Magazine - Year 1982 - Version 2
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Language: HINDI
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परिष्कृत चेतना में ही दिव्यशक्तियों का अवतरण संभव
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चेतना की परिष्कृत स्थिति उसे कहा जाता है, जहाँ भौतिक तत्त्वों का कम और आत्मिक उत्कृष्टता का अधिकाधिक समावेश होता है। जब भौतिकता ही मन-मस्तिष्क-अंतःकरण पर छाई रहती है तो जीव एक सीमा में पाशबद्ध होता है, जिसे कषाय-कल्मष, भवबंधन, लोभ-मोह, वासना-अहंकार का आवरण कहते हैं। जब अंतरात्मा का स्वार्थ विकसित होकर परमार्थ में बदल जाता है तो इसे ‘स्व’ की सुपर ईगो’ में, चेतन की ‘सुपर चेतन’ में परिणति कहते हैं। योगी इसी मनःस्थिति में रमण करते हैं। वैसी स्थिति में आस्थाएँ वातावरण के संपर्क से नहीं, आदर्शों से प्रभावित होती हैं व अन्यों को भी अनुकरण के लिए प्रेरित करती हैं।
साधना का अर्थ हैं— जन-जन के अंतःकरण पर संकीर्णता— मोह-ममता की परत-दर-परत चढ़े आवरणों को उघाड़ना, चेतना को परिष्कृत करना। ऐसी स्थिति में व्यक्ति पूर्णरूपेण बदल जाता है। वह जैसा भी कुछ बहिरंग में दृष्टिगोचर होता है, उसमें तो नहीं, पर अंदर से वह असामान्य स्तर का महामानव बन जाता है।
जिस दुनिया के संपर्क में मानव सामान्यतया विचरण करता है, वह स्थूल है— बुद्धिगम्य है। इसके भीतर प्रकृति की वह सत्ता है, जो पदार्थ की तरह प्रत्यक्ष नहीं, शक्ति के रूप में विद्यमान है। इंद्रियाँ— यंत्र-उपकरण इसका परिचय हमें देते रहते हैं। इससे आगे सूक्ष्मजगत का अस्तित्व आरंभ होता है, जो इंद्रियगम्य न होने से अतींद्रिय या इंद्रियातीत कहा जाता है। भौतिक उपादानों–स्थूल उपकरणों द्वारा प्रयोगशाला में इसे प्रामाणित नहीं किया जा सकता और न ही बुद्धि उनका कारण समझ पाने में समर्थ हो पाती है। इतने पर भी उस सूक्ष्मजगत का आधार अपने स्थान पर चट्टान की तरह अडिग है। उसका अस्तित्व स्वीकार करने के अतिरिक्त और कोई चार नहीं।
मानवी बुद्धि ने अतींद्रिय कही जाने वाली जिन हलचलों को विचार-संचार, पूर्वाभास, दूरदर्शन, दूरश्रवण, पदार्थ-प्रत्यावर्तन मानकर स्वीकार किया है, वे अविज्ञात सूक्ष्मजगत में ही घटती हैं। जीवन समाप्ति के बाद जीवात्मा का निवास, मरण के समय की अनुभूतियाँ, मरणोत्तर योनियाँ व पुनर्जन्म के विवरणों को स्थूलबुद्धि प्रमाण रूप में देखते हुए सूक्ष्मजगत का अस्तित्व स्वीकार करते ही ‘यथार्थता’ की मोहर लगाती हैं। किन्हीं-किन्हीं व्यक्तियों में विशिष्ट स्तर की अतिमानवी क्षमताएँ पाई जाती हैं। इन्हें चमत्कारी सिद्धियाँ कहा जाता है। शाप-वरदान से लेकर प्राण-प्रहार आदि आश्चर्यजनक क्रियाकलापों को प्रत्यक्षीकृत कर देने की विचित्रताएँ कहाँ से उत्पन्न होती हैं, इसका उत्तर सूक्ष्मजगत की सत्ता का अस्तित्व स्वीकार किए बिना दिया नहीं जा सकता।
