Magazine - Year 1980 - Version 2
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Language: HINDI
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गायत्री चरण पीठे ओर नव सृजन की सम्भावनाएँ
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इन दिनों युग सन्धि का परिवर्तन चक्र द्रुगति से चल से चल पड़ा हैं महाप्रजा का अवतरण नये विश्व का अभिनव सुविस्तृत सरजाम इकट्ठा कर रहा है। साथ ही उस पुण्य प्रयाजन के लिए जीवन्तों एवं जागृतों के सहायोग की अपेक्षा आवश्यकता भी प्रबल हो रही हैं ऐसे समय ऐसे असंख्य कार्यक्रम सामने आखडे़ हुए है, जिनमे हर योग्यता का व्यक्ति अपनी योग्यता एवं स्थिति के अनुरुप कुछ न कुछ सहयोग कर सकने में समर्थ हो सकता हैं। क्या किया जाय? इस प्रश्न के उत्तर में क्रिया कलाप की रुप-रेशा निर्धारित करने से पूर्व यह देखना होगा कि किस के लिए कितना समय और कितना अंशदान दे सकना सभ्भव हो सकता है। योग्यता कितनी ही छोटी क्यों ने हो-परिस्थिति कितनी ही दुर्बल क्यों न हो-हर जीवित व्यक्ति का योगदान किसी न किसी रुप में उपयोगी हो ही सकता है। जटायु के असमर्थ और वयोवृद्धि भी अनीति के सम्मुख अड़ सकत है और गिलहरी के समान साधनहीन भी इन दिनों अपने अनुदान प्रस्तुत करते है भले ही वे नाप-तौल की दृष्टि से अकिचन ही क्यो न कहे जायँ।
यहाँ एक बात स्मरण रखने योग्य है कि युग सृजन जैस व्यापक अभियान एकाकी नहीं संयुक्त प्रयासों के सहारे ही अग्रगामी हो सकते है। भजन, पूजन, दान-पुण्य, व्यायाम, उपवास जैसे कार्य तो एकाकी भी हो सकते है, पर जिस प्रयोजन में व्यक्ति समाज का ढाँचा ही बदलना हो-प्रचलनों और परिस्थितियों में भारी उलट-पुलट करनी हो उसके लिए संयुक्त प्रयासों से कम से काम चल ही नहीं सकता। अतएवं जो कुछ सोचा जाना है तो कुछ किया जाना है उसका स्वरुप संयुक्त प्रयास के रुप में ही होगा।
यह संयुक्त प्रयास किसी न किसी माध्यम से करना होगा। यह माध्यम ‘महाप्रज्ञा का प्रतीक ही उपयुक्त हो सकता है। व्यक्ति प्रधान संगठन अपनी पिछड़ी मनोभूमि में किस कदर दुर्दशाग्रस्त एवं विग्रह केन्द्र बन रहे है यह किसी से छिपा नहीं है। इसलिए माध्यम के चुनाव में प्रज्ञा प्रतीकों को ही प्रतिष्ठित किया जाना चाहिए। युग सृजन के केन्द्र स्थान गायत्री पीठ हरिद्वारा के रुप में चल रहे है। यह व्यक्ति प्रधान नहीं वरन् देवता के संरक्षण में चल रहे हैं। इन दोनों केन्द्रों के माध्यम से विगत तीस वर्षों से जो हो सका है वह उत्साहवर्धक भी है और कलह रहित भी। समय आ गया कि इस देवालय प्रक्रिया को अन्य भी अपनाया जाय और अपने-अपने क्षेत्र में नव-सृजन का अभियान उसी रुप में चलाया जाय जैसा कि मथुरा और हरिद्वार के दोनों केन्द्रों द्वारा उस विश्वव्यापी विधि-व्यवस्था के रुप में चलाया जा रहा है।
