Magazine - Year 1982 - Version 2
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Language: HINDI
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समर्पण योग की साधना और प्रतिफल
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साधना-क्षेत्र में समर्पण का असाधारण महत्त्व बताया गया है। अपने पुरुषार्थ के बलबूते तो एक सीमा तक ही आगे बढ़ा जा सकता है। स्वयं के पुरुषार्थ के साथ−साथ बाह्य अनुदान भी आगे बढ़ने के लिए आवश्यक हैं। मनुष्य को कितनी ही ऐसी सुविधाएँ प्राप्त हैं जिनके लिए उसे कोई प्रयत्न नहीं करना पड़ा है। प्रकृति ने उसे मुक्तहस्त से प्रदान किया है। यदि वे अनुकूलताएँ नहीं मिली होतीं तो उसका पुरुषार्थ अपने स्थान पर धरा रह जाता और अपना अस्तित्व भी सुरक्षित रखना कठिन पड़ता। सूर्य का प्रकाश, ताप और प्राण सतत् प्रचुर परिमाण में मिलता रहता है, जिसकी न तो कीमत लगाई जा सकती और न चुकाई जा सकती है। प्राणवायु का उपलब्ध भांडागार मनुष्य की पदार्थ की उपार्जित संपदा नहीं है। पृथ्वी एवं संबद्ध खनिज पदार्थ मनुष्य द्वारा विनिर्मित नहीं हैं। जलरूपी जीवन संपदा का विपुल भंडार मनुष्य ने नहीं जुटाया है। सृष्टा ने अपनी करुणा एवं उदारता का पूरा−पूरा परिचय देकर इन सुविधाओं को प्राणी मात्र के लिए पहले से ही अनुदान के रूप में दे रखा है। यह सब अनुकूलताएँ न मिली होतीं तो जीवन की सुरक्षा न हो पाती।
पुरुषार्थ का अपना महत्त्व है और बाह्य अनुदान का अपना। बाहरी सहयोग न मिले तो प्रगति-पथ पर एक कदम भी आगे बढ़ सकना संभव नहीं होगा। गर्भस्थ शिशु पूर्णतया पराश्रित होता है। माँ के अनुदान न मिले तो वह दम तोड़ देगा। जन्म लेने के बाद भी उसे माता−पिता का अनुग्रह सतत मिलता रहता है।
शारीरिक परिपोषण से लेकर मानसिक, बौद्धिक विकास के लिए अनेकानेक प्रकार के साधन माता−पिता द्वारा जुटाए जाते हैं। समाज उसके शिक्षा आदि की व्यवस्था जुटाता है। सतत दूसरों का सहयोग पाकर ही वह आगे बढ़ता है। उसका पुरुषार्थ अभीष्ट वातावरण पाकर ही फलीभूत होता है। अपने पुरुषार्थ की भूमिका तो लंबे समय बाद आरंभ होती है। प्रारंभ में तो दूसरों के सहयोग से ही जीवन की गाड़ी आगे बढ़ती है।
उपरोक्त अनुदान ऐसे हैं जो लगभग सभी को प्राप्त होते हैं। उन्हें पाकर अपने−अपने पुरुषार्थ के अनुरूप लोग आगे बढ़ते और सफलताएँ प्राप्त करते हैं। भौतिक-क्षेत्र की भाँति आध्यात्मिक-क्षेत्र में प्रगति करने के लिए भी प्रचंड पुरुषार्थ का परिचय देना पड़ता है। आत्मशोधन और आत्मपरिष्कार के लिए तप−तितिक्षा के साधनात्मक शारीरिक एवं मानसिक उपचार करने पड़ते हैं। ये आवश्यक है और उपयोगी भी। आत्मनिर्माण का प्रथम चरण इन्हीं के सहारे पूरा होता है; पर इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण है दैवी अनुग्रह−अनुदान प्राप्त करना। जीवात्मा में सत्चित्आनंदस्वरूप परमात्मा के अवतरण के बिना साधना का— पूर्णता का— लक्ष्य पूरा नहीं होता है। इसके लिए समर्पण योग— भक्तियोग की साधना करनी पड़ती है।
