Magazine - Year 1982 - Version 2
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Language: HINDI
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आत्मसाक्षात्कार की द्विविध तपश्चर्या
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मुक्तिपथ एवं योगसाधन पर बड़ा ही विचारोत्तेजक एवं मार्गदर्शक विवेचन शास्त्रों में किया गया है। महर्षि याज्ञवल्क्य एवं महाराज जनक के मध्य सम्वादों के माध्यम से योगसाधन का अंतिम उपाय वैराग्य और अभ्यास को बताया गया है। जनक के पूछे जाने पर “विज्ञातारमरे केन विजानीयात?” (विधाता को किसके द्वारा जानें), महर्षि उत्तर देते हैं—
“यमेवैष वृणते तेन लभ्य स्तस्यैष आत्मा वृणुते तनूस्वाम्।" अर्थात्— वह तपः शुद्ध चेतना का वरण करके स्वयं ही अपने स्वरूप को प्रकट करता है तथा—
“एतैरुपायैर्यतते यस्तु विद्वास्तस्यैष आत्मा विशते ब्रह्मधाम्।” अर्थात्– उस परम सत्ता से साक्षात्कार उचित उपाय करने से ही संभव होता है। (मुण्डकोपनिषद् 3/2/4) ये उचित उपाय हैं— वैराग्य और अभ्यास। सांसारिक विषयों की क्षणभंगुरता और अस्थायित्व पर चिंतन करके मन को उनमें न रमने देना वैराग्य है। यह विचारपरक है। इंद्रियों का सहज रुझान विषयों की ओर होता है। विषयासक्ति से उन्हें निकालकर आत्मलक्ष्य प्राप्ति में सहयोग करने वाली— जीवनोद्देश्य को सार्थक करने वाली, गतिविधियों में प्रवृत्त करने को अभ्यास कहते हैं। अभ्यास में दुहरी प्रक्रिया अपनानी होती है। एक मानसिक परिशोधन के लिए तप−तितिक्षा की, दूसरी सत्प्रवृत्ति-संवर्द्धन के लिए साधना उपचार की। मानसिक परिशुद्धि के पूर्व, मन के दोषों को जानना आवश्यक है। विषय-सेवन इंद्रियों का सहज स्वभाव है, पर उसमें मनोयोग होने से प्रत्येक विषयानुभूति मन पर एक आशक्तिजनक संस्कार छोड़ती है। विषय-सुख तो क्षणिक होते हैं, पर मन की विशेषता यह है कि जब उसे कोई विषय प्राप्त नहीं होता, तो वह अपने पूर्वानुभव जन्म संस्कार के कारण उसे पाने की लालसा करता है। इसे ही मनीषियों ने राग कहा है। राग अप्राप्त सुख का स्मरण दिलाकर अभाव का दुःख देता है। फिर अनेकों प्रकार के दोषों की श्रृंखला चल पड़ती है। राग से द्वेष और द्वेष से क्रोध की उत्पत्ति होती है। राग से परिग्रह का लोभ पैदा होता है। द्वेष−घृणा, ईर्ष्या और हिंसा की दुर्भावनाएँ जगाता है। फिर छल, कपट, अहंकार, कुटिलता, असहिष्णुता, कृतघ्नता जैसी दुष्प्रवृत्तियों का सिलसिला आरंभ हो जाता है। मन की आसक्ति अंततः पतन का कारण बनती है। इस तथ्य को ध्यान में रखकर मन को आत्मचिंतन में सदा निरत रखने से वैराग्य का भाव जागृत होता है। मन, बुद्धि और अहंकार की संयुक्त भूमिका का नाम ही चित्त है। चित्तशुद्धि के लिए अभ्यास आवश्यक है। मुनि पातंजलि ने योगाभ्यास के आठ अंग बताए हैं—यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। “यम नियमासन प्राणायाम प्रत्याहार धारणाध्यान समाधयोऽष्टावंगानि।” ( पा. यो. सू्. 