दृश्य-स्थूल तथा सूक्ष्म-इंद्रियातीत जगत से भी परे कोई नियामक— नियंत्रक सत्ता होनी चाहिए, यह विचार सहज ही मन में उठता हैं। जब कल-उपकरण मानवी बुद्धि प्रयोग के बिना नहीं चल सकते तो इतना विशाल ब्रह्मांड बिना किसी नियामक सत्ता के कैसे चल सकता है, यह सहज ही समाधान भी निकलता है। यह पूरा समुच्चय जो इंद्रियातीत व उससे भी परे हैं, सूक्ष्म से सूक्ष्मतम है— चेतनजगत का संसार है। अदृश्य जगत की इस समग्र चेतनशक्ति को ‘ब्रह्म’ या ‘ब्राह्मीचेतना’ कह कर पुकारते हैं। जीव-चेतना इस ब्रह्मांडव्यापी महाचेतना का ही एक अंश है। अंश और अंशि, महान और लघु, विभु और अणु के गुण-धर्म समान होते हैं। अंतर विस्तार के अनुरूप क्षमता का होता है। हम सब जीव-चेतनाएँ इस ब्रह्मांडव्यापी महासमुद्र में छोटी-बड़ी मछलियों की तरह जीवनयापन करते हैं।
जो साधक इस महाचेतना से सघन संपर्क स्थापित कर सकने में सफल हो जाते हैं, वे अन्यों से अलग नजर आने लगते हैं। उनके क्रियाकलाप, चिंतन में वे सभी गुण नजर आने लगते हैं। जिनकी अभ्यर्थना ईश-स्तवन में की जाती हैं। ऐसे व्यक्ति अपने अंतरंग को प्रसुप्त— को जगाकर देवशक्तियों का अपने अंदर आह्वान कर सकने में समर्थ हो जाते हैं। किसी-किसी में यह क्षमता जन्मजात पाई जाती है। किन्हीं-किन्हीं बालकों की स्मृति-सूझबूझ ऐसी होती है, जिसे विलक्षण कहा जा सकता हैं। सिद्धियाँ-चमत्कार, दैवी अनुग्रह, मृतात्मा सहयोग मंत्र-साधना के प्रतिफल ऐसे प्रकरण हैं, जिन्हें हम यह कहकर नहीं टाल सकते कि ये अंधविश्वास हैं। योगियों के साथ जुड़ी विभूतियाँ, ईश्वरभक्तों को प्राप्त विशिष्टताएँ मात्र संयोग नहीं हैं; पर यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना उचित होगा कि ये सिद्धियाँ ही सब कुछ नहीं हैं। बिना व्यक्ति के अंतरंग के परिष्कार के, नीतिमत्ता के विकसित हुए, वे आत्मिक विभूतियाँ न रहकर, भौतिक सिद्धियाँ भर रह जाती हैं। उनकी चमत्कृति का आकर्षण स्थूल तक ही सीमित बना रहता है।
यदि यह कहा जाए कि ये सभी इसलिए अप्रामाणिक हैं कि बुद्धि की पकड़ में नहीं आती तो यह भी गलत होगा। किसी तथ्य से इंकार करने का यह कोई सशक्त कारण नहीं हैं। सूक्ष्म तो सूक्ष्म है। उसकी बहिर्अभिव्यक्ति ही अपने आप में एक प्रमाण है। ज्ञात या प्रत्यक्ष न होने पर भी जीव और ब्रह्म के मध्यवर्ती चल रहे आदान-प्रदान को झुठलाया नहीं जा सकता। इनमें अवरोध केवल आत्मा पर चढ़े कषाय-कल्मषों के कारण होता है।
