Magazine - Year 1980 - Version 2
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Language: HINDI
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शिक्षा का आदर्श क्या होना चाहिए?
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भारत में वर्तमान शिक्षा व्यवस्था अनेक समस्याओं से ग्रस्त है। छात्रों में अनुशासनहीनता, अध्यापकों में अपने उत्तरदायित्वों के प्रति गैर गम्भीरता। आगे चल कर बेरोजगारी और ऐसी ही अनेक समस्याएँ भारतीय शिक्षा जगत में व्याप्त होगी, इनके कारणों की गहराई में जाया जाये तो प्रतीत होगा कि इन समस्याओं के मूल में प्रारम्भिक शिक्षा की उपेक्षा, नींव की कमजोरी, अयोग्य अध्यापकों की नियुक्ति, ध्येयहीनता तथा विद्यार्थियों में नित्य प्रति के अध्ययन कार्य की अवहेलना आदि कई कारण प्रतीत होगें। परन्तु मूल कारण है ध्येयहीनता, विद्यार्थी के सामने स्पष्ट नहीं रहता है कि उन्हं पढ़ कर क्या करना है? जो शिक्षा वे प्राप्त कर रहे है उसका उनके जीवन में क्या योगदान होगा? जीवन जीने में प्राप्त की जा रही शिक्षा की क्या भूमिका होगी?
शिक्षा से तार्त्पय मूलतः व्यक्तित्व के समग्र विकास से है। विद्वानों और मनीषियों ने शिक्षा की जो परिभाषाएँ की हे उन सबका समन्वित अर्थ व्यक्तित्व का समग्र विकास है। स्वामी वेवेकानन्द ने कहा है कि मनुष्य की अन्तर्निहित पूर्णता को अभिव्यक्ति प्रदान करने वाली प्रक्रिया का नाम ही शिक्षा है। इन परिभाषाओं को माप दण्ड मान कर वर्तमान शिक्षा पद्धति की कसौटी पर कसा जाये तो स्वाभाविक ही प्रश्न उठेगा कि-क्या यह वास्तव में शिक्षा है? और यदि नहीं तो क्यों?
यह बात सैकड़ों बार लिखी और हजारों बार दोहराई जा चुकी है कि वर्तमान शिक्षा प्रणाली हमें अँगे्रजों से विरासत में मिली थी और अँग्रेजों ने इस शिक्षण प्रणाली का ढाँचा यह उद्देश्य सामने रखकर खड़ा किया था कि उन्हें अपना राज-काज चलाने के लिए सस्ते मूल्य पर देशी क्लक्र और बाबू मिल जाएँ। साथ ही भारतीय मानस में राजभक्ति के बीज बोना भी एक उद्देश्य था। अँगे्रज तो चले गये परन्तु वह शिक्षा पद्धति ज्यों की त्यों कायम है। कही कोई फेर बदल हुआ है तो वह भी नाम मात्र को ही और उसका परिणाम भी नगण्य-सा ही दिखाई देता है। यही कारण है कि पढ़ लिखकर, डिग्रियाँ प्राप्त करते ही छात्र नौकरियों की तलाश में दर-दर भटकते फिरते है। सरकारी कार्यालयों और निजी संस्थाओं में नाम मात्र को ही स्थान खाली होते है। जगहें कम और उम्मीदवार कई गुना अधिक स्वाभाविक ही बेकारी बढ़ती है और शिक्ष्खा प्राप्ति के बदले छात्रों का जो कुछ हाथ लगता है-वह बेकारी है।