कर्मयोग की साधना से कर्मों में प्रखरता आती है, ज्ञानयोग से चिंतन उत्कृष्ट होता है– तत्त्वदृष्टि विकसित होती है। भक्तियोग से अंतःकरण सुविकसित होता, पवित्र बनता और इस योग्य होता है कि परमात्मसत्ता का वहाँ अवतरण हो सके। जीवात्मा की सामर्थ्य सीमित है, परमात्मा से मिलने पर ही उसमें परिपूर्णता आती है। यह सम्मिलन समर्पण के आधार पर ही संपन्न होता है। कर्म और ज्ञानयोग की साधना में कर्त्तापन का बोध बना रहता है, जिसके कारण आत्मसत्ता और परमात्मासत्ता के बीच एकत्व स्थापित नहीं हो पाता। इस स्थिति के कारण ही अर्जुन का संशय बना हुआ था, जिसका समाधान भगवान् कृष्ण ने गीता के उपदेश में ‘समर्पण योग‘ के रूप में प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा— "हे अर्जुन! मुझमें अपना मन रख, मुझे अपनी बुद्धि सौंप दे, उतने भर से तेरा कल्याण हो जाएगा।”
मय्येवयन आधत्स्वमपि बुद्धि निवेशय।
निवसिष्यति मय्येव अत उर्ध्व न संशय॥
–गीताअर्थात— हे अर्जुन तू अपना मन मेरे में लगा। मेरे में ही बुद्धि को लगा, इसके उपरांत तू मेरे में निवास करेगा। मेरे को ही प्राप्त करेगा। इसमें कुछ संशय नहीं।
समर्पण के, शरणागति के अनेक आमंत्रणों में भगवान इतना ही कहते हैं कि ‘अपनी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं को, अहम् को, ईश्वर को समर्पित कर दे। इसके बाद सच्चे अर्थों में समर्पण का जो लाभ मिलना चाहिए, वह अनेकों प्रकार के अनुग्रह के रूप में भक्त को मिलता है। यहाँ ईश्वर से अभिप्राय किसी अदृश्य व्यक्ति अथवा सूक्ष्मशरीरधारी देवी−देवता के साथ दोस्ती बढ़ा लेने, मनुहार-उपहार के आडंबर रचने से नहीं, आदर्शों के समुच्चय के रूप में विद्यमान विश्वचेतना— समष्टिचेतना के सम्मुख आत्मसमर्पण से है। इस तथ्य को और अधिक समझना हो तो यों कहना कि व्यष्टि का समष्टि में, व्यक्तिवाद का समूहवाद में संकीर्णता का उदारता में, निकृष्टता का उत्कृष्टता में विसर्जन करना है। समर्पण के महत्त्व का प्रतिपादन अध्यात्म−सिद्धांतों में अनेक स्थानों पर अनेक ढंग से किया गया है। गोपियों के साथ कृष्ण के रास रचाने के पीछे यही प्रेरणा है कि सभी प्रवृत्तियाँ आत्मा की पुकार का– वेणुनाद का अनुसरण करें। अर्जुन को भी भगवान कृष्ण ने यही करने के लिए कहा। भक्तियोग के अनेकानेक कृत्य, पूजा, स्तवन, अर्चना में समर्पण की भावना को प्रबल बनाने का ही अभ्यास किया जाता है। भक्तियोग में समर्पण की ही प्रधानता है। वेदांत में अद्वैत के प्रतिपादनों में भक्तियोग का–समर्पण योग का ही समर्थन है—
‘भक्ति’ शब्द अपने लक्ष्य को और भी अधिक स्पष्ट करता है। यह संस्कृत के ‘भज’ धातु से बना है, जिसका अर्थ होता है ‘भज्−सेवायाम्’ अर्थात् सेवा को भजो। सेवा किसकी? ईश्वर की। ईश्वर अर्थात उच्चस्तरीय आदर्शों का समुच्चय। व्यावहारिक भाषा में श्रेष्ठ आदर्शों से लिपटी सघन आत्मीयता को भक्ति कहते हैं। अर्थात भक्ति में समर्पण किन्हीं विशेष आदर्शों के लिए होता है। समर्पण के उपरांत उन्हीं आदर्शों पर चलना और प्रबल पराक्रम करना पड़ता है। जिन विशेषताओं से