Magazine - Year 1980 - Version 2
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Language: HINDI
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अवगति का कारण अभाव नहीं, अनुत्साह
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संसार में अनेकों आर्श्चयजनक वस्तुएँ पाई जाती हैं और घटनाएँ देखी जाती है। इस सबसे विलक्षण है मानवी संरचना और उसमें सन्निहित सम्भावना। लगता है सृष्टा ने अपनी विभूतियाँ और कुशलताओं को मनुष्य के छोटे से कलेवर में गागर में सागर की तरह भर दिया है। असमंजस इसी बात का है कि वे विशिष्टताएँ प्रसुप्त स्थिति में पड़ी रहती है। सामान्यतया इस रहस्यमय भंडार में से उतना ही प्रकट और विकसित होता है जितनी कि आवश्यकता पड़ती और उभारने की चेष्टा की जाती है। शेष सब कुछ अविकसित एवं अविज्ञात स्थिति में ही पड़ा रहता है।
माना यह जाता है कि कठिन परिस्थितियों और साधनों के अभावों से ही मनुष्य गई-गुजरी स्थिति में पड़ा रहता है और दुःख सहता है, पर वास्तविकता ऐसी है नहीं। स्वल्प साधनों से भी वर्चस्व बनाये रखा जा सकता है और वैभव बढाया जा सकता है। यही बात कठिनाइयों के सम्बन्ध में भी है। वे बाधक तो अवश्य होती है और प्रगति क्रम में विलम्ब भी लगाती है। इतने पर भी यह तत्परता और साहसिकता बनी रहे तो अभीष्ट की दिशा में अग्रसर होने में गतिरोध देर तक नहीं रह सकता है। इच्छा शक्ति की सामर्थ्य प्रचंड है। साहस भरे प्रयास ऐसी उपलब्धियाँ अर्जित कर लेते हैं जिन्हें देखने पर चमत्कार जैसा लगता है। देवताओं द्वारा मिलने वाले वरदानों की चर्चा समय-समय पर होती रहती है। देवताओं क अस्तित्व और उनके अनुग्रह के पक्ष विपक्ष में बहुत कुछ कहा जा सकता है। पर यह तथ्य निर्विवाद है कि मनुष्य का संकल्प, साहस और प्रयास यदि उच्चस्तरीय बना रहे तो उसका प्रतिफल दैवी वरदानों से किसी प्रकार कम नहीं होता। कठिन परिस्थितियाँ अपने स्थान पर बनी रहती हैं और मनुष्य अपनी प्रयत्नशीलता के आधार पर वहाँ जा पहुँचता है जिसके लिए सर्व समर्थ भी तरसते पाये जाते है।
इतिहास में ऐसी घटनाओं की कमी नहीं जिसमें अभावों के ऊपर साहस ने विजय पाई है। विकट परिस्थितियों में जन्मे, पले ओर घिरे व्यक्ति आमतौर से पिछड़ेपन से ग्रसित रह कर ही दिन बिताते हैं, पर यह अभिशाप हर किसी पर नहीं लदता। असंख्यों ऐसे भी होते है जो परिस्थितियों को चुनौती देते कठिनाइयों से अठखेलियाँ करते अभीष्ट की दिशा में दन दनाते और सन सनाते चले जाते है। चेतना के अन्तराल में सन्निहित विशेषताएँ उभारने का प्रयत्न करने वालें को किसी के आगे हाथ नहीं पसारना पड़ता है। प्रतिभा जब उभरती है तो बाहरी सहयोग को अपनी आकर्षण शक्ति के सहारे आस-पास ही खींच लेती है। महामानवों की जीवन गाथा के साथ जुड़े घटनाक्रमों का विश्लेषण करने पर उनकी सफलताओं में इसी तथ्य का पग-पग पर प्रमाण परिचय मिलता है। ऐसे उदाहरणों से इतिहास के पन्ने तो भरे हुए है। दृष्टि पसारने पर इस स्तर के प्रमाण अपने इर्द गिर्द ही पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हो सकते है।
सन् 1883 में अमेरिका के कोलोरेडो खान में एक 17 वर्षीय मेकफर्सन नाम युवक काम करता था। एक दिन चट्टान दुर्घटना में वह अपनी दोनों आँखें तथा हाथ गवाँ बैठा। सामान्य व्यक्ति अपना धीरज खे बैठता तथा जीवन से निराश हो जाता। किन्तु इस भयंकर दुर्घटना के बाद भी मेफसर्सन का लगाव जीवन से बना रहा। उसने अपनी जीभ की नोक को धातु के टाइप अक्षरों पर फिरा कर पढ़ने का अभ्यास आरम्भ किया। सामान्यतः अंधे व्यक्ति ब्रेल पुस्तकों के उभरे अक्षरों को अंगुलियों से टटोल कर पढते है किन्तु जीभ द्वारा पढने का प्रयास करना एक आर्श्चयजनक घटना है। सतत् प्रयास तथा अटूट मनोयोग का अनुकूल परिणाम निकला। कुछ ही दिनों में मेकफर्सन पढने लगा।
