Magazine - Year 1980 - Version 2
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Language: HINDI
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मानवी सत्ता में सन्निहित, महान सम्भावनाएँ
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योगिराज अरविन्द कहते थे - “मनुष्य अभी तक मस्तिष्क के धर तिल पर है। जबकि अन्य प्राणी शरीर की क्षुध्रा पमरी कर सकने वाली इन्द्रय शक्ति के सहारे जीवनयापन कर रहे हैं। मनुष्य ने अनियन्त्रत कल्पनाओं और सचित मान्यताओं, आदतो से ऊँचे उठकर बुद्धि के सहारे यथार्थता को एक सीमा तक समझ सकने की क्षमता प्राप्त कर ली है। प्राणियों की तुलना में मानवी प्रगति सराहनीय है। किन्तु यह विकास का अन्तिम सोपान नहीं है। उसे अभी काफी आगे चलना और ऊँचा उठना है। यह प्रगति क्षेत्र भाव सम्वेदनाओं का होगा। परिष्कृत अन्तःकरण अर्थात अति मानस स्तर तक पहुँचना यही मानव-जीवन का लक्ष्य है।”
इसाई धर्म ग्रन्थ “फ्लैगमेन्टस् आव ए कनफेंशन” में सेन्ट पाल के एक कथन का उल्लेख है जिसमें वे कहते है कि - ईश्वर का सबसे बड़ा अनुदान मानव है। प्राप्त करने वाले की बुद्धिमता है कि उसे विकास की चरम सीमा तक पहुँचाये। इसका उपाय है-प्रेम की व्यापकता और सेवा में आनन्द की अनुभूत विकसित आत्मा दिव्य का रसास्वादन करती है।
दार्शनिक प्लाटिनस कहते हैं- इन्द्रियों के माध्यम और तर्कों के आधार पर जिस ज्ञान की प्राप्ति होती है वह मनुष्य प्राणी के लिए का चलाऊ तो है, पर मानव के स्तर से बहुत नीचा है। देव मानव को विवेक तथ्यों को छानने की आवश्यकता तो पड़ेगी, पर निर्भर उस चेतना पर रहना होगा जो अन्तरात्मा की गहराई से उभरती अथवा ईश्वर की ऊँचाई से बरसती ह।
सन्त अगास्टिन ने जीवन स्मृति नाम अपने ग्रन्थ में सेण्ट मणिका का उल्लेख किया है। वह प्रार्थना के समय लगभग तीन फुट आकाश में अवस्थित हो जाती थी। ऐसा लगता था कि उसके शरीर पर गुरुत्वाकर्षण का कोई प्रभाव नहीं है। उसका शरार वायु में तैरता दिखायी पड़ता था।
सेण्ट फ्रान्सिस (पाओला) रात्रि के समय प्रार्थना करते हुए आकाश नेप्ल्स के नरेश ने उनको आमन्त्रित किया। जिस कक्ष में निवास की व्यवस्था थी उसके दरवाजे में एक छेद था। रात्रि को नगर राजा ने देखा कि सेण्ट फ्रान्सिस प्रार्थना कर रहे हैं तथा एक विशाल प्रकाश पुन्ज उनको घेरे हुए है। मेज से कई फुट ऊँचा उनका शरीर शून्य में बिना किसी सहारे के अवस्थित था। घटना पाँचवी शताब्दी की है। स्पेन की सेण्ट टेरेसा जिसकी तुलना भारतीय मीरा से की जाती ह उनके विषय में भी इसी प्रकार का उल्लेख मिलता है। स्थानीय विशप डन आलपेरेस डे मोनडोसा एक बार सेण्ट टेरेसा से मिलने गये। यह देखकर आर्श्चयचकित रह गये कि टेरेसा का शरीर जंगले से ऊपर शून्य में स्थित है।
