Magazine - Year 1980 - Version 2
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Language: HINDI
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मृत्यु पर्यन्त चिरयुवा कैसे रहे?
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खरगोश की औसत आयु 7 वर्ष होती है। बिल्लियाँ और बकरियाँ 12 वर्ष जीवित रहती है। कबूतर 8 वर्ष और घोडे़ 50 वर्ष तक जीवित रहते है। कछुए एवं सर्प की औसतन आयु 150 वर्ष और 120 वर्ष होती है। मनुष्य की आयु 100 वर्ष आँकी गई है। मनुष्य को छोड़कर अन्य जीवों के जीवनक्रम पर दृष्टि डालते है तो पता चलता है कि उनमें सदा यौवन का उत्साह बना रहता है। आयु की दृष्टि से उनकी सम्पूर्ण आयु में बचपन, यौवन एवं वृद्धावस्था की कोई स्पष्ट सीमा रेखा दृष्टिगोचर नहीं होती है। अपवादों एवं दुर्घटनाओं को छोड़ दिया जाय तो पर्यवेक्षक करने पर शायद ही कोई जीव ऐसा दिखाई पड़ें जो रोगग्रस्त पड़ा हो अथवा वृद्धावस्था के कारण शक्ति रहित बना असमर्थता के चंगुल में जकड़ा हों अधिकाँशतः पशु-पक्षी जीवनपर्यन्त युवा बने रहते है। उनकी मृत्यु वृद्धावस्था की असमर्थता में नही, यौवन जैसे उत्साह एवं उमंगों के बीच होती है। उछलते, कूदते, फुदकते, मचलते, इकलाते, जीवों को कभी भी मृत्यु का, वृद्धावस्था का आभास नहीं होता। पैदा होते है चिरयौवन की उमंगों के साथ और मरते है यौवन की उमंगों के बीच। जरावस्था की थकान क्या होती है इससे वे सदा अनभिज्ञ बने रहते है। साधनों की दृष्टि से पिछड़े-शक्ति, सामर्थ्य, एवं बुद्धि में अविकसित इन मुनष्येत्तर जीवों के चिर यौवन के कारणों की खोज करते है तो एक ही तथ्य हाथ लगता है, प्राकृतिक दिनचर्या, चिन्ताओं, आशंकाओं से रहित उमंग एवं उत्साह से भरा जीवन क्रम।
मचलते, इतराते युवा उमंगों से युक्त पशु-पक्षियों के मस्त जीवन का रहस्योद्घाटन करते हुए सन्त फ्राँसिस कहते है कि प्राणि सृष्टि ईश्वर के पितृ हृदय के बहुत समीप हुआ करते है। इस तथ्य से मैं पूर्णतया सहमत हूँ। प्रकृति की सहज प्रेरणा से अभिप्रेरित होकर प्रत्येक प्राणी जीवन से असीम प्यार करता एवं उसका भरपूर आनन्द उठाया है। इसमें चिर उत्साह का यही कारण है।
‘एलन डिवाय’ प्रकृति प्रेमी रहे है। उसका अधिकाँश समय जीव-जन्तुओं, पशु-पक्षियों के अध्ययन में बीता है। उन्होंने रहस्योद्घाटन किया है कि प्रकृति के इन नन्हे जीवों में चिरउत्साह का कारण है, उनकी प्रकृति प्रेरणा के अनुरुप क्रियाएँ। लिखते है कि मेरा अधिकाँश समय पशुओं की जानकारी में बीता है। घनिष्ठ साथियों में खरगोश, गिनीपिग्टन सफेद चूहे, हिरण, रैकून्स, स्कन्कस, लोमड़ियाँ सदा मेरा मन बहलाते रहे तथा प्रेरणाएँ देते रहे है। मैंने 80 वर्ष से इन प्राणियों से इतना कुछ सीखा है जितना कि तत्वज्ञान की पुस्तकों में भी नहीं। वे कहते है कि फुदकते हुए जीव मूक रुप से कहते है कि “प्रत्येक क्षण का आनन्द लूटना सीखो।’ सृष्टि का प्रत्येक प्राणी अपने जीवन का भरपूर आनन्द उठाता हैं गोधूलि बेला में गिलहरियाँ नटों की भाँति हवाई कौशल प्रदर्शित करती है। उन्हें न तो रात के अन्धकार का डर होता है न ही कल की चिन्ता। चौकड़ी भरता हिरन सम्पूर्ण पृथ्वी पर अपना अधिकार जताता है। हरी-भरी घास का आनन्द लेते समय उसके मनोयोग को देखते ही बनता है।