गत वर्ष गायत्री शक्ति पीठो और प्रज्ञा पीठों के निर्माण का दौर चला हैं उनकी संख्या एक हजार के लगभग हो चली, पर देश के विस्तार को देखते हुए इतने देवालय जलते तबे पर पड़ने वाली बूँद की तरह ही समझे जा सकते हैं कहाँ सात लाख गाँव और उमें रहने वाला साठा करोड़ जन समुदाय और कहाँ एक हजार प्रज्ञा पीठों की छोटी-छोटी इमारतें और उनमें काम करेन वाले दो चार हजार कार्यकर्ता। इतनी मंथर गति से समस्त भूमण्डल पर बसने वाली 400 करोड़ जनसंख्या तक युगान्तरीय चेतना का आलोक पहुँचा सकना किस प्रकार सम्भव हो सकता हैं सो भी तब जब उसे मात्र बस वर्ष की अवधि में पूरा करने की आवश्यकता एवं विवशता सामने आ खड़ी हुई हो।
समय की कमी एवं कार्य की विशालता को देखते हुए नया निश्चय यह किया गया कि हर बड़े गाँव में गायत्री चरण पीठ नाम से एक छोटा धर्म संस्थान बनाया जाय जिसमें उपासना की अनिवार्यता वाली बात भी पूरी होती रहे और धर्मतन्त्र से लोक शिक्षण का उपक्रम भी चलता रहे। व्यक्ति, परिवार एवं समाज निर्माण की व्यापक कार्य पद्धति को गाँव-गाँव, घर-घर, जन-जन तक पहुँचाने के लिए आवश्यक हो गया है कि इन छोटे देवालयों की स्थापना की जाय और उनकी लागत तथा विधि इतनी स्वल्प एवं सरल हो कि कहीं भी उन्हं बनाने में कठिनाई अनुभव न हों।
यों गायत्री चरण पीठे यदि कच्ची मिट्टी से बनाई जाँय और उनका चबूतरा तथा चरण प्रतिमा भर पक्की ईंटों से बने तो ढाई सौ से भी काम चल सकता है, पर यदि देवालय, यज्ञ स्थान, सत्संग आच्छादन पक्की ईटों से स्थायी स्तर के बनाये जाँय तो उनकी लागत तीन हजार भी हो सकती है। टिन शेड का स्थायी सत्संग आच्छादन बनाया जाय तो उसकी लागात चार हजार तक पहुँच सकती है। इसमें जमीन मात्र 30ग50 फुट की आवश्यकता पडे़गी। थोड़ी कम हो तो भी काम चल सकता था। इतनी भूमि और राशि इन दिनों कहीं भी किसी भी प्रतिभाशाली व्यक्ति के नेतृत्व में सहज विनिर्मित हो सकती है। यह न्यूनतम भूमि की चर्चा है। प्रयत्न यह होना चाहिए कि अधिक बड़ी जगह मिले। गाँव के समीप यदि एक-दो बीघे जमीन इस कार्य के लिए मिल सके तो इसमें उद्यान, खेलों का मैदान, व्यायाम शाला बडे़ सम्मेलन, विद्यालय आदि के लिए गुजायश बनी रहेगी।
यह इमारत की बात हुई जिसकी छत्र-छाया तके अनेकों सृजनात्मक प्रवृत्तियाँ एवं धर्मतन्त्र से लोक शिक्षण की जन-जागरण प्रक्रिया का सहज संचालन हो सकता है। पौढ़ शिक्षा, साक्षरता, प्रसार, वृक्षारोपण, चलपुस्तकालय, स्वास्थ्य सर्म्वधन, स्वच्छता, नारी जागरण, शिशु कल्याण जैसी रचनात्मक और विवाहों में अपव्यय, दहेज, बाल-विवाह, मृतक-भोज, छुआछूत, पर्दाप्रथा, नशेबाजी, जुआ, चोरी, बेईमानी, रिश्वत, मिलावट आदि प्रचलित अवाँछनीयताओं के उन्मूलन का सुधारात्मक अभियान चलाया जा सकता है। इस प्रकार के संगठित प्रयास जन-जन में सृजन चेतना उत्पन्न करके उनके श्रम सहयोग के सहारे सम्पन्न किये जायेंगे। इसके लिए आवश्यक