परमात्मा युक्त है वैसा ही बनना−ढलना पड़ता है। ईश्वर की अपनी स्वयं की कोई इच्छा नहीं है। विश्व-वसुधा का कल्याण ही उसे अभीष्ट होता है। भक्त को भी इन्हीं विशेषताओं से अनुप्राणित होना पड़ता है। संकीर्णता से निकलना और आत्मविस्तार के लिए बढ़ना होता है। संसार के पीड़ा-पतन को देखकर वह द्रवित हो उठता है। यह पीड़ा भावनाओं को उद्वेलित करने तक सीमित नहीं रहती, व्यवहार में परिलक्षित होने लगती है। संव्याप्त सामर्थ्य लगा देता है। आत्मीयता जब व्यापक होती है तो उसी के अनुरूप अनुभूतियाँ भी होती हैं। दूसरों के कष्ट-कठिनाइयाँ अपनी ही जान पड़ती हैं। जितना प्रयत्न−पुरुषार्थ अपने लिए किया जाता है। दूसरों के कष्टों के निवारण के लिए सच्चे भक्त कही अधिक करते देखे जाते हैं। वे उदार होते हैं— करुणा की प्रतिमूर्ति होते हैं। दुःख, दारिद्र्य, पीड़ा-पतन को देखकर उनकी करुणा सहज ही उमड़ पड़ती है। समर्पण के चमत्कारी परिणाम सर्वत्र देखे जा सकते हैं। बीज की सत्ता अत्यंत लघु-नगण्य होती है, पर जब वह अपने आपको तुच्छ घेरे से निकालकर धरती माता की गोद में समर्पित कर देता है तो उसमें से नन्हें−नन्हें अंकुर फूटने लगते हैं। सूर्य किरणें उसे शक्ति देती हैं। पवन उसे दुलारता है, मेघ उसका अभिसिंचन करता है। संपूर्ण प्रकृति उसकी सेवा— उसके विकास के लिए जुट जाती है। बीज नीचे बढ़ता और अपनी जड़ें धरती की गोद में सुदृढ़ कर लेता है। ऊपर उठता है तो एक विशाल वृक्ष के रूप के परिणत होता चला जाता है। ऐसा वृक्ष जिसकी छत्र−छाया में सैकड़ों जीव−जंतुओं को पोषण, पक्षियों को विश्राम मिलता है। अपने संपूर्ण जीवन में वह एक नन्हा-सा बीज करोड़ों बीजों का जनक होने का गौरव प्राप्त करता है। नवजात शिशु की अपनी कुछ भी सामर्थ्य नहीं होती है; पर समर्पण के आधार पर उसे सारी सुविधाएँ प्राप्त हो जाती हैं। माता−पिता स्वयं कष्ट सहकर भी उसके पोषण की व्यवस्था जुटाते। उनका स्नेह−वात्सल्य अनायास ही बच्चे के प्रति उमड़ता रहता है। समर्पण का चमत्कारी प्रतिफल दाम्पत्य जीवन में भी देखा जा सकता है। पति के समक्ष अपना तन, मन और आत्मा सब कुछ समर्पित कर देने वाली पत्नी कुछ खोती नहीं, पाती ही है। वह घर की मालकिन बन जाती है। जो अधिकार और सुविधाएँ पति को प्राप्त हैं उनकी अधिकारिणी बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के वह हो जाती है। उसे स्वामित्व के कानूनी अधिकार भी मिल जाते हैं। अपनी सत्ता को गंगा में विसर्जितकर देने वाले नदी-नाले भी गंगा जैसा ही श्रेय प्राप्त कर लेते और श्रद्धास्पद बनते देखे जाते हैं। मात्र उन्हें समर्पण का साहस भर जुटाना पड़ता है। अमरबेल वृक्ष से लिपट जाती है और वृक्ष की ऊँचाई जितनी ही जा पहुँचती है। ये उदाहरण समर्पण की महिमा का ही प्रतिपादन करते हैं। समर्पण से अभिप्राय विलय−विसर्जन से है। आग के निकट आकर ईंधन भी उसी जैसा बन जाता है। दूध और पानी मिलकर एक जैसे बन जाते हैं। नाला गंगा में मिलकर गंगा का स्वरूप ही नहीं, विशेषताएँ भी प्राप्त कर लेता है। भक्त को भी समर्पण के लिए