नव फ्लातनिक, दार्शनिक व्लिपास जाम प्रार्थना के समय पृथ्वी से 10 हाथ ऊपर उठ जाते थे। उस समय उनके शरीर एवं वस्त्राँ से सुनहरी चमकीली ज्योति निकलती दिखायी देवती थी। उनका शरीर वायु में विचरण करता रहता था।
विशप सेण्ट आर. के विषय में भी उल्लेख मिलता है कि गिरिजाघर बन्द हो जोने के बाद भी वे किसी अलौकिक शक्ति द्वारा पहरेदारों की उपस्थिति में भी भीतर पहुँच जाते तथा सारी रात जागकर प्रार्थना करते रहते। प्रार्थना की अवधि में सम्पूर्ण गिरजाघर एक दिव्य आलोक से आलौकित रहता था।
टियाना निवासी योगी एपोलोनियस में भी आकाशगमन की शक्ति थी।
भारतीय योगियों में तो इस प्रकार की आलौकिक घटनाओं के अनेकों उदाहरण मिलते हैं। दयानन्द सरस्वती को कितनी बार नदी के ऊपर आसन लगाकर ध्यान करते हुँए देखा गया। स्वामी रामतीर्थ, रामकृष्ण परमहंस की घटनाएँ विख्यात है। काठियाबाबा, विशुद्धानन्द जैसे योगियों के जीवन वृत्तान्त में भी इस प्रकार की घटनाएँ देखने को मिलती है। शंकराचार्य, गोरखनाथ को भी आकाश गमन की सिद्धि प्राप्त थी।
दाराशिकोह ने औलियों के जीवन वृत्तान्त में मियाँमीर का उल्लेख किया है। इसके अध्ययन से पता चलता है कि उनमें अलौकिक सिद्धियाँ प्राप्त थी। वे आवश्यकतानुसार कभी-’कभी लाहौर से आकाश मार्ग द्वारा ‘हिजाद’ जाते थे। रात्रि व्यतीत करके पुनः सूर्योदय के पूर्व लाहौर वापिस लौट आते थे।
शेख अब्दुल कादिर एक व्याख्यान करते हुए भूमितल से ऊपर शून्य में उठ गये। उपस्थित हजारों व्यक्तियों ने इस घटना को देखा। शून्य में कुछ देर ठहरने के उपरान्त पुनः भूमि पर वापस लौट आये। इस आकस्मिक घटना का स्पष्टिकरण देते हुए उन्होंने कहा कि मुझे अचानक दीखा सन्त ‘खिदिर’ मस्जिद के पास से जा रहे हैं। आकाश मर्का में जाकर मैंने अभिवादन किया तथा व्याख्यान सुनने के लिए आमन्त्रित किया।
पदार्थ सामान्यतया एक नियम व्यवस्था के अनुसार काम करते है। अणु-परमाणुओं से लेकर ब्रह्माण्ड के तारों, मण्डलों तक पर प्रकृति के कुछ नियम अनुशासन नियन्त्रण करते हैं, तदनुरुप ही सृष्टि का सारा क्रम चलता है। किन्तु चेतना का प्रकृति पर भी आधिपत्य है और वह अपने आकर्षण तथा दबाव से प्रकृति नियमों में भी हेर-फेर कर सकता है। कई बार देवताओं, सिद्धपुरुषों एवं प्रेतात्माओं के प्रभाव से वस्तुओं के सामान्य व्यवस्था क्रम में उलट-पुलट देखी गई है। साधारणतया प्रचलित व्यवस्था में इस प्रकार की गड़बड़ियों गुन्जायश नहीं होती। किन्तु देख गया है कि चेतना का दबाव बिना शरीर या उपकरणों का प्रयोग किये ही अपनी इच्छाशक्ति के सहारे ऐसा कुछ कर देता है जिन्हें रहस्य कहने के अतिरिक्त और कोई समाधान सूझ नहीं पड़ता।
24 अप्रैल 1944 के साप्ताहिक समाचार पत्र ‘टाइम’ में प्रकाशित घटना से पता चलता है कि वास्तविक जीवन में विलक्षणताओं को अन्धविश्वास कहकर नहीं ठहराया जा सकता है। श्रीमती पाँल्मिन रेवेल अमेरिका के उत्तरी भाग में डकोटा क्षेत्र के रिचर्डसन नामक नगर में बाइल्ड प्लम स्कूल की शिक्षका थी। जो आठ बच्चों को पढा रही थी अचानक घटना घटी।
