Magazine - Year 1982 - Version 2
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Language: HINDI
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नर-पशु का नारायण में प्रत्यावर्तन, आत्मिकी का अवलंबन
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प्रकृति विनिर्मित सभी वस्तुएँ मनुष्य के यथावत् उपयोग में नहीं आ पातीं। उनमें से कुछेक ही ऐसी हैं, जिन्हें प्राकृत रूप में प्रयोग किया जा सकता है। साधारणतया प्राणी-समुदाय आहार-पोषण तक ही सीमित रहते, काम चलाते और संतुष्ट रहते हैं। यही बात चेतना के संबंध में भी है। सभी प्राणी अपनी इंद्रिय क्षमता और अंतःप्रेरणा के सहारे सामान्य निर्वाह की आवश्यकता तथा सुरक्षा की कठिनाइयों का सामना कर लेते हैं। इससे अधिक की उन्हें आवश्यकता भी तो नही पड़ती। जिस स्तर का जीवन उन्हें जीना है, उसके लिए अतिरिक्त प्रयोजन अभीष्ट न होने से सृष्टा ने अधिक कुछ देने की आवश्यकता भी नहीं समझी और अतिरिक्त भार का झंझट लादा भी नहीं।
मनुष्य को इस समुदाय में नहीं गिना जाता। उसे सृष्टा ने इस जगती का मुकुटमणि बनाकर भेजा है। उसके लिए पेट भरने एवं आक्रमणों से जान बचाने की पशु स्तर की सुविधाएँ पर्याप्त नहीं समझी गईं; इससे अधिक भी उसे कुछ चाहिए। शरीर भी उतने से संतुष्ट नहीं होता, जितने से कि अन्य प्राणियों का काम चल जाता है। मन की आकांक्षाएँ भी बढ़ी−चढ़ी हैं। साथ ही अंतःकरण उच्चस्तरीय रीति−नीति अपनाने के लिए अन्यान्य समर्थताओं की भी माँग करता है। यह साधन न मिले तो फिर वनमानुष स्तर का निर्वाह करने से आगे की कुछ बात नहीं बनती है।
मानवी संरचना बड़ी विचित्र है। उसकी शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, पारिवारिक, सामाजिक, आध्यात्मिक क्षेत्रों की आवश्यकताएँ इतनी अधिक हैं कि उन्हें पूरा करने के लिए मात्र इंद्रिय, चेतना एवं मूल प्रवृत्तियों के आधार पर गतिशील अंतःप्रेरणाओं के सहारे उस तरह काम नहीं चल सकता, जिस तरह कि अन्य प्राणियों का चल जाता है। आवश्यकताओं के असंख्य क्षेत्र बढ़ जाने के कारण मनुष्य को अगणित पदार्थों का रूपांतरण करने, उन्हें अपने उपयोग में आ सकने योग्य बनाना पड़ा है। इसी प्रयास−प्रक्रिया का नाम भौतिकी है। इस विज्ञान का आश्रय लिए बिना मनुष्य को आदिमयुग से आगे बढ़ सकने का अवसर ही नहीं मिल सकता था। वर्तमान विकासयुग का पूरा-पूरा श्रेय इसीलिए भौतिकी को दिया जा सकता है।
उदाहरण के लिए कपास से वस्त्र, कच्चे अन्न से सुपाच्य भोजन, रात्रि में प्रकाश, भूमि से उत्पादन, पशुपालन, नौकायन, चिकित्सा, परिवहन, शिक्षा जैसे कार्यों में जिन वस्तुओं का उपयोग होता है, वे प्राकृत रूप में उपलब्ध नहीं होते, उन्हें पदार्थ के मौलिक स्वरूप को बदलकर काम में आने योग्य बनाना पड़ता है। औजार जमीन में से नहीं निकलते। प्रकृतितः तो भूमि में से मिट्टी मिला लोहा निकलता है, उससे कोई भी वस्तु नहीं बन सकती। अनेकों अग्नि संस्कार करने के उपरांत ही कच्चा लोहा शुद्ध होता है और उससे उपयोग योग्य अनेकों वस्तुएँ बनती हैं। पानी की आवश्यकता वर्षा के द्वारा बनने वाले नालों–जोहड़ों से पूरी नहीं हो सकती। इसके लिए कुआँ खोदने, पंप, चरस आदि का प्रबंध करना पड़ता है। यह ‘भौतिकी’ है।
