Magazine - Year 1980 - Version 2
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Language: HINDI
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यह सौभाग्य हर विवेकवान को मिल सकता है
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अखण्ड-ज्योति परिजनों ने लम्बे समय से जो पढ़ा और समझा है अब उसे मस्तिष्क की उथली परतों तक सीमित न रहने देकर अन्तराल की गहराई में उतरना चाहिए और भुलकर आगत के सम्बन्ध में नई नीति निर्धारण कर सकने योग्य विवेक एवं साहस जुटाना चाहिए।
समस्याएं जानी पहचानी हैं। समाधान भी प्रायः सभी विचारवानों को विदित हैं। फिर से उस सर्न्दभ में अधिक ध्यान देने के लिए इसलिए कहा जाता है कि तथ्यों पर जिस हलके ढंग से विचार किया जाता रहा है वह अपर्याप्त है। ढर्रे आवरण उठाकर हमें वास्तविक को देखना चाहिए। इसी को तत्वदर्शन या ईश्वर दर्शन कहतें हैं। इसी का नाम आत्म साक्षात्कार अथवा ब्रह्म निर्वाण है। ढर्रे का अभ्यास ही भव बन्धन है। माया अर्थात् आवास्तविकता की खुमारी। इसे हटाया और तथ्य को अपनाया जा सके तो समझना चाहिए कि जीवन मुक्ति के मार्ग का अवरोध मिट गया।
मनुष्य जीवन ईश्वर का बहुमूल्य अनुदान है। इसे इनाम नहीं अमानत माना जाय। भव-बन्धनों के कुचक्र से निवृति, पर्णता की प्राप्ति-र्स्वग और मुक्ति की उपलब्धि-सिद्धियों की विभूति आत्मा और परमात्मा की एकता है कि यर्थर्थता को हृदयंगम करना सम्भव हो सका या नहीं ?
कहने सुनने को तो आदर्शवादी बकवास आये दिन चलती रहती है, पर वस्तुतः उसमें कुछ सार नहीं। अध्यात्म का लाभ एवं चमत्कार मात्र उन्हीं को मिलता है जो उसे कल्पना लोक की उड़ान न मानकर जीवन-दर्शन के रुप में मान्यता देते और नदनुरुप दिशा धारा का निर्धारण करते हैं।
युग-सन्धि की ब्रह्म वेला में जागृत आत्माओं का आत्म-चिन्तन, जीवन-दर्शन की यथार्थत के साथ जुड़ सके तो काम चले। सोचा जाय कि अन्य प्राणीयों की तुलना में मनुष्य को जो ‘विशेष’ मिला है वह शौक-मौज भर के लिए है ? विचारा जाय कि चौरासी चक्र से छूटने के-पूर्णता तक पहुँचने के ईश्वर के साथ अनन्य होने के इस र्स्वण सुयोग को आगे भी इसी तरह नष्ट करते रहना उचित है जैसा कि अब तक किया जाता रहा ? लोग कहते और क्या करते हैं इसे देखने, सुनने और उन्हीं का अनुकरण करने से तो एक के पीछे एक एक करके गर्त में गिरने वानी भेड़ों की तरह अपनी भी दुर्गति ही होनी है। क्या इस दुर्भाग्य से बचा नहीं जा सकता।
थोड़ी दूरदर्शिता और थोड़ी साहसिकता अपनाने पर उन तथाकथित परिस्थितियों का स्वरुप ही बदल सकता है जो लक्ष्य पथ पर चल सकने की असमर्थता विवशता बनकर सामने आती रहती है।मकड़ी अपना जाला आप बुनती है और उसमें फंसकर छटपटाती और जिस-तिस को दोष है। किन्तु जब अपना चिन्तन उलटती है तो अपने बुने जाले के धागो को समेटती, निगलती चली जाती है। निविड़ दीखने वाले बन्धन देखते-देखते साँझ के रंगीन बादलों की तरह अदृश्य होने लगते हैं।