भगवान जैसा ही बनना पड़ता है। उन्हीं गुणों को अपने व्यक्तित्व में भरना पड़ता है, जो कि परमात्मा में हैं। भक्ति का अर्थ मनुहार-चापलूसी नहीं, प्रखर पराक्रम के लिए अपने को तैयार करना है। अपने गुण, कर्म, स्वभाव को परमात्मा के आदर्शों के अनुरूप बनाना−ढालना पड़ता है। समर्पण ईश्वरभक्ति के नाम पर जहाँ कहीं भी निष्क्रियता दिखाई पड़ रही हो तो समझा जाना चाहिए कि मात्र विडंबना रची जा रही है। भक्ति और भक्त की एक ही कसौटी है कि सदुद्देश्यों के लिए वह शरीर, मन और अंतःकरण से कितना अधिक सक्रिय है। उसकी क्रियाशीलता, मस्तिष्क की विचारणा और अंतःकरण की उदारता परमार्थिक कार्यों में कितना अधिक नियोजित हो रही है। समर्पण भक्त के, निष्ठा की परख है। एक संत ने कहा है कि, "समर्पण का अर्थ है— मन अपना, विचार इष्ट के, हृदय अपना, भावनाएँ इष्ट की।" इस परिभाषा के अनुसार जीव को अपनी अहंता से पूरी तरह अवकाश पा लेना है। शरीर, मन और अंतःकरण पर स्वयं का आधिपत्य होते हुए भी इनकी विशेषताएँ-क्षमताएँ पूरी तरह इष्ट के लिए अर्थात उच्चस्तरीय प्रयोजनों में नियोजित हो जाए। समर्पण के लिए इस भावना को सदा परिपुष्ट करते रहना पड़ता है कि, "मैं पतंगें की तरह हूँ, इष्टदेव दीपक की तरह। अनन्य प्रेम के कारण द्वैतश्रद्धा को समाप्तकर अद्वैत की उपलब्धि के लिए, अपने इष्ट के साथ, प्रियतम के साथ एकात्म होता हूँ। जिस प्रकार पतंगा दीपक पर आत्मसमर्पण करता है, अपनी सत्ता को मिटाकर प्रकाश-पुंज में लीन होता है, उसी प्रकार मैं अपना अस्तित्व इस अहंकार को मिटाकर ब्रह्म में, समष्टिचेतना में विलीन होता हूँ। अपनी अहंता, ममता और द्विधा मिटा देने के कारण मैं आत्मा की परिधि से उठकर परमात्मसत्ता के रूप में विकसित होता हूँ, उसी स्तर की व्यापकता धारण करता हूँ। अपनी समस्त श्रद्धा को मैं प्रभु को समर्पण करता हूँ। वे मुझे अपने में एकाकार कर लेते, अपने समान बना लेते हैं। मेरे अंतः को वे ज्ञान, विवेक, प्रकाश एवं आनंद से भर देते हैं। अपने समान ही रीति−नीति अपनाने की प्रेरणा एवं प्रकाश प्रदान करते हैं।” ईश्वर के प्रति परिपूर्ण समर्पण भक्त को भी उसी जैसा बना देता है। उसके दिव्य अनुग्रहों का अधिकारी भक्त सहज ही बन जाता है। परमात्मा का स्वरूप ‘सत्-चित्आनंद ’ है। भक्त का अंतःकरण भी वैसा ही हो जाता है। भीतर का आनंद सतत बाहर छलकता रहता और सान्निध्य में आने वाले अनेकों व्यक्तियों के अंतःकरण को परितृप्त करता है। ऐसे भक्तों की समीपता प्राप्त करने के लिए कितने ही व्यक्तियों का मन लालायित होता रहता है। उनका व्यक्तित्व स्वयं दूसरों के लिए प्रेरणा−प्रकाश देने का केंद्र बनता है। सदुद्देश्य के सत्प्रेरणाएँ उभारने वाले भक्त स्वयं तो धन्य होते ही हैं, वह समाज धन्य बनता है जहाँ वे पैदा होते हैं।