1/33) अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह ये पाँच प्रकार के निषेध यम कहलाते हैं। नियम के अंतर्गत बाह्याभ्यंतर परिशुद्धि के लिए की जाने वाली सभी क्रियाएँ आती हैं। शरीर की बाह्यस्वच्छता का अपना महत्त्व है, पर इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण है “आंतरिक पवित्रता”। मन की शुद्धि में भोजन का अत्याधिक महत्त्व है। “अन्नमयंहि सोम्य मनः” छांदोग्य उपनिषद्कार के अनुसार अन्न से ही मन भी पुष्ट होता है, यही तथ्य प्रतिपादित है। जैसा भोजन होगा वैसी ही प्रवृत्ति होगी। चित्त की पाँच अवस्थाएं योग ग्रंथों में वर्णित हैं— मूढ़, क्षिप्त, विक्षिप्त, एकाग्र और निरुद्ध। तमसाच्छन्नचित्त मूढ़ता से ग्रस्त होता है। रजसतत्व की प्रधानता में वह क्षिप्त रहता है। सत्वप्रधानचित्त ही सरलता से एकाग्र होकर ध्यान−धारणा और समाधि की उच्चस्तरीय साधनाओं में सहायक होता है। इंद्रियों को उत्तेजित करने वाले खट्टे, मीठे, तीक्ष्ण, राजसी और तामसी भोजन से मन में अस्थिरता और मलीनता बढ़ती है। अस्तु साधना-पथ के साधक के लिए सरस, स्निग्ध, मृदु और नीतिपूर्वक उपार्जित पवित्र आहार का सेवन सर्वश्रेष्ठ माना गया है। सुख−दुःख हर तरह की परिस्थिति में संतुष्ट रहने को संतोष कहते हैं। कुसंस्कारों के परिशोधन एवं सुसंस्कारों के अभिवर्धन के लिए स्वेच्छापूर्वक जो कष्ट उठाया जाता है,वह तप कहलाता है। स्वयं के अध्ययन-विश्लेषण के लिए किया जाने वाला अध्यवसाय स्वाध्याय है। अपने चित्त को श्रद्धापूर्वक परमात्मा के दिव्य–स्वरूप में नियोजित करना ईश्वर प्राणिधान कहलाता है। मेरुदंड को सीधा रखकर शरीर को हलचलों से रहित स्थिति में स्थिर करना आसन है। प्राणों की गति पर इच्छित नियंत्रण-नियमन कर लेना प्राणायाम कहलाता है, जिसके अनेकों भेद−उपभेद हैं। विविध प्रयोजनों के लिए विभिन्न प्रकार के प्राणायाम किए जाते हैं। इंद्रियों को विषयों से खींचकर आत्माभिमुखी प्रवृत्तियों में समाहित कर देना प्रत्याहार है। प्रत्याहार में इंद्रियों सहित मन के साथ जोर−जबरदस्ती करनी पड़ती है। अड़ियल घोड़ा शीघ्रता से काबू में नहीं आता। इंद्रियाँ भी आरंभ में बगावत करती हैं, पर बारंबार उन पर अंकुश रखने पर उनकी विषय लोलुपता समाप्त हो जाती है। यम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार योग के पाँच बहिरंग पक्ष हैं, जो शारीरिक क्रियाओं से संबंधित हैं। धारणा, ध्यान और समाधि वे अंतरंग साधन हैं, जो मन और बुद्धि के भावपरक पुरुषार्थ पर आधारित हैं। निर्धारित समय के लिए किसी स्थानविशेष में चित्त को बाँधने का नाम धारणा है। धारणा के अवलंबन के लिए मन में ईश्वर के किसी स्वरूप की कल्पना करनी पड़ती है। किसी देवता अथवा देवी की मूर्ति, दीपक की ज्योति, उदीयमान सूर्य आदि किसी स्वरूप में मन को स्थिर करना पड़ता है। इसका अगला चरण ध्यान है। जब चित्त पर्याप्त समय तक अपने इष्ट में स्थिर हो जाए तो इसे ‘ध्यान’ कहते हैं। ध्यानाभ्यास करते−करते जब ध्यान के अवलंबन का स्थूल स्वरूप विलीन हो जाता है तथा चित्त मात्र इष्ट के गुण या विशेषता से ओत−प्रोत होकर स्थिर हो जाता है तो उस