कमरे के अन्दर रखी हुई अंगीठी में कोयले स्वयं प्रज्वलित होने लगे। थेड़ी देर में कोयले अंगीठी से निकलकर दीवारों से टकराये और फिर वापस अपने पूर्व स्थान पर ही आ गये। एक जलता हुआ कोयला एक विद्यार्थी के ऊपर जा गिरा जिससे उसका सिर झुलस गया। एक तेजी की अवाज के साथ अंगीठी विपरीत दशा में जा खड़ी हो गई वहाँ पर रखी हुई पुस्तकों का एक बन्डल स्वयं ही बड़ी तेजी के साथ लने लगा। उसी शेफ में रखा हुआ एक शब्दकोष अपने आप नीचे उतर आया और कमरे की खिड़कियाँ स्वयं ही जलने लगी।
उसी क्षण शिक्षिका द्वारा फाइरब्रिगेट को सूचित किया गाय। उनके आने पर भी अग्नि का प्रभाव बना ही रहा। विद्यार्थीयों को अपवने घर भेजकर कालेज को बन्द कर दिया गया। उन कोयलों का परीक्षण विज्ञान के शिक्षकों द्वारा किया गया और बाकी को अमेरिका की खुफिया पुलिस के वैज्ञानिकों द्वारा जाँच की गयी। इसके बारे में श्रीमती रेवेल ने स्कूल के बच्चों को पृथक रुप से पूछा तो उन्हाँने स्थिति की सच्ई को प्रकट किया।
इस घटना को लेकर वैज्ञानिक क्षेत्र में तहलका मच गया और बहुत समय तक उस सर्न्दभ में जाँच पड़ताल चलती रही। प्रो0 जार्ज गैमोन ने इस सर्न्दभ में लम्बी खोज की और कारणों तथा सम्भावनाओं पर कितनी ही अटकलें लगाते हुए प्रकाश डाला, एक दूसरे वैज्ञानिक मैक्सवेल ने भी इस घटना को लेकर कइर्द तरह की अटकलं लगाई। किन्तु समाधान किसी का भी नहीं हुआ। वे स्वयं अपने निष्कार्षों को अटकल बताते थे तो दूसरा कोई क्यों उन्हें सुनिश्चित माने ?
इस सम्भावना पर ही अधिक विश्वास किया गया कि कोई अदृश्य व्यक्तित्व के दबाव से इस प्रकार की उलट-पुलट हुई होगी। ऐसी अनेकों घटनाएँ यह बताती है कि चेतना की व्यक्ति विशेष में मात्रा भले ही न्यून हो, पर उसमें सम्भावनाएँ अपने उद्गम स्त्रोत जितनी ही विद्यमान रहती है।
मनुष्य की विलक्षणताएँ कई बार अनायास ही उभर कर ऊपर आती देखी गई है। कई बार उन्हें जगाकर ..... किया जाता है। दोनो ही परिस्थितियों से यह सिद्ध होता है कि मानवी सत्ता में अनन्त सम्भावनाएँ विद्यमान हैं। यदि उन्हें खोजने और जगाने का प्रयत्न किया जाये तो प्रकृति के वैज्ञानिक अनुसन्धानों से अब तक जितना मिल सका है उसकी तुलना में व्यक्तित्वव की खोजबीन से अपेक्षाकृत कहीं अधिक उपलब्धियाँ करतलगत की जा सकती है।
प्रकृति पदार्थमयी है इसलिए उसका अनुशासन पदार्थ पर तो पूर्णतया लागू होता है किन्तु मनुष्य चेतना का धनी है। उसकी अपनी मौलिक विशेषता है और ऐसी है जो प्रकृति को अपना अनुयायी बना सकती है। अनुसन्धान के लिए यदि आत्म-सता के क्षेत्र में प्रवेश किया जा सके तो मनुष्य सच्चे अर्थो में सिद्वियों और चमत्कारों का अध्सिपति हो सकता है।