‘भक्ति’ शब्द अपने लक्ष्य को और भी अधिक स्पष्ट करता है। यह संस्कृत के ‘भज’ धातु से बना है, जिसका अर्थ होता है ‘भज्−सेवायाम्’ अर्थात् सेवा को भजो। सेवा किसकी? ईश्वर की। ईश्वर अर्थात उच्चस्तरीय आदर्शों का समुच्चय। व्यावहारिक भाषा में श्रेष्ठ आदर्शों से लिपटी सघन आत्मीयता को भक्ति कहते हैं। अर्थात भक्ति में समर्पण किन्हीं विशेष आदर्शों के लिए होता है। समर्पण के उपरांत उन्हीं आदर्शों पर चलना और प्रबल पराक्रम करना पड़ता है। जिन विशेषताओं से परमात्मा युक्त है वैसा ही बनना−ढलना पड़ता है। ईश्वर की अपनी स्वयं की कोई इच्छा नहीं है। विश्व-वसुधा का कल्याण ही उसे अभीष्ट होता है। भक्त को भी इन्हीं विशेषताओं से अनुप्राणित होना पड़ता है। संकीर्णता से निकलना और आत्मविस्तार के लिए बढ़ना होता है। संसार के पीड़ा-पतन को देखकर वह द्रवित हो उठता है। यह पीड़ा भावनाओं को उद्वेलित करने तक सीमित नहीं रहती, व्यवहार में परिलक्षित होने लगती है। संव्याप्त सामर्थ्य लगा देता है। आत्मीयता जब व्यापक होती है तो उसी के अनुरूप अनुभूतियाँ भी होती हैं। दूसरों के कष्ट-कठिनाइयाँ अपनी ही जान पड़ती हैं। जितना प्रयत्न−पुरुषार्थ अपने लिए किया जाता है। दूसरों के कष्टों के निवारण के लिए सच्चे भक्त कही अधिक करते देखे जाते हैं। वे उदार होते हैं— करुणा की प्रतिमूर्ति होते हैं। दुःख, दारिद्र्य, पीड़ा-पतन को देखकर उनकी करुणा सहज ही उमड़ पड़ती है। समर्पण के चमत्कारी परिणाम सर्वत्र देखे जा सकते हैं। बीज की सत्ता अत्यंत लघु-नगण्य होती है, पर जब वह अपने आपको तुच्छ घेरे से निकालकर धरती माता की गोद में समर्पित कर देता है तो उसमें से नन्हें−नन्हें अंकुर फूटने लगते हैं। सूर्य किरणें उसे शक्ति देती हैं। पवन उसे दुलारता है, मेघ उसका अभिसिंचन करता है। संपूर्ण प्रकृति उसकी सेवा— उसके विकास के लिए जुट जाती है। बीज नीचे बढ़ता और अपनी जड़ें धरती की गोद में सुदृढ़ कर लेता है। ऊपर उठता है तो एक विशाल वृक्ष के रूप के परिणत होता चला जाता है। ऐसा वृक्ष जिसकी छत्र−छाया में सैकड़ों जीव−जंतुओं को पोषण, पक्षियों को विश्राम मिलता है। अपने संपूर्ण जीवन में वह एक नन्हा-सा बीज करोड़ों बीजों का जनक होने का गौरव प्राप्त करता है। नवजात शिशु की अपनी कुछ भी सामर्थ्य नहीं होती है; पर समर्पण के आधार पर उसे सारी सुविधाएँ प्राप्त हो जाती हैं। माता−पिता स्वयं कष्ट सहकर भी उसके पोषण की व्यवस्था जुटाते। उनका स्नेह−वात्सल्य अनायास ही बच्चे के प्रति उमड़ता रहता है। समर्पण का चमत्कारी प्रतिफल दाम्पत्य जीवन में भी देखा जा सकता है। पति के समक्ष अपना तन, मन और आत्मा सब कुछ समर्पित कर देने वाली पत्नी कुछ खोती नहीं, पाती ही है। वह घर की मालकिन बन जाती है। जो अधिकार और सुविधाएँ पति को प्राप्त हैं उनकी अधिकारिणी बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के वह हो जाती है। उसे स्वामित्व के कानूनी अधिकार भी मिल जाते हैं। अपनी सत्ता को गंगा में विसर्जितकर देने वाले नदी-नाले भी गंगा जैसा ही श्रेय प्राप्त कर लेते और श्रद्धास्पद बनते देखे जाते हैं। मात्र उन्हें समर्पण का साहस भर जुटाना पड़ता है। अमरबेल वृक्ष से लिपट जाती है और वृक्ष की ऊँचाई जितनी ही जा पहुँचती है। ये उदाहरण समर्पण की महिमा का ही प्रतिपादन करते हैं। समर्पण