अवस्था को समाधि कहते हैं। समाधिवस्था में द्रष्टा को अपने भौतिक शरीर का बोध नहीं रहता। साधक और साध्य की सत्ता एक हो जाती है। भौतिक शरीर चैतन्यरहित होते हुए भी आंतरिक चैतन्यता अधिकतम होती है। समाधि की परिपक्वता से चेतना सूक्ष्म से सूक्ष्मतम तत्त्वो का साक्षात्कार करने में समर्थ होती चली जाती है। समाधिवस्था में श्वासोच्छ्वास क्षीण हो जाता है। पर्वतों के उत्तुंग शिखरों पर वायु दाब की न्यूनता के कारण पर्वतारोहियों को श्वास में आॅक्सीजन की मात्रा कम पड़ जाती है जिससे मस्तिष्क की कोशिकाएँ ठीक प्रकार काम नहीं कर पाती; प्रायः भ्रम होने लगता है और साँस लेने में कठिनाई होती है; पर समाधि की स्थिति इससे उल्टी है। मन और प्राण की चंचलता थम जाने से स्वतः समाधि अवस्था में श्वास लेने की आवश्यकता महसूस नही होती। मस्तिष्क को किसी प्रकार कष्ट नहीं होता। शरीर और मन की चंचलता में होने वाले प्राण का अपव्यय रुक जाता है; फलतः मस्तिष्क में प्राण की अधिकता से वह और भी अधिक सक्षम हो जाता है। मन की अवचेतन ग्रंथियाँ खुलने लगती हैं। चित्त में अनेकों जन्मों के संस्कार अंकित एवं संग्रहित रहते हैं, वे समाधिवस्था के अंतःप्रकाश में प्रत्यक्ष साकार होकर समाप्त होते अथवा वांछित दिशा पाते रहते हैं। ‘पातंजलि योग दर्शन’ में समाधि की विभिन्न अवस्थाओं का वर्णन है। जब चित्त किसी एक तत्त्व पर अधिक देर तक स्थिर न रहकर उसके नाम, अर्थ और ज्ञान में संचरित होता है तो उसे सवितर्क समाधि कहा गया है। जब चित्त अधिक शांत होकर मात्र अर्थ में स्थिर हो जाता है तो वह समाधि निर्वितर्क कहलाती है। विचारपूर्वक सूक्ष्मतत्वों पर स्थिरचित्त जब उनके स्वरूप को जान लेता है तो उसे विचारानुगत समाधि की प्रथम अवस्था ‘सविचार’ समाधि कहा गया है। सूक्ष्मतत्त्व का स्वरूप विलीन होकर जब उसके ज्ञान में समाधि होने लगती है तो उसे निर्विचार समाधि कहते हैं। इन अभ्यासों से मन की चंचलता समाप्त हो जाती है और द्रष्टा साधक उसे जिस भी लक्ष्य की ओर नियोजित करता है, वह आज्ञाकारी सेवक के रूप में उधर ही स्थिर हो जाता है। परिष्कृत और निर्मल चेतना प्राण को मनचाही दिशा में प्रवाहित कर सकती है। प्राण पर नियमन एवं नियंत्रण से उसे शरीर के किसी भी अंग में भेजकर अभीष्ट प्रकार का कार्य संपादित कराया जा सकता है। इस प्राणविद्युत से व्यक्तियों एवं वातावरण को भी प्रभावित कर सकना संभव है। बाहर से भी प्राणतत्त्व को खींचकर अपने शरीर में प्रचुर परिमाण में भर सकना प्राण पर नियंत्रण हो जाने पर शक्य हो जाता है। निर्विचार समाधि की परिपक्वता से अंतःकरण शांत, निर्मल और ज्योतिर्मय हो जाता है। ऐसी स्थिति में साधक एक अनिर्वचनीय आनंद की अनुभूति करता है। इसे ही ‘आनंदानुगत’ समाधि करते हैं। जब चित्त की विषयवृत्ति पूर्णतया समाप्त हो जाती तथा मात्र स्वानुभव ही शेष बचता है तो उसे ‘अस्मितानुगत’ समाधि कहा जाता है। ये निर्विचार समाधि की उच्चतर स्थितियाँ हैं, जिन्हें 'सम्प्रज्ञात’ समाधि कहा गया है। ऋतम्भरा प्रज्ञा की यही स्थिति होती है। ऐसी