Magazine - Year 1980 - Version 2
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Language: HINDI
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जाति, आयु और भोग - त्रिविध कर्म-विपाक
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कर्म-विपाक त्रिविधि परिणाम उत्पन्न करते है - जाति, आयु तथा भोग। जाति से आशय योनि से है। क्योंकि शास्त्रों के अनुसार “समाज प्रसवः जातिः”-एक ही योनि-वर्ग से जिसका जन्म होता है, उन्हें एक जाति के कहते है। अतः जाति से तार्त्पय हुआ-मनुष्य जाति, गो-जाति, अश्व-जाति, हस्ति-जाति, सिंह-जाति, शेर-जाति, चीता-जाति, बन्दर-जाति ऐसी योनियाँ या देह-जातियाँ। जिस देह में जन्म लिया, वह जाति हुई।
आयु का अर्थ हुआ उस देह का स्थितिकाल और भोग का अर्थ हुआ इस जन्म में भोगी जाने वाली क्रियाए, अनुभूतियाँ और परिणाम-सुख-दुःख, लाभ-हानि, भोग-रोग आदि।
जाति, आयु और भोग; इन तीनों के अब तक कुल तीन हेतु मनुष्यों ने खोजे या विचारे है। प्रथमतः ईश्वर को ही इनका कर्त्तृत्व, हेतु माना जात है। दूसरा यह माना जाता है कि इनका कारण अज्ञेय है और तीसरा निर्ष्कष यह है कि कर्म ही इनके कारण है। ईश्वर को कर्त्ता मानना उसे विषमता को जन्म देने वाला अन्यायी मानना है। अज्ञेयवादी यह तो कह सकते है कि इनके कारण हमारी दृष्टि में अज्ञात है। किन्तु इसी आधार पर यह कहना कि इनके कारण “ मनुष्य मात्र द्वारा अज्ञेय है” दुराग्रह या दर्प है। इलेक्ट्र, प्रोटोन आदि कण सामान्य मनुष्यों के लिए अदृश्य अज्ञेय है, किन्तु प्रयोगशील वैज्ञानिकों के लिए वह ज्ञेय एवं दृश्य है। आध्यात्मिक उपकरणों, बौद्धिक विवेचनों तथा अन्तःप्रज्ञात्मक अनुभूतियों द्वारा इस विषय की छान-बीन करने वालों ने कर्मों को ही इन तीनों का कारण माना है। महर्षि पातँजली ने कहा है-
“सति मूले तद्विपाको जात्यायुर्भोगाः।”(योगसूत्र 2/13)
अर्थात् क्लेशूल कर्माशयों के त्रिविधि बिपाक होते है-जाति, आयु एवं भोग।
मनुष्य जो भी कर्म करता है, वह कर्म संस्कारों की प्रेरणा से। प्रज्ञा के उन्मेष के लिए, आत्म-साक्षात्कार के लिए किये गये कर्मों के संस्कार प्रज्ञा-संस्कार कहे जाते है। इसके अतिरिक्त शेष सभी कर्मों के संस्कार क्लिष्ट संस्कार है। इन्हीं संस्कारों के समूह को कर्माशय कहते है। उत्कृष्ट निकृष्ट एवं मिश्रित ऐसे तीन प्रकार के कर्म होते है। इन तीनों के संस्कार जब पककर फलप्रद हो जाने की स्थिति में पहुँच जाते है, तो उन्हें त्रिविपाक कहते है। जब यह संस्कार जागृत होता है तो उसे वासना कहते है। वासना ही कर्म की प्रेरणा बनती है।
जिन कर्मों का फल इसी जन्म में प्राप्त होता है, उन्हें दृष्टजन्म-वेदनीय कर्माशय का परिणाम माना जाता है और जिनका परिणाम देर से प्राप्त होता है, उन्हें अदृष्टजन्म वेदनीय कर्माशय कहा जाता है। कर्माशय का अर्थ है-कर्म संस्कार।
इन कर्माशयों के स्वरुप पर ही यह निर्भर करता है कि जीव की जाति या योनि अथवा देह क्या कैसी होगी, आयु क्या होगी एवं भोग क्या होंगे। इनमें से दृष्टजन्म-वेदनीय कर्माशय तो साधारणतः लोगों की समझ में आ जाते है। क्योंकि वे इसी जीवन के कर्मों का फल होते है। किन्तु उसी जन्म के सचित कर्मों का फल आयु तथा भोग के रुप में ही सामने आ सकता है, किन्तु जाति या योनि क्या होगी, यह विगत जन्म के कर्म पर ही निर्भर होता है।