एलन डिवाय लिखते है कि “एक बार मैंने एक बुड्ढे़ हिरन को घास चरते देखाँ इतने में एक सर्प उसकी नासिका के पास आ पहुँचा। उस समय उसकी सतक्रता एवं परिवर्तित भाव मुद्रा देखते ही बनती थी। एक क्षण में ही आनन्द के भाव तिरोहित हो गये और व वीर रस के भाव में हुँकार भरने लगा। पैने खुरों से आवाज करते हुए उसने साँप का दवोच कर काम तमाम कर दिया। तुरन्त बाद वह अपनी पूर्ववत् स्थिति में आ गया और इस प्रकार घास चरने का आनन्द लेने लगा जैसे कोई घटना ही न हुई हों इन जीवों के जीवन क्रम से मनुष्य प्रेरणा ले सकता हैं। सामान्य घटना एवं बातों से प्रभावित होकर अपना सन्तुलन खोने वाले, निराशा, चिन्ता से घिर जाने वाले मनुष्य यदि उद्विग्नता और चिन्ता से मुक्ति पाले तो 80 वर्ष की आयु में भी वे हिरन की-सी कुलाचे भरते रह सकते है।
प्रकृति की प्रेरणा है कि अनावश्यक चिन्ताएँ छोड़ों ईश्वर प्रदत्त जीवन का सर्वोत्तम उपयोग करो। प्रसन्नता एवं प्रफुल्लता का प्रत्येक कार्य में समावेश रखो। इस प्रेरणा के अनुरुप जीवनक्रम अपनाकर पशु-पक्षी सदा प्रसन्न रहते तथा जीवनपर्यन्त यौवन का आनन्द लेते है। कृत्रिमता से वे सदा दूर रहते है।’ समय पर उठना प्रकृति का अभिवादन करना, आहार जुटाना, एवं निश्चिन्त होकर सोना ही उनके सदा स्वस्थ एवं चिर युवा रहने का रहस्य हैं।
आकृति सामर्थ्य एवं बुद्धि की दृष्टि से सबसे पिछड़ी चिड़ियों के फुदकन को देखकर लगता हे कि जैसे प्रकृति ने सम्पूर्ण आनन्द उनकी झोली में भर दिया हो। बच्चों को भोजन कहाँ से प्राप्त होगा। कल के लिए आहार की क्या व्यवस्था होगी इसकी बिल्कुल ही चिन्ता नहीं करती। बस सूर्योदय का अभिवन्दन करके अपने काम में जुट जाती है। जो आहार प्राप्त होता उसे अपने बच्चों में मिल-बाँटकर खाती है। हाथी जैसे विशालकाय जीव को सर्वाधिक आहार की आवश्यकता होती है, पर उसे थोड़ी भी चिन्ता नहीं रहती। भूख लगने पर वह घने जंगल में स्वच्छन्द निकल पड़ता तथा हरी फूल-पत्तियों का आहर करता है। मनुष्य जैसे संग्रह की चिनता उसे नहीं सताती। फलतः वह सदा स्वस्थ रहता है। बिल्लियाँ, बकरियाँ, घोडे़, कबूतर यदा-कदा ही रुग्ण होते है। सूर्य देवता अनी प्रातःकालीन स्वर्गीय आभा लिए उन्हें उछलने,मचलने के लिए जैसे बाध्य कर देते है।
प्रकृति विज्ञानी एलनडिवाय ने अपने जीवन की एक घटना का उल्लेख किया है कि किस प्रकार नन्हें पक्षी प्रतिकूल परिस्थितियों से जूझने के लिए जान की बाजी तक लगा देते है। वे लिखते है कि एकाबार मैंने एक पुराने लकड़ी के पुल के नीचे एक पक्षी का घौसला बना देखों। उसके अण्डे दखने के लिए सावधानी से आगे बढ़ रहा थ। एकाएक मादा पक्षी ने मेरी नाक से एक इंच दूर मेरी आँखों पर अपने पंखों से प्रहार किया। चौक कर सिर उठाया कि उतने में नर-पक्षी ने झपट्टा मारकर मेरा चवश्मा गिरा दिया। इस अप्रत्याशित संघबद्ध आक्रमण्या से मैं घबड़ा उठा और पैर फिसल जाने के कारण कमर तक पानी मं जा गिरा। किसी प्रकार उठकर वहाँ से भागा। मुझे उस घटना से प्रेरणा मिली कि आने वाली कठिनाइयाँ का जब नन्हे-नन्हें जन्तु वीरों की तरह सामना कर जाते है तब छोटे-छोटे उतार च्ढ़ावों में घबड़ा कर अपनी जीवनी शक्ति मनुष्य नष्ट करे, यह उसका दुर्भाग्य ही है।
एक अन्य घटना का वर्णन करते है’ एक कठफोड़वा पक्षी उड़ता हुआ, मेरे खेत में आया और किनारे रखे हुँए एक बड़े पत्थर पर बैठ गया और कुछ ही क्षणों में शरीर को निश्चेष्ट छोड़कर मृत्यु की गोद में समा गया। अन्तिम समय में भी उसे न किसी प्रकार का कष्ट थ। न ही मृत्यु का भय। मुझे उसकी शानदार मौत पर विशेष आर्श्चय हुआ। मनुष्य से तुलना की तो मालूम हंआ कि रोता-बिलखता कष्ट से कराहता मनुष्य की तुलना में जीवों की मृत्यु भी कितनी सरल एवं कष्ट रहित होती है। निःसन्देह यह उनके स्वच्छन्द, चिन्ता रहित प्राकृतिक रहन-सहन का ही प्रतिपादन है।