वर्तमान शिक्षा प्रणाली की तुलना प्राचीन काल में प्रचलित गुरुकुल पद्धति से करते है तो उसमें जमीन, आसमान का अन्तर दिखाई देता है। प्राचीनकाल में छात्र गुरुकुल से जहाँ सम्पूर्ण विकसित और प्रखरता सम्पन्न व्यक्तित्व लेकर निकलते थे, वहीं आज के शिक्षण स्ंस्थानों से संस्कारों के नाम पर उनकी स्थिति शून्यवत् ही रहती है। शिक्षा के सम्बन्ध में पद्धति ही नहीं दृष्टिकोण भी बदला जाने का ही परिणाम यह है कि प्राचीनकाल में गुरु जहाँ शिष्य के यक्तित्व विकास में पूरी-पूरी रुचि लेते थे, वहाँ आज अध्यापक विशुद्ध व्यावसायिक दृष्टि से छात्रों को पढ़ाते है। उनके अध्यापन एक जीविकोपार्जन का साधन मात्र रहता है, उसका कोई आदर्श नहीं है। यही कारण हैकि आजकल कदम-कदम पर अध्यापकों को अपने छात्रों की उपेक्षा और अवहेलना का शिकार होना प्रड़ता है। प्राचीनकाल में शिष्य को माता-पिता के समान ही गुरु का सम्मान करना सिखाया जाता था, आज वह स्थिति कहाँ है? तैत्तिरीय उपनिषद् में ‘मातृ देवों भाव’ ‘पितृ देवो भव’ के साथ ‘आचार्य देवों भव’ कहकर गुरु का महत्व माता-पिता के समान बताया हैं इतना ही नहीं अनेक स्थानों पर तो ‘गरु साक्षात् परब्रहमा’ कह कर उसकी सर्वोपरिता को भी स्वीकार किया गया है। वस्तुस्थिति भी ऐसी ही है। बालक के पालन-पोषण का कार्य माता-पिता करते है किन्तु उसे संस्कारवान बनाने, सुसभ्य नागरिक बनाना आचार्य की जिम्मेदारी हैं इस महान् उत्तरदायित्वों के कारण ही गुरु मनुष्य समाज का देवता माना गया और उसकी महत्ता सिद्ध करने में जितना जो कुछ लिखा गया, उसे कम समझा गया।
आज की स्थिति में गुरु का न वह महत्व है और न ही गुरु अपनी वह जिम्मेदारी अनुभव करते है। प्राचीन पद्धति के अनुसार बालक की बुद्धि का विकास आरम्भ हाते ही उसे योग्य गुरु को सौंप देने का विधान है। गुरुकुल पद्धति में विद्यार्थी पूर्ण शिक्षित होने तक अपने गुरु के समीप रहकर जहाँ अक्षर ज्ञान से लेकर साहित्य, भाषा, कला, भूगोल, दर्शन आदि का अध्ययन करते थे वहीं उन्हें चरित्र, सदाचार, निर्मलता, पवित्रता आदि की शिक्षा भी दी जाती थी। मानसिक शक्ति, विचार प्रोढ़ता, उत्तम स्वास्थ्य और शुद्ध जीवन लेकर स्नातक जिस क्षेत्र में भी प्रवेश करते थे उसी में एक कीर्तिमान स्थापित कर योग्य नागरिक कहलाने की स्थिति प्राप्त कर लेते थे।
आज की तरह उस समय अध्यापन या शिक्षण में कोई वृति नहीं थी। वह एक आदर्श थी और उस कार्य में उपयुक्त व्यक्तियों को ही लगाया जाता था। आज की तरह जिस-तिस को वाँछित शिक्षा या डिग्री प्राप्त कर लेने के बाद ही इस महत्वपूर्ण पद पर नियुक्त नहीं किया जाता था, बल्कि यह गुरुतर भार उन्हीं व्यक्तियों को सौंपा जाता था जो अपने चरित्र और विद्वता को कसौटी पर कस कर पूर्णता प्राप्त कर लेते थे। इनका कुल प्रयोजन इतना ही था कि विद्यार्थियों को अक्षर ज्ञान, शास्त्रीय ज्ञान देने के साथ-साथ छात्रों को सद्गणों की क्रियात्मक शिक्षा भी दे सके। इसके पहले वे अपने उदात्त चरित्र का प्रमाण देते थे। जिनमें विद्यार्थियों के चरित्र और ज्ञान को परिपक्व बनाने की, उनके मन और जीवन को सत्प्रेणाएँ देकर उत्कृष्टता बनाने की क्षमता होती थी उन्हें ही आचार्यत्व का पद प्राप्त होता था।