आयु को बढाने वाले कर्म करने तथा स्वास्थ्य संरक्षण के नियमों का पालन, सात्विक जीवन, श्रेष्ठ विचार, समुचित पोषण, सन्तुलित जीवनचर्या आदि के द्वारा इसी जीवन में आयुष्काल बढा हुआ देख्रर जाता है। इसी प्रकार अभक्ष्य भक्षण, मदिरा-पान या अन्य नशों का सेवन, विष-भक्षण, आत्मघात, अस्त-व्यस्त,जीवनचर्या, जीवनी शक्ति का मनमाना अपव्यय आदि के द्वारा आयुष्काल को स्वयं इसी जीवन में लोग घटा लेते है। मनुष्यत्व को स्वयं ही पशुत्व में परिवर्तित करते अथवा देवत्व क रुप में ऊपर उठते भी इसी जन्म में लोगों को देखा जाता है। उन्नति-अवनति, विद्वत्ता-विमूछता, सक्रियता-निष्क्रियता आदि की सितियाँ मनुष्य स्वयं ही अपनाता या छोड़ता है। इस प्रकार अपनी आयु एवं भोग का एक अच्छा खासा अंश मनुष्य इसी जन्म के कर्मों के द्वारा बनाता है। यही दृष्टजन्म वेदनीय कर्माशय है। इससे भी यह तार्किक निर्ष्कष स्वतः निकलता है कि जो जाति, आयु तथा भोग इस जन्म के कर्मों के फल नहीं हैं, उनका कारण प्राग्भावीय अदृष्ट-जन्म वेदनीय कर्म होगा। फिर, सूक्ष्मतत्व विशारदों, जीवन तत्व के ज्ञाताओं ने तो स्पष्ट अनुभूतियों एवं निरीक्षणें द्वारा यह निर्ष्कष प्रतिपादित किया है कि समस्त भोग कर्मफल ही होते है तथा अप्रत्याशित प्रतीत होने वाले परिणामों के पीछे विगत जन्म के कर्म होते है। जन्मजात प्रतिभा या मूढता, विशेष प्रवृति-दिशा तथा विशेष रोग या अस्वाभाविक हानि-लाभ अदृष्ट-जन्म वेदनीय कर्मों के परिणाम होते है। इस सम्बन्ध में भारतीय मनीषियों ने ये कुछ महत्वपूर्ण तथ्य प्रतिपादित किये है, जिन्हें जान लेना उपयोगी होगा।
महर्षि व्यास ने पातँजल योग सूत्रों का भाष्य करते हुए लिखा हैः- दृष्टजन्म वेदनीय कर्माशय कभी मात्र भोग का एवं कभी आयु और भोग दोनों का हेतु होता है। अनादि काल से वासना द्वारा अपरिपुष्ट यह चित्त चित्राँकित पट जैसा या अनोनेक गाँठों वाले (मछली पकड़ने के काम आने वाले) जाल जैसा होता है। इस प्रकार वासना तो अनेक-जन्मपूर्विका होती है, किन्तु कर्माशय पूर्व के एक ही जन्म से सम्बन्धित होता है।
यह कर्माशय नियम विपाक एवं नियत-विपाक होता है। जो कर्म अपने फल को पूरी तरह उत्पन्न करता है, उसे नियत विपाक कहते है। जो कर्माशय अन्य कारणों से नियमित-निर्देशित होकर पूर्ण फलवान नहीं हो पाता, उसे अनियत विपाक कहते है।
जो कर्माशय मुख्यतः एवं स्वतन्त्रता से फलदायक हो, उसे प्रधान कर्माशय कहते है और जो कर्माश्य गौधष्स सहकारी भाव से स्थित हो, उन्हें अप्रधान कर्माशय कहते है।
जो कर्म तीव्र काम, क्रोध, क्षमा, दया आदि आवेगों से आचरित होता है या बार-बार आचरण से जो गहराई तक संस्कार अंकित करता रहता है, वही प्रधान कर्माशय होता है। इसके विपरीत जो कर्माशय होते है, वे अप्रधान होते है, उनके सम्यक् परिणाम नहीं प्राप्त होते।
