Magazine - Year 1972 - Version 2
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खुद ही अपनी परीक्षा कर, अपने को अपने आप उठा, इस प्रकार तू विचारशील हो अपनी रक्षा स्वयं करता हुआ, दुनिया में सुखपूर्वक विहार करेगा।
-बुद्ध
देवी-देवताओं के- ईश्वर के वरदान सम्बन्ध में भी यही बात है। महान शक्तियाँ उदारता का परिचय इसलिए देती हैं कि जो संपर्क में आये वह भी उसी उदारता की रीति-नीति का अनुकरण करना सीखे। व्यायाम अध्यापक पहले स्वयं कसरत करके इसलिये दिखाते हैं कि उस क्रिया को शिक्षार्थी भली प्रकार देख समझ सकें और फिर स्वयं भी उसी तरह कसरत करना आरम्भ करें। यदि ऐसा न हो; व्यायाम मास्टर कसरत करता रहे और लड़के तमाशा देखते रहें तो अध्यापक का प्रयत्न निरर्थक गया ही समझा जायेगा। इससे भी बुरी बात यह होगी कि शिक्षक को सिखाने वाले उपकरण भी छात्र लेकर चल दें।
सन्त और देवता स्वयं दयालु और दानी होते हैं। यह सत्प्रवृत्ति ही वस्तुतः उनकी महानता को बढ़ाती है। वे यह प्रयत्न करते हैं कि उनके संपर्क में आने वाले लोग भी उसी मार्ग का अनुसरण करें। आरम्भिक शिक्षा के रूप में वे अपने तप की पूँजी उन्हें देकर उसका स्वाद चखाते हैं और बताते हैं कि तुम्हें चखते समय जितना आनन्द मिला; देते समय हमें उससे हजार गुना आनन्द मिला। अब आगे तुम भी यही करना। देने वाले बनना। अपनी उपलब्धियाँ दूसरों को देकर उन्हें सुख प्रदान करना और स्वयं सन्तोष का आनन्द लेना। सुख देने वाले को ही सन्तोष मिलता है। दान देने के साथ सन्तोष का यह शिक्षण भी जुड़ा रहता है।
ज्ञान, प्रकाश, सत्साहस, सन्मार्ग की प्रेरणा, यही याचना योग्य वस्तुएं है। ईश्वर से, देवता से, सन्त से यह माँगा जा सकता है। यही उचित और श्रेयस्कर हैं। धन, यश, सन्तान, आरोग्य, वैभव, प्रगति एवं अवरोधों का निवारण जैसे भौतिक पदार्थों की कामना या याचना करते समय यह सोचना चाहिए कि क्या इनके बिना उनका जीवन संकट में है। यह नाव ऐसी फँस गई है; जिसे उबारने के लिए सहायता अनिवार्य हो गई है। ऐसी स्थिति में उतनी ही मात्रा में आशीर्वाद लेना चाहिए जितना अनिवार्य रूप से आवश्यक हो।
भौतिक तृष्णाओं का अन्त नहीं। वैभव से किसी की तृप्ति नहीं हुई। तृष्णाएं शान्त करने में इस विश्व के समस्त सन्तों और देवताओं की सम्मिलित शक्ति भी अपर्याप्त है। उसी की पूर्ति के लिये यदि हमें किसी सन्त का वह अनुग्रह माँगते जो हमारी अपेक्षा किसी अधिक कष्ट पीड़ित के काम आ सकता था- तो यही कहना चाहिये कि सन्त के संपर्क में आकर भी हमने अपना असन्त तत्व ही बढ़ाया। उनकी संगति से लाभ लेने की अपेक्षा हानि ही उठायी। कर्ज लेकर अमीर बनने की अपेक्षा तो ऋण रहित गरीबी अच्छी। किसी के सामने दीन बनकर सम्पन्नता प्राप्त करने से तो स्वाभिमान भरी अभाव ग्रस्तता अच्छी। ‘ऋण कृत्वा धृतं पिवेत’ का आदर्श तो नास्तिकों का है। हम आस्तिक होकर नास्तिक का आचरण न करें यही उचित है।
देव या सन्त के अनुग्रह से यदि कुछ मिला है तो उचित यही है कि उसे विशुद्ध रूप से ऋण माने। जिससे लिया है उसे न सही-सत्कर्मों के लिए ब्याज समेत वापिस करने की तैयारी में ही संलग्न होना चाहिए, इसी में दानी की उदारता सार्थक होती है और इसी में अनुदान प्राप्त करने वाले की सज्जनता सिद्ध होती है।