इससे आगे उन अनेकानेक आविष्कारों, यंत्र–कारखानों का सिलसिला शुरू होता है, जिसके माध्यम से प्राकृत पदार्थों को उलट−पुलटकर अनेकों वस्तुएँ बनती हैं। यह निर्वाह की प्रक्रिया हुई। इसके आगे अस्त्र−शस्त्र, कला−कौशल, सुविधा−संवर्धन, परिवहन−संचार, विनोद−उपचार आदि के अनेकों ऐसे साधनों का क्षेत्र प्रारंभ होता है, जो निर्वाह से आगे की आवश्यकता पूर्ण करती है। संक्षेप में भौतिकी का वह स्वरूप समझा जाना चाहिए, जो अभ्यास में आने के कारण नया जैसा— महत्त्वपूर्ण जैसा तो प्रतीत नहीं होता, पर वस्तुतः वे हैं सभ्यता और प्रगति का मेरुदंड। उनके अभाव में मनुष्य की आज क्या स्थिति हो सकती है, इसकी कल्पना मात्र से भय का संचार होता है।
ठीक यही बात आत्मिकी के संबंध में है। स्पष्ट है, जड़ से चेतन का स्तर ऊँचा है। चेतन ड्राइवर के बिना लाखों-करोड़ों की बनी रेलगाड़ी सही रीति से एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकती। स्वसंचालित यंत्रों का भी कोई संचालक— नियामक होता है। पदार्थसत्ता का मानवोपयोगी पक्ष पूर्णतः भौतिकी के चमत्कारों से भरा पड़ा है। आत्मिकी का उद्देश्य मानवी चेतना को इस योग्य बनाना व ऊँचा उठाना है कि पदार्थों और प्राणियों के साथ व्यवहार करने की ऐसी विधि सुझाए, जिसके कारण सुविधा एवं प्रसन्नता बढ़ती रहे। इस आलोक के अभाव में वस्तुओं के दुरुपयोग और प्राणियों से दुर्व्यवहार की अव्यवस्था फैलेगी और फलतः ऐसी परिस्थिति सामने आ खड़ी होगी, जिससे कि सुविधा−सहयोग देने वाले उल्टी हानि पहुँचाने लगें और प्राणघातक संकट खड़े करें। आत्मिकी ही है, जिसके आधार पर मनुष्य अपने चिंतन और चरित्र को परिष्कृत स्तर का— ताल-मेल बिठा सकने में सक्षम बनाता है। इसके अभाव में उसे अनगढ़, पिछड़े, असभ्य लोगों की तरह वनमानुष जैसा जीवन जीना पड़ेगा। साधन होते हुए भी सही उपयोग न बन पड़ने के कारण उलटे संकट में फँसना पड़ेगा।
अन्य प्राणियों में बुद्धि और आवश्यकता का संतुलन है, इसलिए उनकी गाड़ी पटरी पर लुढ़कती रहती है। मनुष्य ने प्रगति की है, सुविधा बढ़ाई है, तो उसे यह भी जानना होगा कि उपलब्धियों का उपयोग करते समय किस प्रकार सोचा जाए और व्यवहार में किन मर्यादाओं का ध्यान रखा जाए। इसके अभाव में बढ़े हुए साधनों का दुरुपयोग होने पर विपत्तियों और विग्रहों के टूट पड़ने का खतरा रहेगा। विक्षिप्तों, सनकियों, दुर्बुद्धि−दुराचारियों को अपने पैरों कुल्हाड़ी मारते और दूसरों के लिए संकट खड़े करते, आए दिन देखा जाता है। इसका कारण साधनों का अभाव नहीं, उनके उपार्जन, संरक्षण एवं उपयोग की प्रक्रिया में अनजान−अनभ्यस्त रहना होता है। प्रगतिशील और पिछड़े लोगों के बीच इसी विशेषता की न्यूनाधिकता होती है, जिसे सभ्यता, बुद्धिमत्ता, सज्जनता, व्यवहारकुशलता आदि नामों से पुकारते हैं। संस्कृति यही है। इसी के सहारे मनुष्य प्रगतिशील बनते, सुखी रहते और दूसरों की सहायता करके उनका स्नेह−सहयोग अर्जित करते है।
आत्मिकी की यह चर्चा व्यावहारिक जीवन में सरलता और प्रसन्नतापूर्वक निर्वाह चलाने की, संतुलन बनाए रहने की प्रक्रिया हुई। इससे आगे और भी बहुत कुछ जानने योग्य है। श्रमशक्ति के चमत्कार से सभी परिचित है। शारीरिक हो या मानसिक, विद्युत आदि के माध्यम से उत्पन्न की गई श्रमशक्ति ही विविध–विध निर्माणों की व्यवस्था बनाती है। इसके बाद दूसरी शक्ति है— विचारणा। इसके अनेकों पक्ष हैं— कल्पना, तर्क, निर्धारण, बुद्धिमत्ता, दूरदर्शिता, आकांक्षा, आस्था आदि। इन्हीं मानसिक क्षमताओं के द्वारा मनुष्य अपनी विशिष्टताओं को प्रकट करता, सफलताएँ प्राप्त करता तथा श्रेय बटोरता है। विचारशक्ति बढ़ाने की आवश्यकता सभी समझते हैं और शरीर को स्वस्थ रखने के निमित्त आहार−उपचार की