से अभिप्राय विलय−विसर्जन से है। आग के निकट आकर ईंधन भी उसी जैसा बन जाता है। दूध और पानी मिलकर एक जैसे बन जाते हैं। नाला गंगा में मिलकर गंगा का स्वरूप ही नहीं, विशेषताएँ भी प्राप्त कर लेता है। भक्त को भी समर्पण के लिए भगवान जैसा ही बनना पड़ता है। उन्हीं गुणों को अपने व्यक्तित्व में भरना पड़ता है, जो कि परमात्मा में हैं। भक्ति का अर्थ मनुहार-चापलूसी नहीं, प्रखर पराक्रम के लिए अपने को तैयार करना है। अपने गुण, कर्म, स्वभाव को परमात्मा के आदर्शों के अनुरूप बनाना−ढालना पड़ता है। समर्पण ईश्वरभक्ति के नाम पर जहाँ कहीं भी निष्क्रियता दिखाई पड़ रही हो तो समझा जाना चाहिए कि मात्र विडंबना रची जा रही है। भक्ति और भक्त की एक ही कसौटी है कि सदुद्देश्यों के लिए वह शरीर, मन और अंतःकरण से कितना अधिक सक्रिय है। उसकी क्रियाशीलता, मस्तिष्क की विचारणा और अंतःकरण की उदारता परमार्थिक कार्यों में कितना अधिक नियोजित हो रही है। समर्पण भक्त के, निष्ठा की परख है। एक संत ने कहा है कि, "समर्पण का अर्थ है— मन अपना, विचार इष्ट के, हृदय अपना, भावनाएँ इष्ट की।" इस परिभाषा के अनुसार जीव को अपनी अहंता से पूरी तरह अवकाश पा लेना है। शरीर, मन और अंतःकरण पर स्वयं का आधिपत्य होते हुए भी इनकी विशेषताएँ-क्षमताएँ पूरी तरह इष्ट के लिए अर्थात उच्चस्तरीय प्रयोजनों में नियोजित हो जाए। समर्पण के लिए इस भावना को सदा परिपुष्ट करते रहना पड़ता है कि, "मैं पतंगें की तरह हूँ, इष्टदेव दीपक की तरह। अनन्य प्रेम के कारण द्वैतश्रद्धा को समाप्तकर अद्वैत की उपलब्धि के लिए, अपने इष्ट के साथ, प्रियतम के साथ एकात्म होता हूँ। जिस प्रकार पतंगा दीपक पर आत्मसमर्पण करता है, अपनी सत्ता को मिटाकर प्रकाश-पुंज में लीन होता है, उसी प्रकार मैं अपना अस्तित्व इस अहंकार को मिटाकर ब्रह्म में, समष्टिचेतना में विलीन होता हूँ। अपनी अहंता, ममता और द्विधा मिटा देने के कारण मैं आत्मा की परिधि से उठकर परमात्मसत्ता के रूप में विकसित होता हूँ, उसी स्तर की व्यापकता धारण करता हूँ। अपनी समस्त श्रद्धा को मैं प्रभु को समर्पण करता हूँ। वे मुझे अपने में एकाकार कर लेते, अपने समान बना लेते हैं। मेरे अंतः को वे ज्ञान, विवेक, प्रकाश एवं आनंद से भर देते हैं। अपने समान ही रीति−नीति अपनाने की प्रेरणा एवं प्रकाश प्रदान करते हैं।” ईश्वर के प्रति परिपूर्ण समर्पण भक्त को भी उसी जैसा बना देता है। उसके दिव्य अनुग्रहों का अधिकारी भक्त सहज ही बन जाता है। परमात्मा का स्वरूप ‘सत्-चित्आनंद ’ है। भक्त का अंतःकरण भी वैसा ही हो जाता है। भीतर का आनंद सतत बाहर छलकता रहता और सान्निध्य में आने वाले अनेकों व्यक्तियों के अंतःकरण को परितृप्त करता है। ऐसे भक्तों की समीपता प्राप्त करने के लिए कितने ही व्यक्तियों का मन लालायित होता रहता है। उनका व्यक्तित्व स्वयं दूसरों के लिए प्रेरणा−प्रकाश देने का केंद्र बनता है। सदुद्देश्य के सत्प्रेरणाएँ उभारने वाले भक्त स्वयं तो धन्य होते ही हैं, वह समाज धन्य बनता है जहाँ वे पैदा होते हैं।