मनुष्य पशु-पक्षियों से बुद्धिमान है और सामर्थ्यवान भी। प्रकृति के सर्वाधिक अनुदान उसे ही मिले है। नन्हें जीवों को तो सीमित क्षेत्र में सीमित साधनों के सहारे असीम आनन्द अनुभव करते है। किन्तु मनुष्य के लिए इससे बढ़कर दुर्भाग्य की बात और क्या हो सकती है कि उसे जीवन का आनन्द लेना नहीं आ सका। कारणों की खोज में जाते है तो एक ही तयि हाथ लगता उसका चिन्ताओं, आशंकाओं एवं कृत्रिमता से भरा जीवनक्रम।
प्राकृतिक दिनचर्या, प्रसन्नता, प्रफुल्लता से युक्त जीवनक्रम अपनाने वाले मनुष्यों में भी अधिकाँशतः चिरयुवा बने रहे। ढलती उम्र में भी उनमें असाधरण उत्साह एवं उमंग देखा गया। चर्चिल वृद्धावस्था को सर्वोत्तम काल कहते थे। उनका कहना था, जबानी खिला हुआ है तो बुढ़ापा पका हुआ फल -एक रंग का खजाना दूसरा रस का कलश। दोनों की अपनी सुवास है और अपना सौर्न्दय। इस दृष्टिकोण के करण ही उनमें 80 वर्ष की आयु में भी युवकों जैसी उमंग और बच्चों जैसी मस्ती थीं। इग्लैण्ड के शासकीय कार्यो में भी आयु के अन्तिम अवधि में भी वह परामर्श देते रहे। महात्मा गाँधी 80 वर्ष की आयु में भी अपने को युवक मानते थे। उनकी फुर्ती देखते बनती थी। वृद्धावस्था में भी बर्नाइश की चुस्ती एवं फुर्ती को देखकर उनके युवा होने का सन्देह होने लगता थाँ उसका कारण वे सक्रियता, प्रसन्नता, प्रफुल्लता एवं प्राकृतिक दिनचर्या को बताते थे।
एक जापानी सन्त का कथन है-बुढ़ापे की झुर्रियाँ, ईश्वर का दिया हुआ वरदान है। निश्चय ही प्रसन्नता मुख्य मण्डल पर सतत बनी रही तो वृद्धावस्था, अभिशाप नहीं बन सकती है। भूतपूर्व राष्ट्रपति सर्वपल्ली डाँ. राधाकृष्णन ने चिरयौवन का रहस्य बताते हुए कहा है कि चिरयुवा बने रहने के लिए मनुष्य को हंसमुख स्वभाव को वास्तविक एवं गम्भीर रुप में विकसित करना चाहिए। उन्होने संयमित प्रकृति के अनुरुप आहार-बिहार को चिरयौवन की कुन्जी माना।
डाँ. मेलविल कीथ अपनी पुस्तक ‘रायल रोड टू हेल’ में लिखते है कि अप्राकृतिक दिनचर्या के कारण मानव जाति दिन-प्रतिदिन शक्ति सामथ्य की दृष्टि से क्षीण होती जा रही हैं जिसका प्रतिफल है असमर्थ बुढ़ापा-अनेकानेक रोगों की उत्पत्ति। मनुष्य को प्रकृति के अन्य पशु-पक्षियों से प्ररेणा लेनी तथा अनुकरण करनी चाहिए जो आयु के अन्तिम समय में भी असीम उत्साह एवं उमंग से भरे रहते है। जबकि मनुष्य अनेकों प्रकार के रोगों से ग्रस्त हुआ रोते-कलपते जीवन के अन्तिम दिन पूरे करता है।
अविकसित प्राणी जो मनुष्य से हर दृष्टि से छोटे है। उनके पास न तो रहने के मकान है न ही अन्य साधन। कल के लिए आहार की समस्या है। संचय के नाम पर कुछ भी नहीं है। ऐसी स्थिति में भी सदा स्वस्थ एवं प्रसन्न चित्त रहते है। वृद्धावस्था की असमर्थता का अभिशाप उन्हें नहीं लगने पाता। जबकि मनुष्य साधनों, योग्यता, प्रतिभा की दृष्टि से सबसे आगे है। फिर भी रोग-कलेशों का, असमर्थता का, बुढ़ापे का रोना उसे ही रोना पड़ता है। निस्सन्देह यह अप्राकृतिक रहन-सहन, अनावश्यक चिन्ताओं एवं आशंकाओं का ही दुष्परिणाम है। शारीरिक सक्रियता, मानसिक प्रसन्नता एवं प्रफुल्लता बनी रहे तो कोई कारण नहीं है कि उसे चिर-यौवन के आनन्द से वंचित रहना पड़े। इस तथ्य को समझा एवं अपनाया जा कसे तो उसी प्रकार जीवनपर्यन्त स्वस्थ एवं प्रसन्न चित्त रहा जा सकता है। जिस प्रकार पशु-पक्षी।