तरह बौद्धिक क्षमता बढ़ाने के लिए प्रशिक्षण एवं अनुभव संपादन के अनेकों साधन जुटाते हैं। यह विचारणा का काम−काजी पक्ष हुआ। इसके सहारे ही समृद्धि, प्रगति एवं प्रसन्नता के आधार बनते हैं। इस प्रक्रिया को ‘सभ्यता’ कहते हैं। नागरिकता, सामाजिकता, शिष्टता, व्यवहार कुशलता से संबंध रखने वाली आवश्यक मर्यादा से अवगत एवं उन्हें ठीक तरह क्रियान्वित कर सकने वालों को सभ्य कहते हैं। यह आवश्यकता भी स्वास्थ−रक्षा की तरह नितांत उपयोगी है। इस प्रयास में यथासंभव अधिकांश लोग प्रयत्नशील भी रहते हैं।
आत्मिकी— ’अध्यात्म विद्या’ विचारणा में उत्कृष्टता का समावेश कर सकने की विशिष्ट व्यवस्था है, जिसमें निर्धारण और अभ्यास दोनों का ही समावेश है। दृष्टिकोण इसी आधार पर विनिर्मित होता है। आत्मिकी का सीधा संबंध अंतःकरण के उस मर्मस्थल से है, जिसमें श्रद्धा−विश्वासरूपी उमा–महेश का निवास है। अंतःकरण-चतुष्ट्य की व्याख्या मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार के रूप में की जाती है। मनोविज्ञान की भाषा में इन्हीं को आकांक्षा, आस्था, आदतें कहते और व्यक्तित्व का मूलभूत आधार मानते हैं। यह क्षेत्र जिसका जिस स्तर का होता है, उनका व्यक्तित्व उसी ढाँचे में ढलता चला जाता है। घड़ी की चाबी ही उस मशीन के समस्त कलपुर्जों को चलाती हैं। उसी प्रकार मनुष्य के अंतराल से उठने वाली उमंगें ही मस्तिष्क को तदनुसार सोचने के लिए, शरीर को अभीष्ट साधन जुटाने के लिए विवश करती हैं। मस्तिष्क सोचने के लिए स्वतंत्र नहीं है और न अपनी मर्जी से कुछ करता है। इन दोनों को स्वामीभक्त नौकर की तरह अंतःकरण से उठने वाली आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए विवश होकर कार्यरत होना पड़ता है।
मानवी सत्ता का मर्मस्थल— केंद्रबिंदु, उसका अंतःकरण ही माना गया है। वह जिस भी भले−बुरे रूप में ढल जाता है, प्रत्यक्ष जीवन का स्वरूप और प्रवाह तदनुसार बनता चला जाता है। व्यक्तित्वों की उत्कृष्टता—निकृष्टता के रूप में जो कुछ भी घटित होता दीखता है; वस्तुतः उसे अंतःकरण का स्तर ही समझा जाना चाहिए। एक शब्द में अंतःकरण का आधारभूत उद्गम इसी रहस्यमय केंद्र को समझा जाना चाहिए। दृष्टिकोण यहीं विनिर्मित होता है। नीति−निर्धारण एवं निर्देशन यहीं से होता है। बाकी शारीरिक और मानसिक ढाँचा तो गाड़ी के दो पहियों की तरह वजन ढोने में लगा रहता है। दिशा−निर्धारण करने एवं गति देने की सारी व्यवस्था जिस ड्राइवर को करनी होती है, उसे अंतःकरण ही समझा जाना चाहिए। प्रगति, अवगति और दुर्गति की चित्र−विचित्र प्रतिक्रिया है। वह कठपुतली की तरह नाचती तो है; पर उनके धागे अंतःकरण का बाजीगर अपनी उँगली से बाँधे हुए पर्दे के पीछे छिपा बैठा रहता है। मनुष्य का विश्लेषण–परीक्षण, गुण−कर्म−स्वभाव के आधार पर होता है; पर वस्तुतः यह तीनों भी स्वनिर्मित नहीं होते, वरन् अंतःकरण के प्रजापति द्वारा बनाए गए चित्र−विचित्र आकृति के खिलौने भर होते हैं।
भौंड़ी अक्ल से किसी के ठाट−बाट, चातुर्य, उपार्जन या पदवैभव को देखकर गरिमा का मूल्यांकन किया जाता है; पर इस अवास्तविक निर्धारण की पोल तब खुलती है, जब परिस्थितियाँ तनिक भी प्रतिकूल पड़ने पर उथले आधार पर खड़ा हुआ बड़प्पन झाग बैठने, गुब्बारा फूटने और बबूले के अदृश्य हो जाने की तरह जादुई सरंजाम हवा में गायब होते दीखता है और तथाकथित बड़ा आदमी छोटे लोगों से भी गई−गुजरी स्थिति में होने से मुँह मारा हुआ दिखाई पड़ता है। इसके विपरीत जिनके व्यक्तित्व उच्चस्तरीय आधार पर विनिर्मित हुए हैं, वे आंतरिक प्रखरता के बलबूते अभावों−प्रतिकूलताओं का सामना करते हुए साहसपूर्वक आगे बढ़ते हैं। अपने निजी चुंबकत्व से ये न केवल लोकश्रद्धा, जनसहयोग; वरन् आत्मसंतोष और दैवी अनुग्रह भी प्रचुर परिमाण में उपलब्ध करते हैं।