सामान्यता मनुष्य जीवन की गरिमा का समुचित उपयोग विश्व उद्यान को सुरम्य बनाने में योग दान देकर इस सुअवसर को सार्थक बनाने में ही है। पेट प्रजनन तक अन्यान्य प्राणियों को सीमित रहना शोभा देता है, मनुष्य को नहीं। अन्य प्रणियों को साधन समिति मिले हैं। उनकी शरीर संरचना और बौद्धिक क्षमता इतनी ही है कि अपना निर्वाह भर चला सकें । किन्तु मनुष्य तो सृष्टा का युवराज है उसे इतना मिला है कि अपनी विशेषताओं के सहारे उसे तनिक-सा श्रम मनोयोग लगाकर चुटकी बजाते उपार्जित कर सकता है और शेष विभूतियों से आत्म-कल्याण और लाक-कल्याण जैसे उच्च उद्दयश्यों की पूर्ति कर सकता है।
इस सुअवसर को ठुकरा कर जो तृष्णा, वासना का लोभ-मोह का अनावश्यक भार संजोते और ढोते है, उनकी समझदारी को किस तरह सराहा जाये ? दल-दल में घुमते जाना और उसकी सड़न से खीझते ओर जक्ड़न से चीखते जाना, किसी का लादा हुआ नहीं, स्वयं ही अपनाया हुआ दुर्भाग्य है। यह अनिवार्य नहीं, अपना ही चयन है। कोई चाहे तो स्िति को किसी भी समय बदल भी सकता है। इसके लिए बहुत करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। मात्र दृष्टिकोण उलटना और कार्यक्रम बदलना पड़ता है। इस परिवर्तन से व्यवस्था बिगड़ती नहीं, वरन् और भी अच्छी बन जाती है। किन्तु उस अदूरदर्शिता को क्या कहा जाये जो अभ्यस्त ढर्रें के रुप में सिर से पैर तक लद गई है। कोई चाहे तो उसे सहज ही उतार भी सकता है।
माया छाया की तरह है वह आगे-आगे चलती और नेतृत्व करती है। किन्तु जब प्रकाश की ओर पीठ किये रहने की प्रक्रिया बदली जाती है, दिशा को उलट दिया जाता है तो सूर्य के सम्मुख होते ही छाया पीछे दौडने लगती है। परिस्थितियों की विवशता के सम्बन्ध में ऐसा ही सोचा जाता है कि वही बाधक हो रहा है। किन्तु ऐसा है नहीं। चिन्तन प्रतिगामी ढर्रा ही बसधक है। यदि आदर्शवादी आधार अपनाकर नये ढंग से सोचना और गतिविधियों का नये सिरे से निर्धारण कर सकना सम्भव हो सके तो प्रती होगा कि समस्त गुत्थ्याँ सुलझ गई। ऐसा मार्ग निकल आया जिस पर चलते हुए लोक और परलोक का सुव्यवस्थित रीति से सध सकना सम्भव ही नहीं सरल भी है। इस आन्तरिक परिवर्तन के लिए गतिविधियों के अमिट निर्धारण के लिए जो साहस जुटा लेते है वे देखते हैं प्रगति पथ पर बढ चलने की कितनी सहज सुविधा उपलब्ध थी। अदूरदर्शी आदतों ने ही उस सौभाग्य से मुँह मोड़ा था जो ईश्वर ने हर किसी को जीवन लक्ष्य पूरा कर सकने के निमित उदारता पूर्वक प्रदान की है।
सामान्य परिस्थितियों में जन्में और कठिनाईयों से घिरे व्यक्ति भी चरम उर्त्कष के लक्ष्य तक पंहुचे और महामानव बने है। दूसरे लोग जिन परिस्थितियों को विवशता मानते रहे उनने उन्हें इस रुप में देखा ही नहीं। नये ढंग से सोचा और नया मार्ग निकाला। फलतः परिस्थितियाँ अपनी जगह पर बनी रहीं और अग्रगमन के लिए दूसरा रास्ता निकल आया। महामानवों में से प्रत्येक का जीवन क्रम इसका साक्षी है कि उनने परिस्थितियों को अपरिहार्य नहीं माना और उनके न बदलने पर अपना ढर्रा बदलने का साहस जुटाया। पिछड़ेपन और प्रगतिशीलता का मध्ववर्ती अन्तर इतना ही है। जो इस रहस्य को समझते हैं उन्हें दैत्यों के जादू तिलस्म से बाहर निकलना और देवों के उन्मुक्त आँकाश में विचरण करना कुछ भी कठिन नहीं रह जाता। तिलस्म अवास्तविक है। स्व सम्मोहन और आत्मसमर्पण ही उसका आधार है। अन्तरंग बदलते ही बहिरंग के उलटने में देन नहीं लगती। जो भीतर की गुत्थी सुलझा सके उनके लिए बाहर समस्याओं का हल निकालते देन नहीं लगती। प्रपंच का जंजाल तो भीतर ही भरा पड़ा है। अपच होने से ही स्वादिष्ट व्यजंन कडुए लगते है।