अर्थव्यवस्था दस पैसा जमा करने वाले ज्ञान घटों एवं मुट्ठी अन्न वाले धर्म घटों के सहारे अर्जित की जायेगी। युग निर्माण अभियान की सदस्यता में एक घन्टा समय और दस पैसा नित्य ज्ञान यज्ञ के निमित्त लगाते रहने की शर्त है। अब तक वह ढीली-पोली भी चलती रही है अब उस पर अधिक जोर और दबाव दिया जा रहा है। इसके लिए किसी भी भावनाशील धर्म प्रेमी ने अमान्य नहीं किया है। फलतः इन छोटी गायत्री चरण पीठ की स्थापनाओं के माध्यम से उस गाँव में तथा उसके समीपवर्ती क्षेत्र में उस नव सृजन के चल पड़ने की पूरी-पूरी सम्भावना है जिनके सहारे जनमानस का परिष्कार एवं परम्पराओं का नव निर्धारण हो सकने की विश्वासपूर्वक अपेक्षा की गई है।
आरम्भ में हर गायत्री चरण पीठ के पाँच कार्यक्रम प्रधान रहेगे। (1) घर-घर जन-जनतक युग साहित्य पढ़ाने और वापिस लेने की व्यवस्था। इसी के साथ दीवारों पर आदर्शवाक्य लेखन की व्यवस्था भी की जानी चाहिए। इस योजना के अर्न्तगत सभी शिक्षितों को युग चेतना का प्रतिपादन पढ़ने और अशिक्षितों को नियमित रुप से सुनने का अवसर मिलेगा। (2) सम्पक्र में आने वाले प्रज्ञा प्रेमियों के जन्मदिवसोत्सव मनाये जाँय। उनके घरों पर गायत्री यज्ञ एवं भजन कीर्तन समेत ज्ञान गोष्ठियों का होना। सम्भव हो तो बालकों के नामकरण, अन्नप्राशन, मुण्डन विद्यारम्भ आदि संस्कारों की व्यवस्था बना कर परिवार निर्माण गोष्ठियों की व्यापक व्यवस्था बनाना। (3) गायत्री चरणपीठ पर साप्ताहिक यज्ञ, सत्संग, भजन कीर्तन एवं प्रवचन का प्रबन्ध किया जाना । (4) रात्रि को रामायण कथा एवं कीर्तन की व्यवस्था। (5) युग सृजन के निमित्त समय दान एवं अंशदान के लिए भावनाशालों को प्रोत्साहित करना उनके यहाँ ज्ञान घटों की स्थापना कराना। यह पंच सूत्री योजना सभी गायत्री चरण पीठों को अपनानी होगी।
इसके लिए अधिकाँश कार्यकर्ता तो अवैतनिक सेवा भावी ही काम करेगे, पर एक की स्थिर नियुक्ति ऐसी भी होगी जिसे पूरे दिन या आधे दिन के लिए वेतन देकर नियुक्त किया जाय और उसे नियमित रुप से पाँच कार्यक्रमों की व्यवस्था बनाने के लिए इधर-उधर भेजा, दौड़ाया जाता रहे। यों अधिकाँश कार्य तो अवैतनिक एवं सुयोग्य कार्यकर्ता ही अपना समयदान नियमित रुप से देकर सम्पन्न किया करेगें।
न्यूनतम दस पैसा एक घन्टा का अंशदान- ज्ञानयज्ञ के लिए-सद्भाव सर्म्बधन के लिए-नियमित रुप से निकालने और उसे दैवी उत्तरदायित्वों के निर्वाह का अनिवार्य कर्तव्य मानने की शर्त इस देव परिवार में सम्मिलित रखी गई है। इसमें व्यक्ति को दवे प्रयोजनों के लिए अपनी क्षमता का उपयोग करने के निमित्त व्यवहारिक कदम उठाने का अवसर मिलता है और अभियान का इतना बड़ा काम करने के लिए श्रम साधनों की आवश्यकता जुटाने का मार्ग मिलता है। अतएवं इस प्रवृत्ति को अधिकाधिक उत्तेजना देने की आवश्यकता है। न्यूनतम शर्त को अधिकतम बनाने के लिए प्रोत्साहित किया जाय तो दैवी अंश और दिव्य-ज्योति का प्रतिनिधि मनुष्य सामान्य परिस्थिति में अवरुद्ध होते हुए भी युग सृजन जैसे महान कार्य में अत्यधिक महत्व पूर्ण भूमिका सम्पन्न कर सकता है।
