Magazine - Year 1980 - Version 2
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Language: HINDI
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शेष मंजिल पूरी करने का नया उपक्रम
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उपयोगी सम्पदाओं की संख्या अगणित है। संसार के बाजार में जिस ग्राहक को जो रुचता है वह मूल्य देकर खरीदता है। इसमें कुछ खरी होती है कुछ खोटी कुछ चमकीली होती हैं कुछ उपयोगी। कुछ नशीली होती ह। कुछ विषैली। साथ ही कुछ ऐसी भी होती है जिन्हें प्राप्त करने पर इस मण्डी में आना सच्चे आर्थो में सार्थक होता है।
मनुष्य जन्म का सर्वोपरि लाभ है- व्यक्तित्व का निर्माण। सफलताओं में उसी को सर्वोच्च स्तर कहा जा सकता है। अलंकारिक रुप से इसी को कल्प वृक्ष कहा गया है। जिसने यह कमा लिया उसकी तुलना में सभी वैभववान छोटे पड़ते है। इतिहास में पृष्ठ साधन सम्पत्रों की भी जिस-तिस प्रसंग में चर्चा करते है, पर जिनका भाव भरा गुणगान और अभिनन्दन होता है वे महामानव वर्ग के ही होते है। यों चर्चा तो उनके द्धारा प्रस्तुत कार्या की ही होती है। उल्लेख तो घटनाओं का ही हो सकता है, पर वस्तुस्थिति यह है कि उनका व्यक्तित्व ही पारस पत्थर होता है वह जिस भी लौह खण्ड को छूता है उसे ही स्वर्णिम बनाकर रख देता है।
अध्यात्म-दर्शन में अनेको सिद्धियों और उपलब्धियों का वर्णन है। वे बडी आकर्षक और आनन्ददायक प्रतीत होती है। उन्हें जिसने पाया वे स्वयं गौरवान्वित हूए और अनेको को लाभान्वित करने में समर्थ रहे। समझा यह जाता है कि यह सिद्धियाँ किसी देवी-देवता के द्वारा दी गई है। मन्त्रोपचार के सहारे उपलब्ध हुई है, पर वास्तविकता दूसरी ही होती है। मनुष्य जान या अनजान में व्यक्तित्व में उत्कृष्टता का समावेश करता है और उसी अनुपात में अपना मूल्य बढ़ाता है। यही है वह आधार जिससे मानवी गरिमा आँकी जाती है। यही है वह हुण्डी जिसे किसी भी दुकान पर भुनाया जा सकता है। व्यक्तित्व पुरुषार्थ से मिला-सिद्धि पुरुषों ने दिया अथ्वा प्रारब्ध वश हाथ आया- यह बात दूसरी है, किन्तु इतना निश्चित है कि महान सफलताओं के अधिकारी मात्र महामान ही रहे है। महामानव का अर्थ शक्ति और सम्पत्रता का धनी नहीं वरत् व्यक्तित्व का वैभव है। जिसके होने पर जन सहयोग और अभीष्ट साधनों की कमी नहीं रहती।
लगता ऐसा है मानो साधनों के सहारे मनुष्य ऊँचे उठते और आगे बढ़ते है। यह भ्रम इसलिए होता है कि साधन और सफलता यही दो प्रकट रुप से सामने दीखते है। कर्ता की प्रतिभा और प्रखरता तो बुद्धिगम्य होती है, वह आँखों से नहीं दीखती। इयलिए स्थूल द्वष्टि से सफलताओं का आधार साधन सुविधाओं तथा परिस्थितियों को समझा जाने लगता है, किन्तु थोडी गहराई तक उतरने पर दूसरे ही