पवित्र प्रज्ञा से अनुप्राणित अंतःकरण में सत्य स्वयं ही अपने शाश्वत स्वरूप में प्रकट होने लगता है। प्रज्ञा के ज्योतिर्मय प्रकाश में अवस्थित होने पर साधक की संपूर्ण सत्ता भी उससे आलोकित हो उठती है। उस ज्योति में एकाग्रता बनी रहने पर संपूर्ण चेतना में प्रकाश फैल जाता है, जो समाधि की दृढ़ता में और भी दिव्यतर होता जाता है। उस अलौकिक दिव्य प्रकाश में द्रष्टा साधक का पृथक अस्तित्व भी विलीन हो जाता है। तब यह अनुभव होता है कि ज्ञाता ज्ञेय से सर्वथा अभिन्न है। जिसे पाने के लिए असाधारण पुरुषार्थ किया गया वह तो अपनी ही आत्मा है। द्रष्टा और परम ध्येय इष्ट के इस पूर्ण एकाकार होने को ही असम्प्रपात समाधि कहते हैं। चित्त के सच्चित् में पूर्णतः विलीन होने से भवबंधन समाप्त हो जाते हैं। सच्चिदानंद स्वरूप का दिग्दर्शन होता है। यह अनुभव अनिवर्चनीय और वर्णनातीत है। योग-साधना के दो चरण वैराग्य और अभ्यास का अवलंबन लेकर हर साधक आत्मिक-प्रगति का मार्ग प्रशस्त कर सकता है। वैराग्य के लिए मनःस्थिति के अनुरूप चिंतन के आधार क्या हों? अभ्यास किस क्रम से और किस प्रकार आरंभ किया जाए? इसका निश्चय−निर्धारण हर कोई नहीं कर सकता। मरीज स्वयं दवा का निर्धारण करने लगे तो उसे कितने ही संकटों का सामना करना पड़ सकता है। कुशल चिकित्सक का परामर्श उसके लिए आवश्यक है। यह सच है कि साधना-पथ पर पुरुषार्थ साधक को स्वयं करना पड़ता है पर पथप्रदर्शक के मार्गदर्शन के बिना भटकाव की की गुंजाइश अधिक है। अस्तु-साधनामार्ग पर चलने वाले हर जिज्ञासु साधक को संरक्षण— मार्गदर्शक की व्यवस्था भी बनाकर चलना चाहिए। वैराग्य और अभ्यास के विशाल स्वरूप की एक झाँकी मात्र कराई गई है। सोपानों पर चढ़ते−बढ़ते इनके उच्चस्तरीय आयाम भी खोले जाने हैं। इन्हें साधक क्रमशः मार्गदर्शन के रूप में प्राप्त करते रहेंगे।
“यमेवैष वृणते तेन लभ्य स्तस्यैष आत्मा वृणुते तनूस्वाम्।" अर्थात्— वह तपः शुद्ध चेतना का वरण करके स्वयं ही अपने स्वरूप को प्रकट करता है तथा—
“एतैरुपायैर्यतते यस्तु विद्वास्तस्यैष आत्मा विशते ब्रह्मधाम्।” अर्थात्– उस परम सत्ता से साक्षात्कार उचित उपाय करने से ही संभव होता है। (मुण्डकोपनिषद् 3/2/4) ये उचित उपाय हैं— वैराग्य और अभ्यास। सांसारिक विषयों की क्षणभंगुरता और अस्थायित्व पर चिंतन करके मन को उनमें न रमने देना वैराग्य है। यह विचारपरक है। इंद्रियों का सहज रुझान विषयों की ओर होता है। विषयासक्ति से उन्हें निकालकर आत्मलक्ष्य प्राप्ति में सहयोग करने वाली— जीवनोद्देश्य को सार्थक करने वाली, गतिविधियों में प्रवृत्त करने को अभ्यास कहते हैं। अभ्यास में दुहरी प्रक्रिया अपनानी होती है। एक मानसिक परिशोधन के लिए तप−तितिक्षा की, दूसरी सत्प्रवृत्ति-संवर्द्धन के लिए साधना उपचार की। मानसिक परिशुद्धि के पूर्व, मन के दोषों को जानना आवश्यक है। विषय-सेवन इंद्रियों का सहज स्वभाव है, पर उसमें मनोयोग होने से प्रत्येक विषयानुभूति मन पर एक आशक्तिजनक संस्कार छोड़ती है। विषय-सुख तो क्षणिक होते हैं, पर