वर्णाश्रम धर्म का अनुशासन यह बताता है कि जिनकी आयु पचास की हो चली उन्हें वानप्रस्थ लेना चाहिए और विराट् ब्रहमा की साधना के निमित्त लोक-मंगल रत जीवन जीना चाहिए। इस महान मर्यादा को न्यनाधिक मात्रा में उन्हें तो पालन करना ही चाहिए जिनमे पारिवारिक और आर्थिक उत्तरदायित्व हलके हो गये है। इसी प्रकार प्राचीन मर्यादाओं के अनुसार उपार्जन का दशवाँ अर्थ अंश परमार्थ के लिए निकालने की बात न बन पड़े तो महीने में एक दिन की आजीविका का अंशदान निर्धारण रहना चाहिए। युग अभियान में रुचि लेने वालों का इस अपनी जीवनचर्या में इस उदार प्रयोजन को स्थान देने और उसका नित्य नियम की तरह पालन करेन की आवश्यकता अनुभव करने पर जोर दिया गया है। न्यूनतम एक घन्टा समय और दस पैसा अनुदान निरन्तर प्रस्तुत करते रहने की शर्त इसी लिए लगाई गई है कि यह देव संस्कार हर किसी के स्वभाव का अंग बन सके। जिनकी स्थिति है वे बच्चों के ज्ञान घट भी अलग से रखायें और उनमें दस पैसा डालने का अभ्यास करें। यह प्रवृत्ति आगे चलकर उन्हे देव मानव बनाने में सहायता करेगी। थोडे़ समर्थ होते ही उन्हें तुलसी का उद्यान एवं पुष्प वाटिका सीचकर संसार को सौर्न्दय वृद्धि में सहयोगी बनने जैसी प्रेरणाएँ देनी आरम्भ कर देनी चाहिए।
कहा जा चुका है कि ज्ञान घटों में जमा होने वाली राशि के आधार पर ही गायत्री शक्ति पीठो, प्रज्ञा पीठों और चरण पीठों की प्रत्यक्ष गतिविधियों का सूत्र संचालन किया जाना है। आर्थिक आवश्यकताएँ श्रम, समय, एवं मनोयोग के योगदान की है वह समयदान के लिए हर विचारशील पर दबाव डालने से सम्पन्न हो सकेगी। युग सृजन अभियान का मेरुदण्ड यह समयदान ही है जिसके लिए प्रत्येक जागृत आत्मा को बार-बार उकसाया और दबाया जा रहा है।
गायत्री चरण पीठ स्थापना के साथ-साथ ही उनके संस्थापकों को सम्बद्ध कार्यक्षेत्र में जन-सम्पक्र स्थापित करने के लिए निकलना चाहिए और नव सृजन की आवश्यकता समझाते हुए अंशदान की उदारता अपनाने के लिए प्रार्थना करनी चाहिए। आशा की जानी चाहिए कि उस अनुरोध का सब न सही कुछ तो स्वीकार करेगे ही और इतने भर से गाड़ी पटरी पर चलने लगेगी। पीछे तो देर-सबेर में उपयोगिता समझने पर अन्य लोग भी उस सदाशयता का अनुसरण करने लगेंगे।
निवृत्त या व्यस्त किसी भी स्तर के व्यक्ति का युग सृजन जैसे सामयिक आपत्ति धर्म का पालन करने के लिए जिना सम्भव हो उतना समयदान देते रहेन के लिए सहमत किया जा सकता है और उकसे सहारे निर्धारित गतिवधियों का कार्यक्रम सरलतापूर्वक आगे बढ़ाया जा सकता है। ,