तथ्य सामने आते है। प्रमुखता व्यक्तित्व की विदित होती है। उसे एक जीवन्त चुम्बक कह सकते है जो दूसरो को सहयोग से संचित करने में अनायास ही सफल होता चलता है। परिस्थितियों के अनुकूल में कोई जादू काम नहीं करता। दूरदर्शी चिन्तन तथा व्यवस्थित पुरुषार्थ के सहारे अपनाई गई गतिविधियाँ ही प्रतिकूलताओं को मोडती-मरोडती तथा उन्हें अनुकूलता में बदलती देखी जाती है। परोक्ष को न समझ पाने वाले ही परिस्थितियों के गुण गाते है। जो तथ्यों तक पहुँचते है उन्हे यह समझने में कोई कठिनाई नहीं होती कि प्रगति का आधार प्रतिभावान वयक्तित्व ही होता है।
व्यक्तित्व अर्थात-गुण, कर्म, स्वभाव, का समुच्चय, द्वष्टिकोण का स्तर, सुसंस्कारी व्यवहार,आकाँक्षाओं का प्रवाह, साहस और उत्साह अनुशासन का अभ्यास। इन्ही विशेषताओं के समन्वय को उत्कृष्ट व्यक्तित्व कहते हैं। जिसने अपने को इन विभूतियों से सुसज्जित कर लिया, समझना चाहिए कि उसे आत्मिक सृद्धियों और भौतिक सिद्धयों के रहस्मय सूत्र हाथ लग गये। उपासना, तपश्चर्या, योगासाधना आदि के नाम से जानी जाने वाली क्रिया-प्रक्रियाओं का उद्वेश्य एक ही है-साध्क के अन्तरंग और वहिरंग की उत्कृष्टता के ढाँचे में ढालना। जो उपासना इस प्रयोजन को जिस सीमा तक पूरा कर रही होगी, उसके चमत्कार भी उसी अनुपात से उपलब्ध हो रहे होगे। इस लोक मान्यता को उपहासारुपद भ्रान्ति ही मानना चहिए कि मनुहार और उपहार के भूखे देवताओं की छुट-पुट, टन्ट-घन्ट से फुसलाया और उन्हें हर कामनामनाओं को पूरी करने के लिए मनाया जा सकता है।
उपासना के फलस्वरुप साधक को सिद्ध बन जाने की प्रक्रियायों जाद जैसी अटपटी लगती है, पर उसके पीछे नारतत्व इतना ही है कि उपासना से अन्तराल में जन्में कुसस्कारी कपाय-कल्मप कटते है। पशु प्रवृतियों से जो जितना हलका होता है वह आत्मिक प्रगति के राजमार्ग पर उतनी ही तीव्रगति से चलता और उतनी ही निश्चिन्तता पूर्वक चरत लक्ष्य तक पहुँचता है। सन्तों और सिद्ध पुरुषों में पाई जाने वाली प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष विशेषताओं का आधार एक ही है उनके चिन्तन और चरित्र की उत्कृष्टता। इस मूल तत्व की अवज्ञा करके किसी को भी उव प्रखरता का लाभ नहीं मिल सकता जिसके साथ अगणित विभूतियाँ, विशेषताएँ, एवं समर्थताएँ जुडी रहती हैं।
जिनने इतिहास को धन्य और अपने को कुत-कृत्य बनाया उनकी गतिविधियों और सफलताओं का उतना महत्व नहीं है जितना कि व्यक्तित्व का-उत्कृष्टता एवं प्रखरता का। यदि वे इन विशिष्टताओं से रहित रहे होते और ज्यों-त्यों सफलताएँ पाने का ताना-बाना बुनते रहते तो उनके पुरुषार्थ भर को सराहा जाता। उस श्रद्धा और सम्मान से वंचित ही बने रहते जो महामानवों का वास्तविक बल एवं धन होता है। दैवी अनुग्रह लोक सम्मान एवं आत्मसन्तोष की तीन विभूतियाँ ही मनुष्य जीवन की सफलता सिद्ध करने वाले प्रतीत चिन्ह हैं। इन तीनों को प्राप्त करना मात्र सुसस्कारी प्रतिभाओं के लिए ही सम्भव होता हैं। शेष तो मकड़ी का जाला बुनते और उसी में उलझते, सुलझते, रोते, कलपते रहते हैं।