शरीर एवं मस्तिष्कीय संरचना में मनुष्य−मनुष्य के बीच कोई भारी भेद नहीं है और न परिस्थितियाँ ही किसी के इतनी अनुकूल−प्रतिकूल होती है कि प्रगति, प्रतिभा एवं प्रखरता की दृष्टि से जमीन−आसमान जितना अंतर देखा जा सके। एक ही जंक्शन पर, बराबर वाली पटरियों पर खड़ी हुई दो गाड़ियाँ, लीवर गिराने में अंतर रहने के कारण दो भिन्न दिशाओं में चल पड़ती हैं और कुछ ही देर में उनके मध्य हजारों मील की दूरी बन जाती है। चाल दोनों की एक जैसी, साधन, ड्राइवर आदि एक जैसे; फिर यह दूरी का अंतर क्यों पड़ गया? साथ−साथ क्यों नहीं चलती रहीं? इसका एक ही उत्तर है— उनकी दिशा बदल गई। जीवन की दिशाधारा बदलने का आधार मात्र एक ही है— दृष्टिकोण। किस स्तर का जीवन जिया जाए? उसे किस प्रयोजन के लिए प्रयुक्त किया जाए? निर्धारित लक्ष्य तक पहुँचने के लिए किन मान्यताओं और गतिविधियों को अपनाया जाए? यही है वह आधारभूत निर्धारण, जिसके सहारे भली या बुरी दिशाओं में जीवन-प्रवाह बहता है और पतन के गर्त या उत्थान के शिखर पर जा पहुँचता है।
अमीबा से लेकर मनुष्य स्तर तक पहुँचने में विकासक्रम की जो लंबी यात्रा करनी पड़ी है, उसमें विभिन्न स्तर के अनुभव−अभ्यास होते और उपार्जित संपदा की तरह जमा होते रहे हैं। यह पूँजी संचित संस्कारों के नाम से जानी जाती है। मनोविज्ञानी इसी को मूल प्रवृत्ति के नाम से निरूपित करते हैं। स्वभावतः यह मानवी गरिमा से तुलना करते हुए हेय स्तर की होनी चाहिए। कृमि−कीटकों और पशु−पक्षियों को जिस आचार−संहिता का पालन और अनुभव−अभ्यासों का संचय करना पड़ा है, वे निश्चय ही मनुष्य स्तर के नहीं हो सकते। छोटे बालकों को जो कपड़े पहनाए जाते हैं, वे बड़े होने पर उनके उपयोग योग्य नहीं रहते। पशु−प्रवृत्तियाँ मनुष्य द्वारा अपनाई जाने पर उपहासास्पद एवं निंदनीय बन जाती है; उन्हें बरबस छोड़ना ही पड़ता है, भले ही संचित अभ्यास उन्हें ही अपनाए रहने का आग्रह क्यों न करता रहे। इतना ही नहीं, छोड़ने के अतिरिक्त पद एवं उत्तरदायित्व के अनुरूप कुछ नया ग्रहण भी करना पड़ता है। अध्यात्म विज्ञान की भाषा में इसी को तप कहते हैं। पदोन्नति करते−करते छोटे कर्मचारी जब बड़े अफसर बनते हैं, तो प्रगति के हर नए मोड़ पर उन्हें ट्रेनिंग लेनी होती है; अन्यथा पद ऊँचा और अनुभव नीचा होने पर सारी व्यवस्था ही गुड़−गोबर हो जाती है।
मनुष्य जीवन सृष्टि के समस्त जीवधारियों की तुलना में सर्वोच्च पद है। प्राणी के लिए इससे बड़ा न कोई पद है और न गौरव। उसे ईश्वरप्रदत्त सर्वोपरि उपहार और उपलब्धकर्त्ता का अभूतपूर्व सौभाग्य कहा जा सकता है। ऐसे बड़े पद का कार्यभार सफलतापूर्ण चलाने के लिए किस रीति−नीति का, किस दिशाधारा का अपनाया जाना आवश्यक है, इसके लिए कुछ ऐसा सोचना, मानना और अपनाना पड़ता है, जो भूतकाल की तुलना में सर्वथा भिन्न ही कहा जा सकता है। इस प्रक्रिया को आत्मिकी कहते हैं। उपयोगिता की दृष्टि से भौतिकी की तुलना में कम नहीं, वरन् अधिक ही महत्त्व दिया जा सकता है। भौतिकी की उपलब्धियाँ मात्र शरीर की सुविधा एवं मन की गुदगुदी भर प्रदान करती है; किंतु आत्मिकी के आधार पर जिस तरह समूचे व्यक्तित्व की गलाई–ढलाई होती है, उसे एक प्रकार से कायाकल्प ही कहना चाहिए।