अपने देश में आलस्य और बेकारी का अभिशाप जन-जन पर छाया हुआ हैं। वास्तविक अर्थो में व्यस्त कहे जाने वाले लोग भी जब लोक-मंगल के महत्व को अनुभव करते है तो कई आवश्यक कामों में कटौती करके भी समाण सेवा का उत्तरदायित्व निबाहते है। फिर जिनके पास ढेरों समय आलस्य और प्रमाद में गँवाने के लिए मिलता है उनकी अन्तरात्मा हो जगाना और उसका उपयोग युग सृजन जैसे महान कार्य में लगाने के लिए सहमत कर लेना कुछ भी कठिन नहीं है। प्रवृततें और निवृत्तो का ढेरों समय सृजनात्मक सत्प्रवृत्तियों के सर्म्बधन में लगने के लिए उपलब्ध हो सकता है। इसी प्रकार निर्धन एवं सम्पन्नों में से हर स्तर का व्यक्ति थोड़ा बहुत अंशदान देते रहने के लिए तत्पर हो सकता है। मुट्ठी फण्ड वाले अन्न घट-दस पैसे वाले ज्ञान घट किसी के लिए भार रुप नहीं हो सकते। कठिनाई आर्थिक तंगी की नहीं-अनुदार कृपणता की हैं। या फिर इस बात की है कि सड़न को बुहारने और अभिनव उद्यान लगाने की रुपरेखा और उसके आधार पर प्रस्तुत होने वाली सुखद सम्भावना का स्वरुप ठीक तरह समझना सम्भव हो सके। यदि यह अंधकार हट सके तो पैसा भी मिलेगा और समय भी। तब नव सृजन का कोई काम अटका नहीं रहेगा। नव निर्माण के निमित्त साधन तो चाहिए ही। उन्हें न धनवानों से पूरा किया जा सकता है और न सरकारों से। उसकी पूर्ति मात्र लोक श्रद्धा के जागरण से ही सम्भव है। हमे आसमान से अमृत बरसाने की प्रतीक्षा करते रहने की अपेक्षा कुँआ खोदने और पानी पीने की नीति अपनानी चाहिए। तथ्यों से अवगत करके लोक श्रद्धा उभारने और जन सहयोग से युग सृजन के आवश्यक साधन उपलब्ध करने की योजना बनानी चाहिए।
अखण्ड ज्योति परिवार में ऐसी अगणित प्रतिभाएँ मौजूद है जो टोली बनाकर अपने क्षेत्र में निकल पडे़ तो हजारी किसान द्वारा लगाये गये हजार उद्यानों की आदर्शवादिता के नये उदाहरण प्रसतुत कर सकती है। तीन हजार या पाँच हजार के धर्म संस्थान बनाना किसी भी गाँव के लिए भारी नहीं हो सकते, शर्त यही है कि भाव उत्तेजना के निमित्त प्रामाणिक प्रतिभाएँ आगे आये। इन दिनों मिशन की पत्रिकाओं के चार लाख के लगभग सदस्य है। वे अपने सहयोगियों का साथ लेकर कुछ समय के लिए इस प्रयोजन के लिए सम्पक्र क्षेत्र में निकल पड़े तो एक लाख चरण पीठें सहज ही बन सकती है। युग निर्माण परिवार के परिजनों की संख्या प्रायः 24 लाख आँकी गई है। चौबीस प्राणवान चाहें तो मिलजुल कर एक चरण पीठ का निर्माण अपनी-अपनी जेबों के सहारे भी कर सकते हैं। फिर ऐसे पुनीत कार्य में जन सहयोग मिलने की कोई कठिनाई कहीं भी प्रस्तुत होने की आशंका नहीं है।
एक लाख चरण पीठें उनमें से प्रत्येक को सौंपा गया एक हजार व्यक्तियों का कार्यक्षेत्र-10 करोड़ व्यक्तियों तक अपनी घनिष्ठता स्थापित कर सकने में समर्थ हो सकता है। देश की 60 करोड़ आबादी में 10 करोड़ वयस्क और बुद्धिमान व्यक्ति कुछ मानी मतलब रखते है। इतने लोगों के नियमित रुप से प्रेरणा मिलते रहते।