मन की विशेषता यह है कि जब उसे कोई विषय प्राप्त नहीं होता, तो वह अपने पूर्वानुभव जन्म संस्कार के कारण उसे पाने की लालसा करता है। इसे ही मनीषियों ने राग कहा है। राग अप्राप्त सुख का स्मरण दिलाकर अभाव का दुःख देता है। फिर अनेकों प्रकार के दोषों की श्रृंखला चल पड़ती है। राग से द्वेष और द्वेष से क्रोध की उत्पत्ति होती है। राग से परिग्रह का लोभ पैदा होता है। द्वेष−घृणा, ईर्ष्या और हिंसा की दुर्भावनाएँ जगाता है। फिर छल, कपट, अहंकार, कुटिलता, असहिष्णुता, कृतघ्नता जैसी दुष्प्रवृत्तियों का सिलसिला आरंभ हो जाता है। मन की आसक्ति अंततः पतन का कारण बनती है। इस तथ्य को ध्यान में रखकर मन को आत्मचिंतन में सदा निरत रखने से वैराग्य का भाव जागृत होता है। मन, बुद्धि और अहंकार की संयुक्त भूमिका का नाम ही चित्त है। चित्तशुद्धि के लिए अभ्यास आवश्यक है। मुनि पातंजलि ने योगाभ्यास के आठ अंग बताए हैं—यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। “यम नियमासन प्राणायाम प्रत्याहार धारणाध्यान समाधयोऽष्टावंगानि।” ( पा. यो. सू्. 1/33) अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह ये पाँच प्रकार के निषेध यम कहलाते हैं। नियम के अंतर्गत बाह्याभ्यंतर परिशुद्धि के लिए की जाने वाली सभी क्रियाएँ आती हैं। शरीर की बाह्यस्वच्छता का अपना महत्त्व है, पर इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण है “आंतरिक पवित्रता”। मन की शुद्धि में भोजन का अत्याधिक महत्त्व है। “अन्नमयंहि सोम्य मनः” छांदोग्य उपनिषद्कार के अनुसार अन्न से ही मन भी पुष्ट होता है, यही तथ्य प्रतिपादित है। जैसा भोजन होगा वैसी ही प्रवृत्ति होगी। चित्त की पाँच अवस्थाएं योग ग्रंथों में वर्णित हैं— मूढ़, क्षिप्त, विक्षिप्त, एकाग्र और निरुद्ध। तमसाच्छन्नचित्त मूढ़ता से ग्रस्त होता है। रजसतत्व की प्रधानता में वह क्षिप्त रहता है। सत्वप्रधानचित्त ही सरलता से एकाग्र होकर ध्यान−धारणा और समाधि की उच्चस्तरीय साधनाओं में सहायक होता है। इंद्रियों को उत्तेजित करने वाले खट्टे, मीठे, तीक्ष्ण, राजसी और तामसी भोजन से मन में अस्थिरता और मलीनता बढ़ती है। अस्तु साधना-पथ के साधक के लिए सरस, स्निग्ध, मृदु और नीतिपूर्वक उपार्जित पवित्र आहार का सेवन सर्वश्रेष्ठ माना गया है। सुख−दुःख हर तरह की परिस्थिति में संतुष्ट रहने को संतोष कहते हैं। कुसंस्कारों के परिशोधन एवं सुसंस्कारों के अभिवर्धन के लिए स्वेच्छापूर्वक जो कष्ट उठाया जाता है,वह तप कहलाता है। स्वयं के अध्ययन-विश्लेषण के लिए किया जाने वाला अध्यवसाय स्वाध्याय है। अपने चित्त को श्रद्धापूर्वक परमात्मा के दिव्य–स्वरूप में नियोजित करना ईश्वर प्राणिधान कहलाता है। मेरुदंड को सीधा रखकर शरीर को हलचलों से रहित स्थिति में स्थिर करना आसन है। प्राणों की गति पर इच्छित नियंत्रण-नियमन कर लेना प्राणायाम कहलाता है, जिसके अनेकों भेद−उपभेद हैं। विविध प्रयोजनों के लिए विभिन्न प्रकार के प्राणायाम किए जाते हैं। इंद्रियों को विषयों से खींचकर आत्माभिमुखी