जब कोई अति प्रबल कर्माशय या कर्म-संकार विपाक को प्राप्त होता है, तो अन्य अप्रधान व कर्माशय उससे अभिभूत हो जाता है। वह दब जाता है तथा काल क्रम से अवसर पाकर अभिव्यक्त होता है।
उदाहरण के लिए कोई व्यक्ति बाल्यावस्था में धार्मिक आचरण करता है। इसके उपरान्त विषय वासनाओंके आवेग से अनेक पाशविक कर्म करता है। अब मृत्यु के समय वही पाणविक भाव प्रधान रहने से उसका अगला जन्म पाशविकता प्रधान होगा या फिर पशु योनि में होगा। यदि पशु योनि में जन तो वहाँ वह पशुवत् आचरण एवं भोग ही कर सकेगा। अप्रधान (बाल्यावस्था) धर्माचारण का फल उस जन्म में प्रकाशित नहीं होगा। आग्र जब वह मानव-जन्म लेगा, तभी उसका सचित धर्माचरण-अंश प्रकाशित होगा।
इस प्रकार अदृष्टजन्म-वेदनीय कर्माशय अनियतविपाक ही होता है। अर्थात् उसका कितना फल पूरी तरह मिलेगा, कितना नहीं, यह पूर्णतः निश्चित नहीं होता। इसके कर्मों की तीन गतियाँ सम्भव हैं-
अपिक्त कर्म का नाश। जैसे क्रोधपूर्ण आचरण का कर्माशय नये जन्म में अक्रोश के अभ्यास से नष्ट हो जाता है। अतः पिछले जन्म के कर्मों का कुछ अंश विरुद्ध कर्म से अथवा ज्ञान से नये जन्म में नष्ट हो जाता है। अथवा वह प्रधानता से फल दे सकता है
अथवा वह संचित रहकर किसी अन्य जन्म में लाभप्रद हो सकता है।
अनेक कर्माशयों के फल एक ही जन्म में मिल जाते है। इस प्रकार एक ही जन्म के अनेक कारण होते है और वे उन सबके सम्मिलित प्रभाव से उनजन्म में जाति, आयु एवं सुख दुःख प्राप्त होता है। जो कर्माशय उन जन्म में अभुक्त रह जाते है, वे जन्म के अन्य कर्माशयों के साथ अगले जन्म में अभिव्यक्ति हो सकते है। यही क्रम चलता रहता है। सामान्यतः एक जन्म के सभ्ी कर्माशय अगले जन्म में फल उत्पन्न कर देते है। किन्तु अगले जन्म में किन्हीं कर्माशयों की प्रचण्डता से कुछ कर्माशय अनभिव्यक्त भी रह सकते है। इसी प्रकार एक जन्म के सभी कर्मों का फल संचित रहकर अगले जन्म में मिले यह कदापि आवश्यक नहीं। अनेक कर्मों के फल उसी जन्म में मिल सकते है और उनके कर्माशय इस प्रकार विनष्ट हो सकते है।
इस प्रकार कर्माशयों के कुल त्रिविपाक या तीन फल होते हैं- जाति, आयु एवं भोग। पुण्य एवं अपुण्य कर्मों के कारण ये त्रिविपाक सुखपूर्ण और दुःखपूर्ण होते है। यों प्रज्ञा-सम्पन्न् योगियों के लिए सम्पूर्ण भोग दुःख मय ही होते है। अविद्या, अस्मिता, रोग, द्वेष एवं अभिनिवेश को क्षीण करने वाल, उनके विरोधी कर्म पुण्यकर्म कहलाते है और इस क्लेशप्रद वृत्तियों के पोषक कर्म अपुण्य या पापकर्म कहलाते है। आचार्य गौड़पाद के अनुसार यम, नियम, दया और दान ये धर्म-कर्म या पुण्य कर्म है। जबकि मनु के अनुसार धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच इन्द्रिय-निग्रह, धी, विद्या, सत्य और अक्रोध-ये दस कर्म, धर्म-कर्म है। विवेकी पुरुष को विषय सुख भी दुःखकर ही जान पड़ते है क्योंकि वे परिणाम, ताप एवं संस्कार उत्पन्न करते है और इस प्रकार क्लेश को बढाते है। इसीलिए प्रज्ञामूलक-संस्कारों को उत्पन्न करने वाले कर्म ही विवेकी व्यक्तियों का लक्ष्य होते है। क्योंकि प्रज्ञा ही परम लक्ष्य तक पहुचाने में समर्थ होती है। अन्यथा जाति, आयु और भोग का अन्तहीन क्रम चलता ही रहता है।