साँसारिक क्षेत्र में सफलताएँ पाने वाले भी उस स्तर की विशेषताएँ अपने अभ्यास में समाविष्ट किये रहते हैं, जो उन प्रयोजनों के लिए आवश्यक हैं। ठगी, चोरी करने वाले अपराधी, आतंकवादी तक अपने ढंग की चतुरता में प्रवीण होते है। डाकू, हत्यारा बनने के लिए दुर्दास्त साहस चाहिए। व्यवसाय में लाभ कमाने वाले उतने ही होते है, जो उस प्रयोजन में काम आने वाले श्रम, मनोयोग संजोये रहते हैं। इसके अभाव में घाटा होने और दिवालिया बनने की शिकायत आयेदिन देखने को मिलती है।
व्यवस्था बुद्धि और दूरदर्शिता रहने पर ही नेतृत्व करने का अवसर मिल सकता है। परीक्षा में अच्छे नम्बरों से वे ही उतीर्ण होते हैं जो अध्ययन में तन्मयता नियोजित किये होते हैं। स्वस्यता और बलिष्ठता संयमी लोगो के ही भग्य में बदी होती है। अपव्यय से बचने वाले ही धनी हो सकते हैं। हर क्षेत्र से सफलताऐ प्राप्त करने वालों के सौभग्य का कारण ढूँढा जाय तो एक ही निर्ष्कष पर पहुँचना पड़ेगा कि उनने अपने स्तर की विशेषताए मनोयोगपूर्वक अर्जित की, फलतः सहयोगियों की सहायता से वे क्रमशः आगे बढ़े और सफलता के उच्च शिखर तक पहुँचे।
बात चाहे सामान्य जीवन की सुख-शान्ति की हो चाहे विशिष्ट सफलताओं की, हर हालत में उन स्तरों की विशेषताओं की आवश्यकता पड़ेगी। असफल, पिछड़े तिरस्कृत और संकटग्रस्त लोगो में कई तो देवी दुर्विपाक के सताये हुए भी हो सकते हैं, पर आधिकाँश के स्वभाव में छछोरापन भरा पाया जायेगा। दुर्गुणी ही विपत्ति में फंसते हैं। आलसी ही पराजित होते हैं। साहस हीनों को पराभव का मुँह देखना पड़ता हैं।
यों कहते को तो सर्वत्र बेरोजगारी का ही दौर दीखता है। अनेकों नोकरी के लिए भटकते और रोजगार के लिए तरसते दखे जाते है। किन्तु यथार्थता यह है कि हर क्षेत्र में अभी भी असंख्यों के खप जाने की गुत्रजायश और माँग है। कुशलता और पुरुषार्थ परायणता रहने पर कोई भी निठल्ला नहीं रह सकता। एक नहीं तो दूसरा काम मिल सकता है। हर क्षेत्र में सुयोग्यों और सज्जनों की भारी माँग हैं। ऐसो के लिए सर्वत्र भारी माँग हैं। बेरोजगारी-आलम, प्रसाद और अहन्कार के समन्वय का ही नाम है। अन्यथा हर पराक्रमी हर स्थिति में अपनी और अपने आश्रितों की पेट भरने से लेकर अन्यान्य जिम्मेदारियाँ निभाने में भली प्रकार सफल हो सकता हैं।