प्रवृत्तियों में समाहित कर देना प्रत्याहार है। प्रत्याहार में इंद्रियों सहित मन के साथ जोर−जबरदस्ती करनी पड़ती है। अड़ियल घोड़ा शीघ्रता से काबू में नहीं आता। इंद्रियाँ भी आरंभ में बगावत करती हैं, पर बारंबार उन पर अंकुश रखने पर उनकी विषय लोलुपता समाप्त हो जाती है। यम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार योग के पाँच बहिरंग पक्ष हैं, जो शारीरिक क्रियाओं से संबंधित हैं। धारणा, ध्यान और समाधि वे अंतरंग साधन हैं, जो मन और बुद्धि के भावपरक पुरुषार्थ पर आधारित हैं। निर्धारित समय के लिए किसी स्थानविशेष में चित्त को बाँधने का नाम धारणा है। धारणा के अवलंबन के लिए मन में ईश्वर के किसी स्वरूप की कल्पना करनी पड़ती है। किसी देवता अथवा देवी की मूर्ति, दीपक की ज्योति, उदीयमान सूर्य आदि किसी स्वरूप में मन को स्थिर करना पड़ता है। इसका अगला चरण ध्यान है। जब चित्त पर्याप्त समय तक अपने इष्ट में स्थिर हो जाए तो इसे ‘ध्यान’ कहते हैं। ध्यानाभ्यास करते−करते जब ध्यान के अवलंबन का स्थूल स्वरूप विलीन हो जाता है तथा चित्त मात्र इष्ट के गुण या विशेषता से ओत−प्रोत होकर स्थिर हो जाता है तो उस अवस्था को समाधि कहते हैं। समाधिवस्था में द्रष्टा को अपने भौतिक शरीर का बोध नहीं रहता। साधक और साध्य की सत्ता एक हो जाती है। भौतिक शरीर चैतन्यरहित होते हुए भी आंतरिक चैतन्यता अधिकतम होती है। समाधि की परिपक्वता से चेतना सूक्ष्म से सूक्ष्मतम तत्त्वो का साक्षात्कार करने में समर्थ होती चली जाती है। समाधिवस्था में श्वासोच्छ्वास क्षीण हो जाता है। पर्वतों के उत्तुंग शिखरों पर वायु दाब की न्यूनता के कारण पर्वतारोहियों को श्वास में आॅक्सीजन की मात्रा कम पड़ जाती है जिससे मस्तिष्क की कोशिकाएँ ठीक प्रकार काम नहीं कर पाती; प्रायः भ्रम होने लगता है और साँस लेने में कठिनाई होती है; पर समाधि की स्थिति इससे उल्टी है। मन और प्राण की चंचलता थम जाने से स्वतः समाधि अवस्था में श्वास लेने की आवश्यकता महसूस नही होती। मस्तिष्क को किसी प्रकार कष्ट नहीं होता। शरीर और मन की चंचलता में होने वाले प्राण का अपव्यय रुक जाता है; फलतः मस्तिष्क में प्राण की अधिकता से वह और भी अधिक सक्षम हो जाता है। मन की अवचेतन ग्रंथियाँ खुलने लगती हैं। चित्त में अनेकों जन्मों के संस्कार अंकित एवं संग्रहित रहते हैं, वे समाधिवस्था के अंतःप्रकाश में प्रत्यक्ष साकार होकर समाप्त होते अथवा वांछित दिशा पाते रहते हैं। ‘पातंजलि योग दर्शन’ में समाधि की विभिन्न अवस्थाओं का वर्णन है। जब चित्त किसी एक तत्त्व पर अधिक देर तक स्थिर न रहकर उसके नाम, अर्थ और ज्ञान में संचरित होता है तो उसे सवितर्क समाधि कहा गया है। जब चित्त अधिक शांत होकर मात्र अर्थ में स्थिर हो जाता है तो वह समाधि निर्वितर्क कहलाती है। विचारपूर्वक सूक्ष्मतत्वों पर स्थिरचित्त जब उनके स्वरूप को जान लेता है तो उसे विचारानुगत समाधि की प्रथम अवस्था ‘सविचार’ समाधि कहा गया है। सूक्ष्मतत्त्व का स्वरूप विलीन होकर जब उसके ज्ञान में समाधि होने