यदि विलासी लिप्सा और संग्रह की तृष्णा को हलका किया जा सके तो औसत भारतीय जेसा नैतिक निर्वाह आसानी से उपार्जित हो सकता है। यदि परिवार को बढाने की मूर्खता न की जाय, जो अब तक का है उसे स्वावलम्बी सुसंस्कारी बनाना भर कर्त्तव्य माना जाय तो उस परिपोषण के लिए सामान्य प्रयास से ही काम चल सकता है। बोझिल जीवन तो उनका होता है जो अमीरी के स्वप्न देखते ओर उत्तराधिकारियों को वैभव से लादने की ललक संजोये रहते है। बोझ इस दुश्चिन्तन भ का है। न किसी के लिए पेट भारी पड़ता है और न परिवार। बोझिल तो वह मूर्खता है जो लिप्सा तृष्णा के रुप में जोंक की तरह शिराओं में दाँत गढाये रहती है। आवश्यकता हर किसी की पूरी हो सकती है पर तृष्णा की आग को बुझा सकना कितने ही प्रचुर वैभव से नहीं हो सकता। ईंधन पड़ने पर वह शान्त कहाँ होती, दूनीं-चौगुनी भड़कती है।
प्रसुप्ति ग्रस्तों का चिन्तन और आचरण जैसा होता है उसकी तुलना में जागृतों के सोने और करने में भारी अन्तर रहता है। जागृतों का मोह ग्रस्तों की तरह नहीं सोचना चाहिए, उन्हें सुख में ही लिप्त नहीं रहना चाहिए। सन्तोष भी उपार्जित करना चाहिए। बड़प्पन ही पर्याप्त नहीं महानता भी अभीष्ट है। वावाही लूटने के लिए उद्धत प्रदर्शन का सरंजाम जुटाने में सार नहीं, महत्व उस लोक श्रद्धा का है जो उत्कृष्टता और उदारता अपनाने पर प्रयुर परिमाण में उपलब्ध होती और अन्तरात्मा को आनन्द भीर पुलकन से परितृप्त करती है।
हर जागरुक को इन दिनों इसी स्तर का प्रगतिशील चिन्तन अपनाना चाहिए और ढर्रें में ऐसा परिवर्तन करना चाहिए जिससे इस विषम वेला में आपतित धर्म का निर्वाह कर सकना सम्भव हो सके। ढूँढने से हर कसी को राह मिलती है। यदि आकाँक्षा सच्ची हो तो एक न सही दूसरे ढंग से सही कोई हलनिश्चित रुप से ऐसा निकल सकता है जिसमें निर्वाह भी कठिन न पड़े और जीवन लक्ष्य पाने तथा युग धर्म निभाने का अवसर भी मिलता रहे।
रोज कुआ खोदने और रोज पानी पीने वाले भी यदि आदश्रवादिता को अपना सके तो आठ घण्टा कमाने के -सात घण्टा सोने के-पाँच घण्टा गृह कार्यों के लिए लगाकर बीस घण्टे में संसार यात्रा भली प्रकार चला सकते है और शेष चार घण्टे बिनाकिसी कठिनाई के युग धर्म के निर्वाह में नियमित रुप से लगा सकते है। बहानेबाजों की बात दूसरी हैं उन्हें बसी बहाने पहले से ही याद है। चाहं तो चालीस और भी गढ सकते है। इन भावना रहित लोगों की आत्मा प्रवचना ही मूल भूत कठिनाई है। यथार्थ चिन्तन की कसौटी पर उनकी वह मनगढन्त नितान्त बनावटी लगती है जिसका आश्रय लेकर वे अपनी जागरुकता को कर्त्तव्य पाि पर चलने से रोके रहते है।