प्रगति और अवगति का चक्र व्यक्तित्व की धुरी पर भ्रमण करता है। आन्तरिक पिछडापन की बाहा जीवन में दरिद्रता और अवमानना का त्रास सहता है। जिन्हे अभ्युदय और उर्त्कष से अभिरुचि हो-जो श्रेय, सम्मान और सन्तोष चाहते हो- उनके लिए सुनिश्चित राजमार्ग एक ही है कि वे व्यक्तित्व को पारष्कृत करने पर अपना पूरा ध्यान एकत्रित करें। स्वभाव और व्यवहार में घुसी हुई अवाँछनीयताओं को ध्यानपूर्वक खोजें और उन्हे उखाड़कर मान्यताओं और आदतों की नये सिरे से स्थापना करने का प्रयास करें। यह एक दिन का काम नहीं है। जोश दिखाने, प्रतिज्ञा करने भर से यह प्रयोजन पूरा नहीं होता। आदतें ऐसी ढीठ होती है कि प्रतिरोध का दबाब जरा सा ढीला होने पर उभर कर फिर ऊपर आ जाती है और सुधार मनोरथ को आँधी-तूफान कीी तरह हावी होकर उखाड फेकती है। बार-बार ऐसी असफलता मिलने पर तो हिम्मत ही टूट जाती है और सुधार प्रयत्नों से निराश होकर पुरानें ढरें पर ही विवशतापूर्वक घिसटना पडता है।
इस कठिनाई से कैसे बचा जाय ? व्यक्तित्व निर्माण का प्रयोजन कैसे पूरा किया जाय ? इसका उत्तर एक ही है-” उपयुक्त वातावरण की तलाश और उसमें लम्बे समय तक रहने का प्रयास।” यह अभीष्ट सफलता का सरलतम मार्ग है। डर्रे पर लुढकना किसी के लिए भी सरल पड़ना है, प्रवाह में भी वह सकता है। नदी की भार में उखडे़ हुए विशालकाय वृक्ष बिना किसी सहारे तैराक की तरह द्रुतगति से बहते चले जाते है। हवा के रुख में तिनके और पत्ते अनायास ही उडते है। नमी वाली जमीनो में अपने आप घास उगी रहती है। प्रवाह की सामर्थ्य असीम है। वातावरण के प्रभाव को अत्यन्त प्रचण्ड माना जाना चाहिए। इतना प्रचण्ड कि उसके माध्यम से एक प्रकृति के मनुष्य को दूसरी प्रकृति का बनाया जा सके।
गुरुकुल, आरण्यकों, तीर्थ कल्पों में निवास करने वाले जो पढ़ते-सुनते थे उसका उतना महत्व नहीं या जितना कि आँख-कान और मन-बुद्धि के सहारे उपलब्ध होने वाले आदर्शवादी व्यवहार प्रचलन का। चिन्तन को प्रभावित और चरित्र को परिष्कृत करने में भी उस वातावरण का प्रयोग हो सकता है जो अवाँछनीय स्तर का होने पर र्म्पक में आने वालों को पतन और पराभव के गर्त में धकेल सकता ह।
इन दिनो और सब कुछ सुलभ है, पर उच्चस्तरीय वातावरण का एक प्रकार से सर्वत्र अभाव ही दीखता है। साधन और चातुर्थ बढ़ जाने से ढकोसला किसी भी स्तर का खड़ा किया जा सकता है, पर प्ररण तो वास्तविकता में होता है। उसके अभाव में वह क्षमता उत्पत्र ही नहीं हो सकती जो अन्तराल को प्रभावित करने और व्यक्तित्व को बदलने के लिए आवश्यक है। बाजार में अनेकों स्टाल, बडी सजधज के साथ लगे हैं। इनमें धर्म आ।