की बन पडे़ तो समझना चाहिए युग परिवर्तन की .... के सुनिश्चित यथार्थता में परिणित होना तनिक ...कठिन नहीं है। इन पीठों में से प्रत्येक में एक वैतनिक .... रखा जाने में कहीं भी आर्थिक कठिनाई आड़े आने वाली नहीं है ‘ज्ञान घट’ उसकी पूर्ति सहज ही कर दिया करेगे। पूरे या आधे समय नियमित रुप से काम करने वाले भावनाशील एक लाख कार्यकर्ताओं के प्रयास का मूल्य आँका जाय तो परिणित पुलकित एवं रोमाँचित कर देने जितनी हो सकती है। फिर जन साधारण में से निकलने वाले समयदानियों के श्रम को यदि ठीक तरह से रचनात्मक कार्मों में लगाया जा सके तो उसका परिणाम ऐसा हो सकता है जिसे अप्रत्याशित एवं चमत्कारी कहा जा सके।
गायत्री चरण पीठों के धर्म संस्थान रचानात्मक सत्प्रवृत्तियों के प्रति लोक श्रद्धा जगाने वाले जागरण केन्द्र होगे। उनका आकार छोटा होने पर भी उद्देश्य महान है। झन्डा जरा-सा होता है, देव प्रतिमाएँ भी छोटी-सी होती है पर उनके साथ जिस गहन आस्था का समावेश होता है उसके कारण उनका शासन असंख्य अन्तःकरणों पर देखा जा सकता है। ठीक इसी प्रकार लागत एवं आकार की दृष्टि से छोटी दीखते हुए भी उनके साथ जुड़ी हुई योजना अत्यन्त सुविस्तृत और दूरगामी परिणाम उत्पन्न करने वाली होगी।
मनःस्थिति एवं परिस्थिति संशोधन करने वाले सृजनात्मक शालीनता बढ़ाने वाले अनेकों कार्यक्रम हर जगह स्थानीय परिस्थितियाँ एवं आवश्यकताओं को देखते हुए बनाये जा सकते है और उनमें हर योग्यता का-हर स्थिति का-हर स्तर के श्रम समय का-उपयोग सुनिश्चित रुप से हो सकता है। एक कार्यक्रम होता तो कठिनाई यह रहती कि एक योग्यता के व्यक्ति ही काम आते, पर जब वृक्षारोपण एवं स्वच्छता सर्म्बधन जैसे श्रमदान पर आधरित कार्यक्रम भी चरण पीठों की सृजन योजना में सम्मिलित है तो किसी भी समयदानी को इसकी शिकायत न रहेगी कि हमारे सहयोग को निरर्थक ठहराया गया। पैसे की आवश्यकता तो है ही वह जहाँ जितना जुट सके वहाँ उतने से ही बडं़ निर्माण एवं विशाल कार्यक्रमों का विस्तार होता चला जायेगा इसलिए इन स्त्रोतों को खोलना भी इन धर्म संस्थानों के निर्माणकत्ताओं का कर्तव्य है। जहाँ इसमें जितनी सफलता मिलेगी वह उसी अनुपात से नव सृजन की सम्भावना प्रखर होती चलेगी।
अखण्ड-ज्योति के परिजनों में से प्रत्येक को नव-सृजन के इस पुण्य पर्व पर युग धर्म के निर्वाह के निमित्त कुछ साहसिक कदम बढ़ाने चाहिए। इस सर्न्दभ में किस की क्या मन स्थिति एवं क्या परिस्थिति है और उनके लिए कहाँ क्या कुछ कर सकना सम्भव हो सकता है? इसके लिए शान्ति कुन्ज हरिद्वार से पत्र-व्यवहार करके किसी उपयुक्त निर्ष्कष पर पहुँचा जा सकता है। अपेक्षा की गई है कि युग सन्धि के पुण्य पर्व पर प्रत्येक जागृत आत्मा को अपने-अपने ढंग से कुछ प्रेरणा मिलेगी और उस आधार पर उत्पन्न हुई उदारता से उज्जवल भविष्य के अभिनव सृजन में उत्साहवर्धक सहायता मिलेगी।