यह कायाकल्प द्विजत्व नाम से भी पुकारा जाता है। साधना की प्रक्रिया नर-पशु को नर-नारायण में किस प्रकार बदलती है, इसे जानने के लिए जिज्ञासु मनीषियों को आत्मिकी विद्या के गूढ़ तत्त्वदर्शन को भलीभाँति जानना चाहिए। उच्चस्तरीय साधना-सोपानों को तुरंत पाने का प्रयास करने वालों को इस एक तथ्य को समझ लेना बहुत अनिवार्य है कि अंतःकरण का परिष्कार— वृत्तियों का शोधन ही समस्त सिद्धियों का राजमार्ग है।
मनुष्य को इस समुदाय में नहीं गिना जाता। उसे सृष्टा ने इस जगती का मुकुटमणि बनाकर भेजा है। उसके लिए पेट भरने एवं आक्रमणों से जान बचाने की पशु स्तर की सुविधाएँ पर्याप्त नहीं समझी गईं; इससे अधिक भी उसे कुछ चाहिए। शरीर भी उतने से संतुष्ट नहीं होता, जितने से कि अन्य प्राणियों का काम चल जाता है। मन की आकांक्षाएँ भी बढ़ी−चढ़ी हैं। साथ ही अंतःकरण उच्चस्तरीय रीति−नीति अपनाने के लिए अन्यान्य समर्थताओं की भी माँग करता है। यह साधन न मिले तो फिर वनमानुष स्तर का निर्वाह करने से आगे की कुछ बात नहीं बनती है।
मानवी संरचना बड़ी विचित्र है। उसकी शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, पारिवारिक, सामाजिक, आध्यात्मिक क्षेत्रों की आवश्यकताएँ इतनी अधिक हैं कि उन्हें पूरा करने के लिए मात्र इंद्रिय, चेतना एवं मूल प्रवृत्तियों के आधार पर गतिशील अंतःप्रेरणाओं के सहारे उस तरह काम नहीं चल सकता, जिस तरह कि अन्य प्राणियों का चल जाता है। आवश्यकताओं के असंख्य क्षेत्र बढ़ जाने के कारण मनुष्य को अगणित पदार्थों का रूपांतरण करने, उन्हें अपने उपयोग में आ सकने योग्य बनाना पड़ा है। इसी प्रयास−प्रक्रिया का नाम भौतिकी है। इस विज्ञान का आश्रय लिए बिना मनुष्य को आदिमयुग से आगे बढ़ सकने का अवसर ही नहीं मिल सकता था। वर्तमान विकासयुग का पूरा-पूरा श्रेय इसीलिए भौतिकी को दिया जा सकता है।
उदाहरण के लिए कपास से वस्त्र, कच्चे अन्न से सुपाच्य भोजन, रात्रि में प्रकाश, भूमि से उत्पादन, पशुपालन, नौकायन, चिकित्सा, परिवहन, शिक्षा जैसे कार्यों में जिन वस्तुओं का उपयोग होता है, वे प्राकृत रूप में उपलब्ध नहीं होते, उन्हें पदार्थ के मौलिक स्वरूप को बदलकर काम में आने योग्य बनाना पड़ता है। औजार जमीन में से नहीं निकलते। प्रकृतितः तो भूमि में से मिट्टी मिला लोहा निकलता है, उससे कोई भी वस्तु नहीं बन सकती। अनेकों अग्नि संस्कार करने के उपरांत ही कच्चा लोहा शुद्ध होता है और उससे उपयोग योग्य अनेकों वस्तुएँ बनती हैं। पानी की आवश्यकता वर्षा के द्वारा बनने वाले नालों–जोहड़ों से पूरी नहीं हो सकती। इसके लिए कुआँ खोदने, पंप, चरस आदि का प्रबंध करना पड़ता है। यह ‘भौतिकी’ है।
इससे आगे उन अनेकानेक आविष्कारों, यंत्र–कारखानों का सिलसिला शुरू होता है, जिसके माध्यम से प्राकृत पदार्थों को उलट−पुलटकर अनेकों वस्तुएँ बनती हैं। यह निर्वाह की प्रक्रिया हुई। इसके आगे अस्त्र−शस्त्र, कला−कौशल, सुविधा−संवर्धन, परिवहन−संचार, विनोद−उपचार आदि के अनेकों ऐसे साधनों का क्षेत्र प्रारंभ होता है, जो निर्वाह से आगे की आवश्यकता पूर्ण करती है। संक्षेप में भौतिकी का वह स्वरूप समझा जाना चाहिए, जो अभ्यास में आने के कारण नया जैसा— महत्त्वपूर्ण जैसा तो प्रतीत नहीं होता, पर वस्तुतः वे हैं सभ्यता और प्रगति का मेरुदंड। उनके अभाव में मनुष्य की आज क्या स्थिति हो सकती है, इसकी कल्पना मात्र से भय का संचार होता है।