र अध्यात्म के चमकरले बोर्डो वालेभी कम नहीं हैं। योगाक्षमों की धूम हैं। धर्म स्थान पुराने भी कम नहीं अब हर साल और नये-नये बनते जा रहे हैं। मन्दिरों की भव्यता में प्रतिस्पर्धा लगी हुई है। इन गहना विषयों पर अनपढ़ लोग भी प्रवचन करते और लम्बी-चौड़ी डीगे हाँकते देखे जाते है। कलेवर की द्वष्टि से धर्माडम्बर किसी अन्य से पीछे नहीं। इतने पर भी प्रभार्वी बातावरण का अभाव अभी भी जहाँ का तहाँ है। सुविधा सम्पत्र धर्म स्थान, होटलों के काम करो देखे जाते हैं, पर उच्चस्तरीय आत्माओं का निवास न होने के कारण वहाँ भी ऐसा कुछ नहीं दीखता, जिसमें अनपढ़ों को भी ढ़लने बदलने का अवसर मिले। इस अभाव के रहते उस ऊर्जा की कमी खटकती ही रहेगी जिससे धान पकते और अण्डों से चूजे निकलते है।
अपने समय की महती आवश्यकता प्रखरता सम्पत्र तक पूरा कर रही होगी, उसके चमत्कार भी उसी अनुपात से उपलब्ध हो रहे होगे। इस लोक मान्यता को उपहासास्पद भ्रान्ति ही मानना चाहिए कि मनुहार और उपहार के भूखे देवताओ को छुट-पुट, टन्ट-घन्ट से फुसलाया और उन्हें हर कामनामनाओं को पूरी करने के लिए मानाया जा सकता है।
उपासना के फलस्वरुप साधक को सिद्ध बन जाने की प्रक्रियाओं जाद जैसी अटपटी लगती है, पर उसके पीछे सारतत्व इतना ही है कि उपासना से अन्तराल में जन्मे कुसस्कारी कषाय-कल्मप कटते हैं। पुशु प्रवृतियों से जो जितना हलका होता है वह आत्मिक प्रगति के राजमार्ग पर उतनी ही तीव्रगति से चलता और उतनी ही निश्चिन्तता पूर्वक चरम लक्ष्य तक पहुँचता है। सन्तों और सिद्व पुरुषों में पाई जाने वाली प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष विशेषताओं का आधार एक ही है उनके चिन्तन और चरित्र की उत्कृष्टता। इस मूल तत्व की अवज्ञा करके किसी को भी उस प्रखरता का लाभा नहीं मिल सकता जिसके साथ अगणित निभूतियाँ, विशेषताएँ, एवं समर्थताएँ जुडी रहती हैं।
जिनने इतिहास को धन्य और अपने को कृत-कृत्य बनाया उनकी गतिविधियों और सफलताओं का उतना महत्व नहीं है जितना कि व्यक्तित्व का उत्कृष्टता एवं प्रखरता का। यदि वे इन विशिष्टताओं से रहीत रहे होते और ज्यों-त्यों सफलताएँ पाने का ताना-बाना बुनते रहते तो उनके पुरुषार्थ भर को सराहा जाता। उस श्रद्धा और सम्मान से वंचित ही बने रहते जो महामानवों का वास्तविक बल एवं धन होता है। दैवी अनुग्रह लोक सम्मान एव आत्मसन्तोष की तीन विभूतियाँ ही मनुष्य जीवन की सफलता सिद्ध करने वाले प्रतीक चिन्ह हैं। इन तीनों को प्राप्त करना मात्र सुसस्कारी प्रतिभाओं के लिए ही सम्भव होता हे। शेष तो मकड़ी का जाला बुनते और उसी में उलझाते, सुलझते, रोते, कलपते रहते हैं।
साँसारिक क्षेत्र में सफलताएँ पाने वाले भी उस स्तर की विशेषताएँ अपने अभ्यास में समाविष्ट किये रहते है, जो उन प्रयोजनों के लिए आवश्यक हैं। ठगी, चोरी करने वाले अपराधी, आतंकवादी तक अपने ढंग की चतुरता में प्रवीण होते हैं। डाकू, हत्यारा बनने के लिए दुर्दान्त साहस चाहिए। व्यवसाय में लाभ कमाने वाले उतने ही होते है, जो उस प्रयोजन में काम आने वाले श्रम, मनोयोग संजोये रहते हैं। दसके अभाव में घाटा होने और दिवालिया बनने की शिकायत आयेदिन देखने को मिलती रहती है।