पूरा समय आत्म-कल्याण और लोक-कल्याण में लगा सकने की परिस्थितियाँ प्रायः आधे लोगों में होती है। सचित सम्पदा को समेटकर यदि स्थाई निधि के रुप में जमा कर दिया जाये तसे दस प्रतिशत ब्याज भर से इतना पैसा सहज ही मिलता रह सकता है जिसमें निर्वाह भी होता रहे और देव जीवन भी जिया जा सके। परिजनों को स्वावलम्बी भर बनाने का लक्ष्य हो तो उनमें से अन्य समर्थों को बैठकर न खाने कुछ कमाने के लिए उत्साह उत्पन्न किया जा सकता है। बैठकर खाने में इज्जत और कमान में अपमान की मान्यता यदि बदली जा सकें तो प्रतीत होगा कि बचे हुए समय में घ के समर्थ लोग कुछ न कुछ कमा सकते है और एक व्यक्ति पर लदे हुए भार को बहुत कुछ हलका कर सकते है। बेटों को वैरिस्टर बनाने ओर लड़की को कुबेर घर भेजने का नशा हलका किया जा सके ओर उन्हें औसत नागरिकों की तरह निर्वाह करने और सुसंस्कारी गतिविधियाँ अपनाने के मार्ग पर चलाया जा सके तो प्रतीत होगा कि पहाड़ जैसा बोझ उतरकर हलका हो गया। सन्ताने स्वावलम्बी हो जाने पर छोटे परिवार से बिदाई लेनी चाहिए और बड़े परिवार की विश्व परिवार की बात सोचनी चाहिए। समर्थ सन्तानो को समझाया जाना चाहिए कि माता पिता का ऋण छोटे भाई-बहिनों की जिम्मेदारियाँ सम्भालने के रुप में चुकाया जाना चाहिए। यह ऋण मुक्ति ओर अनुदान के प्रतिदान का सिद्धान्त हर समर्थ सन्तान को सीखना चाहिए। इस कर्त्तव्य भावना को हर परिवार में जगाया जाना चाहिए। बाप की कमाई बेटों को ही बंटे, यह देव परम्परा नहीं है। परिवार के भरण पोषण उत्तरदायित्व से जो निवृत हो चुके उनके लिए पोतों के टटी धोते रहने और पुत्रवधू की गालियाँ खाते रहना ही एकमात्र मार्ग नहीं। वे चाहं तो वानप्रस्थ परम्परा को अपनाकर भारतीय संस्कृति के सच्चे उत्तराधिकारी भी बन सकते है।
परिस्थितियाँ असंख्यों की ऐसी है जिनको युग धर्म के निर्वाह की समुचित सुविधाएँ प्राप्त है। हथकडियाँ मोह की और बेडियाँ लोभ की है जो एक कदम आगे बढने और एक परमार्थ करने देने में अवरोध अटकाती है। इन्हें तोड़ा न जा सके तो ऐंठ मरोड़कर ढीला तो किया ही जा सकता है। इतने भर से दौड़ना न सही घिसटना तो निश्चित रुप से सम्भव हो सकता है।
युग सन्धि की इस पुनित वेला में आपत्ति धर्म के निर्वाह से मुँह मोड़ना ऐसा प्रमाद है जिसके लिए समय निकल जाने पर हाथ मलना और पश्चापात करना ही शेष रह जायेगा।
देवताओं से सहायता माँगने की बात तो सदा ही चलती है। पर कुछ विशेष समय ऐसे भी आते है जब देवता मनुष्य से याचना करते है। ऐसे अवसर किन्ही सौभाग्यवालों को ही मिलते है जब वे देवताओं की मनोकामनाएँ पूरी करने में समर्थ हो सके। दशरथ को देवताओं की सहायता के लिए जाना पड़ा था। अर्जुन भी गये थे। दधीचि ने उदरतापर्वूक उन्हे दान दिया था। कृष्ण साधु के वेश में घायल कर्ण के पास पहुँचे थे। वामन ने बलि के सामने हाथ पसारा था। राम ने शबरी से बेर की याचना की थी। सुदामा से तन्दुल माँगे गये थे। अंगद और हनुमान ने देवताओं से अपनी कामनापूर्ण नहीं कराई थी वरन् उनकी पूरी की थी। इस प्रसंग में ऋषियों की परम्परा याद आ जाती है। विश्वामित्र ने हरश्चन्द्र से, उद्यालक ने आरुणि से, चाणक्य ने चन्द्रगुप्त से, समर्थ ने शिवाजी से, परमहन्स ने विवेकानन्द