ठीक यही बात आत्मिकी के संबंध में है। स्पष्ट है, जड़ से चेतन का स्तर ऊँचा है। चेतन ड्राइवर के बिना लाखों-करोड़ों की बनी रेलगाड़ी सही रीति से एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकती। स्वसंचालित यंत्रों का भी कोई संचालक— नियामक होता है। पदार्थसत्ता का मानवोपयोगी पक्ष पूर्णतः भौतिकी के चमत्कारों से भरा पड़ा है। आत्मिकी का उद्देश्य मानवी चेतना को इस योग्य बनाना व ऊँचा उठाना है कि पदार्थों और प्राणियों के साथ व्यवहार करने की ऐसी विधि सुझाए, जिसके कारण सुविधा एवं प्रसन्नता बढ़ती रहे। इस आलोक के अभाव में वस्तुओं के दुरुपयोग और प्राणियों से दुर्व्यवहार की अव्यवस्था फैलेगी और फलतः ऐसी परिस्थिति सामने आ खड़ी होगी, जिससे कि सुविधा−सहयोग देने वाले उल्टी हानि पहुँचाने लगें और प्राणघातक संकट खड़े करें। आत्मिकी ही है, जिसके आधार पर मनुष्य अपने चिंतन और चरित्र को परिष्कृत स्तर का— ताल-मेल बिठा सकने में सक्षम बनाता है। इसके अभाव में उसे अनगढ़, पिछड़े, असभ्य लोगों की तरह वनमानुष जैसा जीवन जीना पड़ेगा। साधन होते हुए भी सही उपयोग न बन पड़ने के कारण उलटे संकट में फँसना पड़ेगा।
अन्य प्राणियों में बुद्धि और आवश्यकता का संतुलन है, इसलिए उनकी गाड़ी पटरी पर लुढ़कती रहती है। मनुष्य ने प्रगति की है, सुविधा बढ़ाई है, तो उसे यह भी जानना होगा कि उपलब्धियों का उपयोग करते समय किस प्रकार सोचा जाए और व्यवहार में किन मर्यादाओं का ध्यान रखा जाए। इसके अभाव में बढ़े हुए साधनों का दुरुपयोग होने पर विपत्तियों और विग्रहों के टूट पड़ने का खतरा रहेगा। विक्षिप्तों, सनकियों, दुर्बुद्धि−दुराचारियों को अपने पैरों कुल्हाड़ी मारते और दूसरों के लिए संकट खड़े करते, आए दिन देखा जाता है। इसका कारण साधनों का अभाव नहीं, उनके उपार्जन, संरक्षण एवं उपयोग की प्रक्रिया में अनजान−अनभ्यस्त रहना होता है। प्रगतिशील और पिछड़े लोगों के बीच इसी विशेषता की न्यूनाधिकता होती है, जिसे सभ्यता, बुद्धिमत्ता, सज्जनता, व्यवहारकुशलता आदि नामों से पुकारते हैं। संस्कृति यही है। इसी के सहारे मनुष्य प्रगतिशील बनते, सुखी रहते और दूसरों की सहायता करके उनका स्नेह−सहयोग अर्जित करते है।
आत्मिकी की यह चर्चा व्यावहारिक जीवन में सरलता और प्रसन्नतापूर्वक निर्वाह चलाने की, संतुलन बनाए रहने की प्रक्रिया हुई। इससे आगे और भी बहुत कुछ जानने योग्य है। श्रमशक्ति के चमत्कार से सभी परिचित है। शारीरिक हो या मानसिक, विद्युत आदि के माध्यम से उत्पन्न की गई श्रमशक्ति ही विविध–विध निर्माणों की व्यवस्था बनाती है। इसके बाद दूसरी शक्ति है— विचारणा। इसके अनेकों पक्ष हैं— कल्पना, तर्क, निर्धारण, बुद्धिमत्ता, दूरदर्शिता, आकांक्षा, आस्था आदि। इन्हीं मानसिक क्षमताओं के द्वारा मनुष्य अपनी विशिष्टताओं को प्रकट करता, सफलताएँ प्राप्त करता तथा श्रेय बटोरता है। विचारशक्ति बढ़ाने की आवश्यकता सभी समझते हैं और शरीर को स्वस्थ रखने के निमित्त आहार−उपचार की तरह बौद्धिक क्षमता बढ़ाने के लिए प्रशिक्षण एवं अनुभव संपादन के अनेकों साधन जुटाते हैं। यह विचारणा का काम−काजी पक्ष हुआ। इसके सहारे ही समृद्धि, प्रगति एवं प्रसन्नता के आधार बनते हैं। इस प्रक्रिया को ‘सभ्यता’ कहते हैं। नागरिकता, सामाजिकता, शिष्टता, व्यवहार कुशलता से संबंध रखने वाली आवश्यक मर्यादा से अवगत एवं उन्हें ठीक तरह क्रियान्वित कर सकने वालों को सभ्य कहते हैं। यह आवश्यकता भी स्वास्थ−रक्षा की तरह नितांत उपयोगी है। इस प्रयास में यथासंभव अधिकांश लोग प्रयत्नशील भी रहते हैं।