व्यवरुथा बुद्धि और दूरदर्शिता रहने पर ही नेतृत्व करने का अवसर मिल सकता है। परीक्षा में अच्छे नम्बरों से वे ही उतीर्ण होते है जो अध्ययन में तन्मयता नियोजित किये होते है। स्वस्यता और बलिष्ठता संयमी लोगो के ही भाग्य में बदी होती है। अपव्यय से बचने वाले ही धनी हो सकते हैं। हर क्षेत्र से सफलताएँ प्राप्त करने वालों के सौभाग्य का कारण ढूँढा जाय तो एक ही निर्ष्कष पर पहुँचना पडे़गा कि उनने अपने स्तर की विशेषताएँ मनोयोगपूर्वक अर्जित की, फलतः सहयोगियों की सहायता से वे क्रमशः आगे बढ़े और सफलता के उच्च शिखर तक पहुँचे।
बात चाहे सामान्य जीवन की सुख-शान्ति की हो चाहे विशिष्ट यफलताओं की हर हालत में उन स्तरों की विशेषताओं की आवश्यकता पड़ेगी। असफल , पिछडे़, तिरस्कृत और संकटग्रस्त लोगो में कई तो दैवी दुर्विपाक के सताये हुए भी हो सकते हैं, पर अधिकाँश के स्वभाव में छछोरापन भरा पाया जायगा। दुर्गणी ही विपति में फँसते है। आलसी ही पराजित होते हैं। साहस हीनों को पराभव का मुँह देखना पड़ता है।
यों कहने को तों सर्वत्र बेरोजगारी का ही दौर दीखता है। अनेको नौकरी के लिए भटकते और रोजगार के लिए जरसते देखे जाते है। किन्तु यथार्थता यह है कि हर क्षेत्र में अभी असंख्यों के खप जाने की गुत्रजायश और माँग है। कुशलता और पुरुषार्थ परायणता रहने पर कोई भी निठल्ला नहीं रह सकता। एक नहीं तो दूसरा काम मिल सकता है। हर क्षेत्र में सुयोग्यों और सज्जनों की भारी माँग है। ऐसो के लिए सर्वत्र भारी माँग है। बेरोजगारी-आलस, प्रसाद और अहन्कार के समन्वय का ही नाम हे। अन्यथा हर पराक्रमी हर स्थिति व्यक्तियों की है। स्वार्थ सिद्धि की द्वष्टि से भी यह नितान्त आवश्यक है। परमार्थ तो इसके बिना हो ही नहीं सकता। वैयक्तिक प्रगति के लिए प्रतिभा चाहिए। आर्थिक, समाजिक, बौकि, परिवारिक, राष्ट्रीय प्रगति के लिए कुछ कहने लायक योगदान दे सकने योग्य वे ही हो सके हैं निलकी निजी क्षमता में गुण, र्म, स्वभाव की वरिष्ठता विधमान हो। इसके अभाव में तो भीड बढ़ाने वाने नर-पशुओं की संख्या वृद्वि ही होती चली जाती है। धरती का भार बढ़ाने वाले-अपने और दूसरों के लिए समस्याएँ उत्पत्र करने वालों की कहीं भी कमी नहीं है। आवश्यकता ऐसों की है जो अपने पैरों पर स्वय ही मजबूती से खड़े न हो, वरन् दूसरों को भी सहारा देने, ऊँचा उठाने, आगे बढ़ाने और पार लगाने में समर्थ हो सके।