से, विरजानन्द ने दयानन्द से कुछ माँगा था और सत्पात्र शिष्यों ने जी खोल कर दिया भी था। बुद्ध और गाँधी की झालियाँ आदि से अन्त तक फैली ही रही। देने वाले घाटे में नहीं रहे। लेने वाले जितने धन्य हुए उससे अधिक श्रेय देने वाले को मिला। सान्धाना ने शंकराचार्य को जो दिया था उससे अधिक पाया। अंगुलि माल और अम्बपाली हर्षवर्धन और अशोक, बुद्ध को देते समय उदारता की चरम सीमा पर पहुँयचे थे। गाँधी के सत्याग्रहियों ने अनुदानों की अपने दाव पर झड़ी लगा दी। देखते है कि जो दिया गया था वह निरर्थक नहीं गया वरन असंख्य गुना होकर उन उदार मनाओं के ऊपर दैवी वरदान की तरह इस प्रकार बरसा कि वे कृत-कृत्य हो गये। धनी अकेले भामाशाह ही नहीं हुए है। मरण अकेले भगतसिंह के हिस्से में ही नहीं आया हक्। जेल अकेले नेहरु पटेल ही नहीं गये है। मुसीबतें बहुतों को आती है। त्यागने के लिए हर किसी को विवश होना पड़ता है। किसी से चोर छीनता है। किसी से बेटा। पेट भरने और तन ढकने के अतिरिक्त और किसी के पल्ले कुछ नहीं पड़ता। जब विरानों के लिए ही सब कुछ छोड़ना है तो इन विरानों का स्तर कुछ ऊँचा क्यों न उठा लिया जाये। जब अपना उपार्जन श्रम, सहयोग किसी को देना ही है तो उन्हें देवताओं ऋषियों एवं सदुद्देश्यों के लिए ही क्यों न दिया जाये ? इस उदार नीति को अपनाने वाले बैंक में जमा की गई पूँजी की तरह ब्याज समेत लम्बा लाभ पाते है जबकि मोह के गर्म में धकेली हुई उपलब्धियाँ निरर्थक ही नहीं जाती, विघातक प्रतिक्रिया भी उत्पन्न करती है।
दूसरों से बात करने में समय और चातुर्य का कचुमर निकल जाता है। यदि अपने से भी एकान्त में जी खोलकर समझदारी की बात की जा सके और अभिन्नों के सहयोग से बनाने वाली सृजनात्मक योजना बनाने जैसा कुछ किया जा सके तो अन्तःलोक में प्रसुप्त पड़े देवता ही जागृत होकर ऐसा परामर्श एवं सहयोग देने लगेगें जिन्हें पाकर समस्त अभाव की पूर्ति और समस्त वैभव की उपलब्धि हो सकती है।
गायत्री नगर में देव परिवार बस रहा है। उसमें रहने वाले अकर्मण्यता अपनाकर मौत के दिन पूरे नहीं करेगें वरन् आत्मोर्त्कष एवं लोकमंगल का अवसर प्राप्त करेंगें जिसे पारस को छूकर लोहे के सोने में बदल जाने की उपमा दी जा सकती है। कल्पवृक्ष के नीचे बैठने वालों की कामनाएँ पूर्ण होती और दरिद्रता मिटती बताई जाती है। गायत्री नगर के निवास को उसी अलंकारिक मान्यता के समतुल्य माना जा सकता है। कामनाएँ सुरसा के मुख की तरह है। उन्हें पूर्ण करने के लिए हनुमान जैसा आप्तकाम दृष्टिकोण चाहिए। कामनाओं के भावनाओं में बदल जाने पर वह परितृप्ति मिलती है जो कल्पवृक्ष के सान्निध्य में रहने वाले देवताओं को मिलती है। गायत्री नगर का वातावरण अपने आश्रम में रहने वालों को आप्तकाम बनाने और देव सम्भव परितृप्ति दिलाने में समर्थ हो सकेगा ऐसी आशा करने को अतिवाद नहीं कह सकते।
मनःस्थिति को परिष्कृत किया जा सके तो अखण्ड-ज्योति परिजनों में से अगणित अपनी परिस्थिति गायत्री नगर में बस सकने योग्य पावेंगें। जो इस अवसर का लाभ उठा सकंगे उन्हें सच्चे अर्थों में सौभाग्यशाली माना जायेगा।