एल्फ्र्रेड लाँगवेन नामक एक ऐसा व्यक्ति मिशिगन (अमेरिका) में था जो अपनी आँखों से फूँक मारकर जलते हूए दीपक को बुझा देता था। दस पर अनेक तरह के प्रयोग और परीक्षण हुए, पर कही कोई ऐसा कारण समझ में नहीं आया जिससे यह पता चला हो कि उसने ‘ट्रिक’ की है अथवा किसी तरह अभ्यास से सह सामर्थ्य विकसित हुई हो, अपितु दसमें यह क्षमता जन्मजात और ईश्वर प्रदत थी। एकबार तो उसके मुँह और नाक के नथुनों को पुरी तरह सील कर दिया गया तो भी उसके सामने जलती हुई मोमबती लाते ही उसने आँख से फूँक मारकर बुझा दी। यही नहीं इस अवधि में उसने साँस न मिलने से होने वाली कैसी भी घबराहट अनुभव नहीं की।
जार्जिया का टोकोआ पहलवान 364 पौण्ड भरी है अब बिना किसी की सहयता के 6370 पौण्ड वजन अकेला उठा लेता है और कुछ दूर तक उसे ठोकर से भी ले जाता है। ओलम्बक खेलों में उसने 1932 में 1956 में चेम्पियन का सम्मान प्राप्त किया था।
स्मरण शक्ति के इतिहास में इटली के जोसेफ कास्पर ने कीर्तिमान स्थापित किया था जो अभी तक तोडा नहीं जा सका। वह संसार की प्रायः समस्त भाषाओं का ज्ञाता था। इनमें 144 प्रमुख भाषाएँ हैं और अपनी लिपियाँ तथा व्याकरण की सुनिश्चित पद्वतियाँ है। इसके अतिरिक्त इसे 72 ऐसी श्रेत्रीय भाषओं में बोलने तथा समझने का अभ्यास था जो लोक-जीवन में प्रचलित तो है, पर उनका विधिवत् निर्धारण नहीं हुआ है। कास्पर को सबसे अधिक समय चीनी भाषा सीखने में लगा। इस अध्ययन में उसे चार महीने का समय नष्ट करना पडा।
डेनमार्क के एक नगर कोपेनहेगन में एक बैंक में आग लगई। सोने, चाँदी के सिक्के तो बच गए, किन्तु अन्य सारे रिकार्ड जल गये। अगले दिन बैंक के सामने लोगों की भीड जमा हो गई तथा सभी अपना हिसाब माँगने लगे। बैंक के अधिकारी रिकार्ड के अभाव में उलफत में पड गये। तभी बैंक का एक र्क्लक आगे आया। नाम था-वर्थोल्ड नोव्हर। उसने बताया कि उसे दो हजार ग्राहकों के हिसाब जवानी याद हैं। डाइरेक्टर ने उसकी बात पर विश्वास कर धन जमा करने वालों से पूछा तो पता चला कि र्क्लक का कहना ठीक है। इस विलक्षण स्मृति के आधार पर सबका पैसा ठीक प्रकार से चुका दिया गया।
इग्लैंड में एक ऐसा व्यक्ति था जो 1483 में जन्भा और 1635 में मरा। उसने डेढ़ शताब्दी का समय निरोग रहकर गुजरा। उसने अपने समय में दस राजाओं को सिहासन रुढ़ होते और पद छोड़ते देखा। असली नाम तो लोग भूल गये थे। “औल्ड पार” नाम से उसे पुकारा जाता था अतएव इसी नाम से उसका उल्लेख किया गया। वृद्वावस्था को सम्मान देने की द्वष्टि से सामान्य नागरिक होते हुए भी उसे ‘वेस्ट मिस्टर एवी’ के सम्मानित कब्रिस्तान में दफन किया गया।
नास्तिकतावादी नीत्से ने आत्मा और परमात्मा का अस्तिव तो नहीं स्वीकारा, पर वे भी मनुष्य का ‘अति-मानव’ बनने की प्रेरणा देते थे।
यही है नव-जागरण जिसके लिए उपनिषद्कार ने प्रत्येक विज्ञजन को उद्वोधन करते हुए कहा है- - “ ऊँचे उठो- - प्रसुप्त को जगाओ- जो महान है दसका अव-लम्बन करो और आगे बढ़ो” इस लक्ष्य की दिया में जितना प्रयास किया जायगा मनुष्य उतना ही समर्थ और समृद्ध बनता जायगा।