नीत्से ने ‘अतिमानव’ की आवश्यकता बताई थी और कहा था संसार को सुव्यवस्थित बनाने में इस उत्पादन की महतर आवश्यकता है। हिटलर ने उसका फहड प्रयोग किया था। द्वष्टि लडखडा जाने और उद्देश्य में निकृष्टता घुस पड़ने से वह देव के स्थान पर दैत्य उत्पन्न करने लगा और विघातक बना तथा बदनाम हुआ। योगी अरविन्द की कल्पना का अतिमानस देव स्तर का है। प्राचीनकाल के देवमानव काया की द्वष्टि से मनुष्य और भावना की द्वष्टि से देव थें। उनकी सहज स्वाभाविक गतिविधियों ने जन्म-भूमि स्वर्गोपत बनाई थी। इन चन्दन वृक्षों ने समस्त विश्व उधान को सुगन्ध और सौर्न्दय से भर दिसा था। नव युग में जिस उपार्जन उत्पादन की निर्माण उत्थान की चर्चा है उसमें सदाशयता सम्पन्न प्रखर और कुशल व्यक्तित्वों का निर्माण ही प्रथम है। उन्ही के सहारे प्रगति के अनेकानेक प्रयोजनों को सही रीति से सही दशा में अग्रगामी बनाया जाना सम्भव हो सकेगा।
अखण्ड-ज्योति परिजनों क आधा निर्माण हो चुका आधा शेष है। आधी मजिल चल चुके पर आधी दूरी ही करनी है। परिष्कृत द्वष्टिकोण से समस्याओं पर विचार करने की पद्वति का जहाँ तक सम्बन्ध था उसे परिजन उपलब्ध कर चुके हैं। पत्रिका के पृष्ठों पर चित्रविचित्र लेखों का संग्रह सम्पादन करने और गुलदस्ता सजाने का पयत्न नहीं हुआ है, वरन युगान्तरीय चेतना के रुप में जिस आलोक की आवश्यकता थी उसे ही सँजोने का प्रयत्न किया गया है। उसके सारगर्मित और मार्मिक होने की बात सभी ने एक स्वर से स्वीकार की है। जिनने उन्हें मनोयोग पूर्वक पढ़ा है उनने पाया है कि उसमें अपनाये जाने योग्य बहुत कुछ है। जो प्रस्तुत प्रतिपादन को क्रियान्वित नहीं कर सके उनने भी कथन को अनुपयुक्त नहीं ठहराया बरन् उसे व्यवहार में न उतार सकने की अपनी दुर्बलता भर स्वीकार की है।
विगत चालीस वर्षो से चल रहा प्रशिक्षण, प्रतिपादन परिजनों के बौद्धिक और भावना तन्त्र को प्रभावित करता रहा है। इसे आधी मत्रिजल पार कर लेना कह सकते हैं। शेष इतना ही ह गया है कि उपयुक्त वातावरण में संचित कुसंस्कारों का परिशोधन और शालीनता की सत्यवृतियों का अभ्यास अभिवर्धन सम्भव बनाया जाय। इसके लिए इतना ही करना शेष था कि देव परिवार बनाने के लिए सुनियोजित आधार खड़ा किया जाय। उसको चलाने वाली गतिविधियों का स्वरुप उसा हो जिसे अपनाने पर बिना प्रयत्न के हा स्वभाव आर अभ्यास का परिवर्तन क्रम बिना किसी दबाब एवं प्रयत्न के सहन गति से स्वयंमेव चलने लगे। गायत्री नगर इसी उद्देश्य के लिए बनाया गया है। इमारत की प्रथम आवश्यकता कलेवर खड़ा होने की बात बन गई। अब प्रवृतियों और गतिविधियों का चल पड़ना दूसरा चरण है। इसे अगले ही दिन उठाया जाना है। इस आरण्यक में ऐसों को रहने के लिए बुलाया गया है जो अपनी संचित सुसस्कारिता को कार्य रुप में परिणित करने की साधना करते हुए आत्मोर्त्कष के चरम लक्ष्य तक पहुँचे। साथ ही दस प्रयोजन की पूर्ति भी करें जो जागृत आत्माओं को सृजन शिल्पियों के रुप में अग्रिम पंक्ति में खड़े होकर करनी है।