ऐसे गुरु के सानिध्य में रहकर शिष्य साधनों का तेजस्वी जीवन बिताते थे। तपोनिष्ठ होने से उनका शरीर, कुन्दन जैसा दैदीप्यमान होता था। साँसारिक जीवन में आने वाली कठिनाइयों से संघर्ष करने की उनमें क्षमता होती थी। शिष्ट व्यवहार, परिस्थितियों का विवेचन और विश्लेषण कर ठोस समाधान के लिए उचित निर्णय लेने की क्षमता उनमें जगृत रहती थी। साधना और स्वाध्याय के सम्मिश्रण से उनको आत्मज्ञान की अनुभूति हो जाती थी। विद्यार्थी केवल गुणवान या ज्ञानवान होकर ही नहीं निकलत थे वरन् वे शक्ति पुत्र बनकर भी गुरु फल से साँसारिक जीवन में प्रवेश करते थे। फलस्वरुप उन्हे भौतिक सुखों की न तो इतनी स्पर्धा रहती थी और न ही वे अधिकार प्राप्त करने के लिए लालायित रहते थे। तब के स्नातक गुरुकुल से स्नातक होकर विदा के समय प्रतिज्ञा करते थे “मैं पृथ्वी पुत्र हूँ। भूमि मेरी माता है। मेरा जीवन मातृभूमि की सेवा में अर्पित रहेगा।” मैं लोक-कल्याण की सेवा के लिए समर्पित रहूँगा। सम्पूर्ण विश्व को अपने ज्ञान और शक्ति से उदीप्त रखने की मेरी चेष्टा रहेगीं गुरुदेव द्वारा मैंने जो ज्ञान और बल अर्जित किया है उससे अपने राष्ट्र को जीवन्त और जागृत रखूँगा।”
इस प्रतिज्ञा के एक-एक वाक्य से छात्र की बौद्धिक प्रतिभा, उदात्त भावना और उच्चतम अध्यात्मिक संस्कारों की सुगन्धि टपकती है। यह विशेषता छात्रों की अपनी विशेषता नहीं होती थी, बल्कि उनका व्यक्तित्व गुरुकुल के विद्यालयों में इस प्रकार का ढाला जाता था। श्रेय उन प्राचीन गुरुकुलों को ही दिया जाना चाहिए और उनके आचार्यों को ही मिलना चाहिए कि जहाँ जिनके सान्निध्य में रहकर मनुष्य न केवल आध्यात्मिक लक्ष्य की प्राप्ति के दार्शनिक और तात्विक ज्ञन से ओत-प्रोत बनता था, वरन् उनमें ऐसी शक्ति और प्रतिभा भी विकसित होती थी जो सारे समाज को उर्ध्वगामी बनाये रखने का आधार खड़ा करती थी।
आज की ठूटी-फूटी लकीर में, केवल शिक्षण की चिन्ह पूजा करने वाले विद्यालयों में छात्रों के स्तर चारित्रय और उनकी लक्ष्य हीनता को देखकर सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि यह निरी विडम्बना मात्र है। गुरुकुल के छात्रों में वह गम्भीर शक्ति होती थी जिसे आज का निर्बल और अशक्त छात्र वहन करने में भी शायद ही समर्थ हो सके। जिन्हें इस प्रकार शिक्षण की एक किरण का भी अनुमान है वे उसकी तेजस्विता और प्रखरता से अनभिज्ञ नहीं हो सकते। पाणिनी की तरह व्याकरण, पाँतजलि की तरह योग, चरक और सुश्रुत्त की तरह औषधि शास्त्र, मनु और याज्ञवल्क्य के मानव आचार शास्त्रों में आत्यन्तिक सूक्ष्म तत्वज्ञान और बौद्धिक शक्तियों का अवतरण गुरुकुल पद्धति से प्राप्त विशेषताओं की ही परिणिति है। गुरुकुलों मं ही आरण्यक और उपनिषदों की रचना हुई। पुराण और उपपुराण लिखे गये। प्राचीनकाल में भारतीय ज्ञान-विज्ञान कितना विलक्षण और परिपूर्ण रहा है, उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। बिन्दु में सिन्धु, राई में पर्वत, अणु में विभु, गागर में सागर का साक्षात्कार यदि किसी की समझ में न चढ़े, इसकी सत्यता में यदि किसी को सन्देह हो तो भी विवेकानन्द के शब्दों में अतीत के गौरव को इन शब्दों में व्यक्त किया जा सकता है कि इतनी उच्च कल्पना भी संसार में काई नहीं कर सका, हमने परमानन्द को र्स्वग से उतार कर अपनी जन्म भूमि में रख दिया। बड़े गर्व के साथ हम कह सकते है कि ईश्वर हमारा है, और हमारे भारतवर्ष का है और यह कहना कोई अतिरजना नहीं है, वरन् तादात्म्य की सही रुपरेखा है। इस देश के संकल्प बल के आगे देवता तो क्या परमात्मा को भी नत-मस्तक होना पड़ा हैं।”
