भी नजर उठाकर देखें घास, वृक्ष और वनस्पति का ही वरदान, अनुदान बिखरा पड़ा है। वह मनुष्य की लकड़दादी है। सृष्टि के निर्माण काल में सबसे पहले वनस्पति का ही उद्भव हुआ था। एक कोषीय बहुकोषीय जीव तो उसके बहुत बाद में बने और मनुष्य तो उन प्राणधारियों की शृंखला से हजारों पीढ़ी पश्चात जन्मा है।
घास का ही विकसित रूप है वृक्ष। गुल्म झाड़ियों, पौधे और विशाल वृक्ष उसी प्रकार छोटे बड़े हैं जिस प्रकार चतुष्पदों में छोटी चुहिया और विशालकाय हाथी, छोटा मच्छर और बड़ा सारस। इनके आकार प्रकार बड़े छोटे हैं पर वर्गीकरण तो उसी स्तर पर होगा वनस्पति में छोटी घास और बड़े विशालकाय वृक्ष गिने जा सकते हैं। उन सबकी अपनी विशेषताएं ऐसी हैं जो सृष्टि की सुन्दरता और सन्तुलन बनाये रखने में महत्वपूर्ण योगदान करती हैं।
कैलीफोर्निया में पाया जाने वाला डगलस वृक्ष 300 से 400 फुट तक लम्बा होता है इसका तना 50 फुट व्यास तक का पाया जाता है। ‘फर’ नामक वृक्ष की आयु हजारों वर्ष मानी जाती है। यदि इन विशाल वृक्षों का तना खोखला कर दिया जाय तो उसमें 200 बच्चों को पढ़ाने जैसा एक स्कूल आसानी से बन सकता है। अमेरिका में कई ऐसे फर के वृक्ष हैं जिनके तने को खोखला करके उनमें बीच में से सड़क निकाल दी गई है। सड़क बनाने में उनके काटने की अपेक्षा यह तरीका अधिक अच्छा समझा गया।
सन्त, ब्राह्मण, दानी, परोपकारी मनुष्य ही नहीं होते गाय जैसे पशु भी उसी स्तर के वन्दनीय वर्ग में आते हैं। वृक्षों में भी कुछ वृक्ष ऐसे ही हैं जिन्हें सन्त या दानवीर की उपाधि दी जा सकती है।
उत्तरी आस्ट्रेलिया में एक विशालकाय गोरख इमली का वृक्ष है। यह पेड़ दो हजार वर्ष पुराना है। इसका खोखला तना किसी समय नगर जेल की तरह काम में लाया जाता था।
ऐडीनियम वृक्षों के तनों में पानी भरा होता है और यह कई वर्षों तक सूखा पड़ने पर भी हरे ही बने रहते हैं। दक्षिण अमेरिका के ब्राजील और पेरु के जंगलों में एक ऐसा वृक्ष होता है जिसके तने से दूध जैसा तरल पदार्थ निकलता है जो मीठा भी होता है और स्वादिष्ट भी। वनवासी उसे देवताओं की कामधेनु समझते हैं और बड़े चाव से उसका दूध पीते हैं।
इन्डोनेशिया के सुमात्रा द्वीप में और अमेरिका के चिली देश में एक ऐसा वृक्ष पाया जाता है जिससे पानी टपकता रहता है और उसके नीचे एक छोटा गड्ढा उस पानी से भरा रहता है। यह पेड़ अपनी पत्तियों द्वारा हवा में उड़ती हुई भाप बड़ी मात्रा में सोखता है और फिर अपनी आवश्यकता जितना जल पास में रखकर शेष बूँदों के रूप में बरसा देता है।
अफ्रीका में एक ऐसा पेड़ पाया जाता है जिसकी छाल को आटे की तरह पीसकर रोटी बनाई जाती है। यह अन्न की तरह ही पौष्टिक और स्वादिष्ट होती है।
वनस्पतियों का विकसित रूप ही सचेतन जन्तुओं में परिणत हुआ है। विकास क्रम की शृंखला यही बताती है कि सृष्टि के आदि में जीवन वनस्पति के रूप में था फिर वह क्रमशः सचेतन प्राणियों के रूप में उन्नति करता चला गया। इसका प्रमाण अभी भी समुद्रों में उपलब्ध है। कुछ ऐसे पौधे अभी भी पाये जाते हैं जो वनस्पति भी कहे जा सकते हैं और प्राणधारी भी। उनमें दोनों ही गुण विद्यमान हैं।
वनस्पति और जीवधारियों के बीच की कुछ जातियाँ समुद्र में पाई जाती हैं। एस्पेरिआपसिस जीव सड़ी लकड़ी से उगने वाले कुकुरमुत्ते की तरह का होता है। यह पीले, भूरे हरे रंग का- लगभग तीन इंच व्यास का होता है। अमेरिका के पूर्वी तट पर यह लगभग 20 प्रकार की जातियों में पाया जाता है।
हाइड्रा देखने में तैरती हुई सूखी डाली जैसा लगता है। पर छेड़ते ही उसमें हरकत शुरू हो जाती है। इसके कई मुँह होते हैं। हर मुँह पर बाल उगे होते हैं जिनकी संख्या छह से दस तक होती है। इन बालों को वह सिकोड़ और फैला लेता है। असल में यह ही उसके हाथ हैं जिनकी सहायता से वह आहार पकड़ता और मुँह में डालता है। तैरने में यह बाल उसके लिए पैरों का काम देते हैं। समुद्री जन्तु ‘कैरोपहोलिया’ दूर से देखने में ऐसा लगता है मानो पत्थर पर सुन्दर गुलाबी फूल खिला हो। जब जँभाई लेता है तो उस फूल जैसे मुँह को खुलते और बन्द होते देखा जा सकता है। यह पीले, हरे और भूरे होते हैं। मुँह पर छोटी-छोटी कई जीभें उभरी होती हैं इन्हीं से वे अपना आहार पकड़ते हैं। फ्लोराइड, वेस्टइंडीज, कैलीफोर्निया की खाड़ी में यह कैरोपहोलिया आसानी से पाया जाता है।
प्रायः छह इंच लम्बा एल्कोनियम नन्हें असंख्य फूलों से लदी किसी सुन्दर डाली जैसा लगता है। उसके सहस्रों मुख होते हैं। तने जैसा मोटा पेट बीच में होता है। वेस्टइंडीज तथा उत्तरी अटलाँटिक में यह पाया जाता है।
आस्ट्रेलिया के वैरियर रीफ नामक क्षेत्र में रंग-बिरंगी घास जैसा एक जल जन्तु होता है एक्टोनेरिया। इसके हाथ पैर सदा हिलते रहते हैं और हर घड़ी कुछ पाने पकड़ने और खाने में ही लगा रहता है।
वनस्पति की जीवधारियों के रूप में विकसित होने की परम्परा यह संकेत करती है कि मनुष्य भी वर्तमान स्तर पर नहीं रह सकता, उसे देवत्व में विकसित होना पड़ेगा।
वनस्पति जगत पर दृष्टिपात करने से उसकी परोपकार वृत्ति, सहनशीलता, शोभा-सुषमा, सरसता,
कोमलता, पुष्पों की कमनीयता, फलों की गुण गरिमा जैसे असंख्य पक्ष ऐसे हैं जिन्हें देखकर यह प्रतीत होता है कि मनुष्य बौद्धिक क्षेत्र में विकसित हो गया तो क्या-महानता की गरिमा में वह वृक्ष वनस्पति की दुनिया की तुलना करने पर बहुत पिछड़ा हुआ ही पड़ा है।