लगती है तो उसे निर्विचार समाधि कहते हैं। इन अभ्यासों से मन की चंचलता समाप्त हो जाती है और द्रष्टा साधक उसे जिस भी लक्ष्य की ओर नियोजित करता है, वह आज्ञाकारी सेवक के रूप में उधर ही स्थिर हो जाता है। परिष्कृत और निर्मल चेतना प्राण को मनचाही दिशा में प्रवाहित कर सकती है। प्राण पर नियमन एवं नियंत्रण से उसे शरीर के किसी भी अंग में भेजकर अभीष्ट प्रकार का कार्य संपादित कराया जा सकता है। इस प्राणविद्युत से व्यक्तियों एवं वातावरण को भी प्रभावित कर सकना संभव है। बाहर से भी प्राणतत्त्व को खींचकर अपने शरीर में प्रचुर परिमाण में भर सकना प्राण पर नियंत्रण हो जाने पर शक्य हो जाता है। निर्विचार समाधि की परिपक्वता से अंतःकरण शांत, निर्मल और ज्योतिर्मय हो जाता है। ऐसी स्थिति में साधक एक अनिर्वचनीय आनंद की अनुभूति करता है। इसे ही ‘आनंदानुगत’ समाधि करते हैं। जब चित्त की विषयवृत्ति पूर्णतया समाप्त हो जाती तथा मात्र स्वानुभव ही शेष बचता है तो उसे ‘अस्मितानुगत’ समाधि कहा जाता है। ये निर्विचार समाधि की उच्चतर स्थितियाँ हैं, जिन्हें 'सम्प्रज्ञात’ समाधि कहा गया है। ऋतम्भरा प्रज्ञा की यही स्थिति होती है। ऐसी पवित्र प्रज्ञा से अनुप्राणित अंतःकरण में सत्य स्वयं ही अपने शाश्वत स्वरूप में प्रकट होने लगता है। प्रज्ञा के ज्योतिर्मय प्रकाश में अवस्थित होने पर साधक की संपूर्ण सत्ता भी उससे आलोकित हो उठती है। उस ज्योति में एकाग्रता बनी रहने पर संपूर्ण चेतना में प्रकाश फैल जाता है, जो समाधि की दृढ़ता में और भी दिव्यतर होता जाता है। उस अलौकिक दिव्य प्रकाश में द्रष्टा साधक का पृथक अस्तित्व भी विलीन हो जाता है। तब यह अनुभव होता है कि ज्ञाता ज्ञेय से सर्वथा अभिन्न है। जिसे पाने के लिए असाधारण पुरुषार्थ किया गया वह तो अपनी ही आत्मा है। द्रष्टा और परम ध्येय इष्ट के इस पूर्ण एकाकार होने को ही असम्प्रपात समाधि कहते हैं। चित्त के सच्चित् में पूर्णतः विलीन होने से भवबंधन समाप्त हो जाते हैं। सच्चिदानंद स्वरूप का दिग्दर्शन होता है। यह अनुभव अनिवर्चनीय और वर्णनातीत है। योग-साधना के दो चरण वैराग्य और अभ्यास का अवलंबन लेकर हर साधक आत्मिक-प्रगति का मार्ग प्रशस्त कर सकता है। वैराग्य के लिए मनःस्थिति के अनुरूप चिंतन के आधार क्या हों? अभ्यास किस क्रम से और किस प्रकार आरंभ किया जाए? इसका निश्चय−निर्धारण हर कोई नहीं कर सकता। मरीज स्वयं दवा का निर्धारण करने लगे तो उसे कितने ही संकटों का सामना करना पड़ सकता है। कुशल चिकित्सक का परामर्श उसके लिए आवश्यक है। यह सच है कि साधना-पथ पर पुरुषार्थ साधक को स्वयं करना पड़ता है पर पथप्रदर्शक के मार्गदर्शन के बिना भटकाव की की गुंजाइश अधिक है। अस्तु-साधनामार्ग पर चलने वाले हर जिज्ञासु साधक को संरक्षण— मार्गदर्शक की व्यवस्था भी बनाकर चलना चाहिए। वैराग्य और अभ्यास के विशाल स्वरूप की एक झाँकी मात्र कराई गई है। सोपानों पर चढ़ते−बढ़ते इनके उच्चस्तरीय आयाम भी खोले जाने हैं। इन्हें साधक क्रमशः मार्गदर्शन के रूप में प्राप्त करते रहेंगे।