आत्मिकी— ’अध्यात्म विद्या’ विचारणा में उत्कृष्टता का समावेश कर सकने की विशिष्ट व्यवस्था है, जिसमें निर्धारण और अभ्यास दोनों का ही समावेश है। दृष्टिकोण इसी आधार पर विनिर्मित होता है। आत्मिकी का सीधा संबंध अंतःकरण के उस मर्मस्थल से है, जिसमें श्रद्धा−विश्वासरूपी उमा–महेश का निवास है। अंतःकरण-चतुष्ट्य की व्याख्या मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार के रूप में की जाती है। मनोविज्ञान की भाषा में इन्हीं को आकांक्षा, आस्था, आदतें कहते और व्यक्तित्व का मूलभूत आधार मानते हैं। यह क्षेत्र जिसका जिस स्तर का होता है, उनका व्यक्तित्व उसी ढाँचे में ढलता चला जाता है। घड़ी की चाबी ही उस मशीन के समस्त कलपुर्जों को चलाती हैं। उसी प्रकार मनुष्य के अंतराल से उठने वाली उमंगें ही मस्तिष्क को तदनुसार सोचने के लिए, शरीर को अभीष्ट साधन जुटाने के लिए विवश करती हैं। मस्तिष्क सोचने के लिए स्वतंत्र नहीं है और न अपनी मर्जी से कुछ करता है। इन दोनों को स्वामीभक्त नौकर की तरह अंतःकरण से उठने वाली आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए विवश होकर कार्यरत होना पड़ता है।
मानवी सत्ता का मर्मस्थल— केंद्रबिंदु, उसका अंतःकरण ही माना गया है। वह जिस भी भले−बुरे रूप में ढल जाता है, प्रत्यक्ष जीवन का स्वरूप और प्रवाह तदनुसार बनता चला जाता है। व्यक्तित्वों की उत्कृष्टता—निकृष्टता के रूप में जो कुछ भी घटित होता दीखता है; वस्तुतः उसे अंतःकरण का स्तर ही समझा जाना चाहिए। एक शब्द में अंतःकरण का आधारभूत उद्गम इसी रहस्यमय केंद्र को समझा जाना चाहिए। दृष्टिकोण यहीं विनिर्मित होता है। नीति−निर्धारण एवं निर्देशन यहीं से होता है। बाकी शारीरिक और मानसिक ढाँचा तो गाड़ी के दो पहियों की तरह वजन ढोने में लगा रहता है। दिशा−निर्धारण करने एवं गति देने की सारी व्यवस्था जिस ड्राइवर को करनी होती है, उसे अंतःकरण ही समझा जाना चाहिए। प्रगति, अवगति और दुर्गति की चित्र−विचित्र प्रतिक्रिया है। वह कठपुतली की तरह नाचती तो है; पर उनके धागे अंतःकरण का बाजीगर अपनी उँगली से बाँधे हुए पर्दे के पीछे छिपा बैठा रहता है। मनुष्य का विश्लेषण–परीक्षण, गुण−कर्म−स्वभाव के आधार पर होता है; पर वस्तुतः यह तीनों भी स्वनिर्मित नहीं होते, वरन् अंतःकरण के प्रजापति द्वारा बनाए गए चित्र−विचित्र आकृति के खिलौने भर होते हैं।
भौंड़ी अक्ल से किसी के ठाट−बाट, चातुर्य, उपार्जन या पदवैभव को देखकर गरिमा का मूल्यांकन किया जाता है; पर इस अवास्तविक निर्धारण की पोल तब खुलती है, जब परिस्थितियाँ तनिक भी प्रतिकूल पड़ने पर उथले आधार पर खड़ा हुआ बड़प्पन झाग बैठने, गुब्बारा फूटने और बबूले के अदृश्य हो जाने की तरह जादुई सरंजाम हवा में गायब होते दीखता है और तथाकथित बड़ा आदमी छोटे लोगों से भी गई−गुजरी स्थिति में होने से मुँह मारा हुआ दिखाई पड़ता है। इसके विपरीत जिनके व्यक्तित्व उच्चस्तरीय आधार पर विनिर्मित हुए हैं, वे आंतरिक प्रखरता के बलबूते अभावों−प्रतिकूलताओं का सामना करते हुए साहसपूर्वक आगे बढ़ते हैं। अपने निजी चुंबकत्व से ये न केवल लोकश्रद्धा, जनसहयोग; वरन् आत्मसंतोष और दैवी अनुग्रह भी प्रचुर परिमाण में उपलब्ध करते हैं।