गाजियाबाद (उत्तर प्रदेश) के युवक श्री सुरेशानन्द, जिन्होंने पैर से रेडियो बजाना, माचिस जलाने से लेकर लिखने पढने में कुशलता प्राप्त की है। अभी तक दो विषयों में एम.ए. करके स्वस्थ व सबल कहे जाने वाले प्रतिभाशाली छात्रों के लिए एक आदर्श बन गये है।
श्री सुरेशानन्द जिनके दोनों हाथ व दोनों पाँव जन्मजात लुँज है, बचपन में जब अपने बड़े भाई को पढते लिखते देखते तो उनके भी दिल में पढने का उत्साह उमड़ता, किन्तु हाथ से असमर्थ कलम पकड़ने तक की भी सुविधा जिसे ईश्वर ने न दी हो वह रोने के सिवा और का ही क्या सकता है। माता पिता सुरेशानन्द की उत्कण्ठा को समझते किन्तु वह भी तो असमर्थ थे। विवश सुरेशानन्द नित्य अपने भाई का पढना लिखना देख कर अपनी तृप्ति करते। एक दिन अपने भाई की कलम पैर के अंगूठे और उंगली की सहायता से पकड़ कर एक कागज में सुरेशानन्द ने अ, आ लिख दिया। सुरेशानन्द के यह प्रथम बार लिखे अक्षर इतने सुन्दर थे कि कोई भी सामान्य बुद्धि का बालक वैसे अक्षर न बना पाता। सुरेशानन्द के भाईने उनके इन सुन्दर अक्षरों को माता पिता को दिखाया। माता-पिता को सुरेशानन्द की प्रतिभा व अच्छर लिखने की कुशलता का पता चला तो उन्होंने उसके लिए लिखने पढने की सभी साधन सामग्री छोड़ दी।
शिक्षा जारी रही। न उत्साह घटा न प्रयत्न फीका पड़ा। फलतः अच्छे डिवीजन में एक के बाद दूसरी परीक्षा उत्तीर्ण करते हुऐ अंग्रेजी और राजनीति से एम.ए. पास कर ली यह युवक कवि भी है और लेखक भी। रचनाएँ कई पत्रिकाओं में छपती रही है। प्रतिभा के धनी इस लगनशील को राष्ट्रपति डा0 राजेन्द्र प्रसाद ने सम्मानित भी किया था।
अपनी इसी पृथ्वी पर एक ऐसा भी क्षेत्र है जहाँ के सभी प्राणधारी अन्धे ही होते है। यह स्थान मैक्सिको के समुद्री क्षेत्र में स्थिति टुलप्पिक नाम स्थान है। यहाँ पर जन्म लेते समय बच्चा तो आँख वाला पैदा होता है किन्तु कुछ ही दिनों में वह अन्धा हो जाता है यहाँ पर रहने वाले पशु पक्षी, कीड़े-मकोड़े सभी अन्धे ही होते है।
टुलप्टिक में मात्र एक ही सड़क है जिसके दोनों किनारों पर यहाँ के अन्धे निवासियों की बना दरवाजों और खिड़की वाली झौपड़ियाँ बनी हैं। यहाँ के लोग पक्षियों के कलकल को सुन कर प्रातः काल का अनुमान करते और उसी के साथ उठ कर परुष अपने-अपने खेतों में तथा स्त्रायाँ घर के काम में लग जाती हैं। प्रकृति की यह विलक्षण लीला है कि काई भी अन्धा न तो एक दूसरे के खेत में धोखे से पहुँचता है और न ही दूसरों की झौपड़ी में प्रवेश करता है। अन्धा होते हुए भी प्रकृति ने यहाँ के प्रत्येक प्राणी को इतनी प्रज्ञाचक्षु प्रदान की है कि वह अपना जीवन निर्वाह का क्रम बनाये रह सकता है।
अनेकों ऐसे होते हैं जिन्हें सुविधा साधनों की कोई कमी नहीं होती। सहायक भी बहुत होते है। अभि भावकों का लाड़ प्यार और वैभव भी कम नहीं होता। इतने पर भी वे कोई कहने लायक प्रगति नहीं कर पाते। समय की कमी, साधनों का अभाव बता कर कई व्यक्ति अपने पिछड़ेपन का दोष हलका करते भी हैं। उनकी बात एक सीमा तक स्वीकार भी की जाती है किन्तु जिनके पास किसी प्रकार की कमी नहीं है, उन सम्पन्न परिवारों में जन्मे लोगों को क्या कहा जाय जो पर्याप्त अवसर होते हुए भी किसी दिशा में प्रगति नहीं कर पाते। बैठे-ठाले समय गुजारने वाले और दुर्व्यसनों से ग्रसित होकर उपलब्धियों को नष्ट-भष्ट करते कहने वालों का प्रधान दोष एक ही होता है अपनी विशेषता को न समझ पाना और उन्हें उभारने के लिए उत्साह न जुटा पाना।
सफलताओं में अवरोध उत्पन्न करने वाले अन्य करण भी हो सकते हैं, पर सबसे बड़ा कारण अपनी सामर्थ्य से अनजान रहना योग्यता को न बढ़ाना और प्रगति के लिए पुरुषार्थ न करना। यदि इन दोषों को हटाया जा सके तो हर व्यक्ति उज्जवल भविष्य की संरचना अपने ही हाथों कर सकता है। भले ही उसके इर्द-गिर्द कठिनाइयाँ घिरी पड़ी हो।