गुरु के समीप रह कर जहाँ शिष्य इस तरह की ओजस्विता तथा तेजस्विता धारण करते थे , वहाँ गुरुविहीन पुरुषों की भर्त्सना भी होती थी। ‘निगुरा’ शब्द एक प्रकार की गाली समझी जाती थी। इसे एक प्रकार का सामाजिक अपराध समझा जाता था। इस अपराध से बचने के लिए माता-पिता पहले ही यह व्यवस्था बना लेते थे कि बालक को किसी आचारवान्, गुणवान और विद्वान गुरु के समीप, उसके संरक्षण में भेजा जाये ताकि बालक गुरु विहीन होने के अपराध से बच सके।
उस समय दी जाने वाली शिक्षा का जीवन से पूर्ण सम्बन्ध था। व्यक्ति के अज्ञान, किवा, अविद्या के नाश के अतिरिक्त उसके गुँण, कर्म, स्वभाव, आचार, विचार, दृष्टिकोण, बल, विवेक, चातुर्य में तथा शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य का विकास अर्थात् मनुष्य के व्यक्तिगत का सर्वागीण विकास ही शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य है और इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए तप की समुचित व्यवस्था की जाती थी।
इस व्यवस्था द्वारा ज्ञानवान और बुद्धिमान आचार्यों के सम्पक्र में रह कर प्राचीनकाल में यहाँ के नागरिकों ने जो सर्वागपूर्ण शिक्षा प्राप्त की थी, इसी से वे अपने ज्ञान और संस्कृति को प्रकाशित रख सके, उसे गौरवास्पद बना सके। गुरुकुलों के रुप में पुनः वही प्रचलन आज के समय में भले ही स्म्भव और व्यवहार्य न हो, परन्तु उन विशेषताओं का समावेश तो किया ही जा सकता है। स्मरण रखा जाना चाहिए कि आज भी जहाँ यह पद्धति किसी न किसी रुप में विद्यमान है, चरित्रवान और ज्ञानवान आचार्य तथा जिज्ञासु और समर्पित शिष्य जहाँ अध्यापन अध्ययन करते है, भले ही उनकी संख्या सीमित हो परन्तु वे लोक जीवन में अपने ढंग से प्रकाश उत्पन्न कर रहे हैं।
वर्तमान शिक्षा पद्धति के परिणामों की विवेचना करने पर यह सोचने के लिए बाध्य-सा हो जाना पड़ता है कि आज शिक्षा संस्थाएँ जिस रुप में चल रही है उससे क्या मानवीय जीवन की आवश्यकताएँ पूरी होली है? यदि नहीं तो क्या इसका परिवर्तन और सुधार नहीं किया जाना चाहिए? और यदि किया जाना चाहिए तो उसका स्वरुप क्या हो सकता है? उसका एक ही उत्तर है कि विद्यार्थी जीवन में तपश्चर्या, तत्परता और संयम भावना जागृत जाए। गुरु शिष्यों के सम्बन्ध में स्नेह, अपनत्व और आदर अनुशासन के मूल्यों की प्रतिष्ठा की जाए। इसके लिए सर्वप्रथम योग्य, विचारवान, दृढ़ चरित्र तथा प्राज्ञ अध्यापकों को ढूढ़ निकालना पडे़गा। शिक्षा की नींव जब तक चरित्रवान व्यक्तियों के हाथों में नहीं पडे़गी तब तक राष्ट्रीय जीवन के विकास की समस्या हल न हो सकेगी। राष्ट्र को ज्ञानवान, प्राणवान, शक्तिवान, समुत्रत और सुविकसित बनाने के लिए वर्तमान शिक्षा पद्धति में परिवर्तन नितान्त और अनिवार्य आवश्यक है।