शरीर एवं मस्तिष्कीय संरचना में मनुष्य−मनुष्य के बीच कोई भारी भेद नहीं है और न परिस्थितियाँ ही किसी के इतनी अनुकूल−प्रतिकूल होती है कि प्रगति, प्रतिभा एवं प्रखरता की दृष्टि से जमीन−आसमान जितना अंतर देखा जा सके। एक ही जंक्शन पर, बराबर वाली पटरियों पर खड़ी हुई दो गाड़ियाँ, लीवर गिराने में अंतर रहने के कारण दो भिन्न दिशाओं में चल पड़ती हैं और कुछ ही देर में उनके मध्य हजारों मील की दूरी बन जाती है। चाल दोनों की एक जैसी, साधन, ड्राइवर आदि एक जैसे; फिर यह दूरी का अंतर क्यों पड़ गया? साथ−साथ क्यों नहीं चलती रहीं? इसका एक ही उत्तर है— उनकी दिशा बदल गई। जीवन की दिशाधारा बदलने का आधार मात्र एक ही है— दृष्टिकोण। किस स्तर का जीवन जिया जाए? उसे किस प्रयोजन के लिए प्रयुक्त किया जाए? निर्धारित लक्ष्य तक पहुँचने के लिए किन मान्यताओं और गतिविधियों को अपनाया जाए? यही है वह आधारभूत निर्धारण, जिसके सहारे भली या बुरी दिशाओं में जीवन-प्रवाह बहता है और पतन के गर्त या उत्थान के शिखर पर जा पहुँचता है।
अमीबा से लेकर मनुष्य स्तर तक पहुँचने में विकासक्रम की जो लंबी यात्रा करनी पड़ी है, उसमें विभिन्न स्तर के अनुभव−अभ्यास होते और उपार्जित संपदा की तरह जमा होते रहे हैं। यह पूँजी संचित संस्कारों के नाम से जानी जाती है। मनोविज्ञानी इसी को मूल प्रवृत्ति के नाम से निरूपित करते हैं। स्वभावतः यह मानवी गरिमा से तुलना करते हुए हेय स्तर की होनी चाहिए। कृमि−कीटकों और पशु−पक्षियों को जिस आचार−संहिता का पालन और अनुभव−अभ्यासों का संचय करना पड़ा है, वे निश्चय ही मनुष्य स्तर के नहीं हो सकते। छोटे बालकों को जो कपड़े पहनाए जाते हैं, वे बड़े होने पर उनके उपयोग योग्य नहीं रहते। पशु−प्रवृत्तियाँ मनुष्य द्वारा अपनाई जाने पर उपहासास्पद एवं निंदनीय बन जाती है; उन्हें बरबस छोड़ना ही पड़ता है, भले ही संचित अभ्यास उन्हें ही अपनाए रहने का आग्रह क्यों न करता रहे। इतना ही नहीं, छोड़ने के अतिरिक्त पद एवं उत्तरदायित्व के अनुरूप कुछ नया ग्रहण भी करना पड़ता है। अध्यात्म विज्ञान की भाषा में इसी को तप कहते हैं। पदोन्नति करते−करते छोटे कर्मचारी जब बड़े अफसर बनते हैं, तो प्रगति के हर नए मोड़ पर उन्हें ट्रेनिंग लेनी होती है; अन्यथा पद ऊँचा और अनुभव नीचा होने पर सारी व्यवस्था ही गुड़−गोबर हो जाती है।
मनुष्य जीवन सृष्टि के समस्त जीवधारियों की तुलना में सर्वोच्च पद है। प्राणी के लिए इससे बड़ा न कोई पद है और न गौरव। उसे ईश्वरप्रदत्त सर्वोपरि उपहार और उपलब्धकर्त्ता का अभूतपूर्व सौभाग्य कहा जा सकता है। ऐसे बड़े पद का कार्यभार सफलतापूर्ण चलाने के लिए किस रीति−नीति का, किस दिशाधारा का अपनाया जाना आवश्यक है, इसके लिए कुछ ऐसा सोचना, मानना और अपनाना पड़ता है, जो भूतकाल की तुलना में सर्वथा भिन्न ही कहा जा सकता है। इस प्रक्रिया को आत्मिकी कहते हैं। उपयोगिता की दृष्टि से भौतिकी की तुलना में कम नहीं, वरन् अधिक ही महत्त्व दिया जा सकता है। भौतिकी की उपलब्धियाँ मात्र शरीर की सुविधा एवं मन की गुदगुदी भर प्रदान करती है; किंतु आत्मिकी के आधार पर जिस तरह समूचे व्यक्तित्व की गलाई–ढलाई होती है, उसे एक प्रकार से कायाकल्प ही कहना चाहिए।
यह कायाकल्प द्विजत्व नाम से भी पुकारा जाता है। साधना की प्रक्रिया नर-पशु को नर-नारायण में किस प्रकार बदलती है, इसे जानने के लिए जिज्ञासु मनीषियों को आत्मिकी विद्या के गूढ़ तत्त्वदर्शन को भलीभाँति जानना चाहिए। उच्चस्तरीय साधना-सोपानों को तुरंत पाने का प्रयास करने वालों को इस एक तथ्य को समझ लेना बहुत अनिवार्य है कि अंतःकरण का परिष्कार— वृत्तियों का शोधन ही समस्त सिद्धियों का राजमार्ग है।