जब भी भौतिक, अंश बढ़ जाता है तो जीव प्रकृतिपरक हो जाता है। उसकी प्रवृत्ति भौतिक आकांक्षाओं और उपलब्धियों तक ही सीमित रह जाती है। यदि जीवसत्ता निर्मल है तो उसकी सूक्ष्मता ब्रह्मतत्त्व से, सूक्ष्मजगत से घनिष्ठ तादात्म्य स्थापित कर सकती है। यह आदान-प्रदान जिसके लिए भी संभव हुआ है, वह स्वयं को देवोपम स्तर का बना सकने में समर्थ हुआ। है। ऐसे लोग सूक्ष्मजगत से अत्यधिक मात्रा में महत्त्वपूर्ण अनुदान हस्तगत कर सकने में सफल हो जाते हैं। इस उपलब्धि के सहारे वे अपने संपर्क क्षेत्र के असंख्यों का तथा समूचे संसार का महत्त्वपूर्ण हित साधन कर पाते हैं।
इस संदर्भ में शास्त्राभिमत है—
वपषः कान्तिरुत्कृष्ठा जठराग्निविवर्धनम्। आरोग्यं च पटुत्वं च सर्वज्ञत्वं च जायते॥ भूतं भव्यं भविष्यच्च वेत्ति सर्वं कारणम्। अश्रुतान्यपि शास्त्राणि सरहस्यं वदेद ध्रुवम्॥ वक्त्रे सरस्वती देवी सदा नृत्यति निर्भरम्। मन्त्र सिद्धिर्भवेत्ततस्य जपादेव न संशयः॥
–शिवसंहिता आत्मसाधना से शरीर में उत्तम कांति उत्पन्न होती है। जठराग्नि बढ़ती है, शरीर निरोग होता है, पटुता और सर्वज्ञता बढ़ती है तथा सब वस्तुओं का ज्ञान प्राप्त होता है। तब भूत, भविष्य और वर्तमानकाल की सब वस्तुओं के कारण का ज्ञान होता है। जो शास्त्र सुने नहीं है उनके रहस्य जानने तथा व्याख्या करने की शक्ति प्राप्त होती हैं। उस योग-साधक की जिह्वा पर सरस्वती नृत्य करती है और मंत्रादि सरलतापूर्वक सिद्ध होते हैं। यथा वा चित्त सामर्थ्य जायतेयोगिनोध्रुवम्।
दूरश्रुतिर्दूरदृष्टिः अणाददूरागमस्तथा॥ Normal 0 false false false EN-US X-NONE HI /* Style Definitions */ table.MsoNormalTable {mso-style-name:"Table Normal"; mso-tstyle-rowband-size:0; mso-tstyle-colband-size:0; mso-style-noshow:yes; mso-style-priority:99; mso-style-qformat:yes; mso-style-parent:""; mso-padding-alt:0in 5.4pt 0in 5.4pt; mso-para-margin-top:0in; mso-para-margin-right:0in; mso-para-margin-bottom:10.0pt; mso-para-margin-left:0in; line-height:115%; mso-pagination:widow-orphan; font-size:11.0pt; mso-bidi-font-size:10.0pt; font-family:"Calibri","sans-serif"; mso-ascii-font-family:Calibri; mso-ascii-theme-font:minor-latin; mso-hansi-font-family:Calibri; mso-hansi-theme-font:minor-latin; mso-bidi-font-family:Mangal; mso-bidi-theme-font:minor-bidi;} वाक् सिद्धि कामरुपत्वमदृश्यकरणी तथा।
–योग तत्वोपनिषद् जैसे-जैसे चित्त की सामर्थ्य बढ़ती है वैसे-वैसे दूर श्रवण, दूरदर्शन, वाक् सिद्धि, वाक् सिद्धि कामनापूर्ति आदि अनेकों दिव्य सिद्धियाँ मिलती चली जाती हैं। योगियों ने बताया है कि आसन से रोग, प्राणायाम से पातक, प्रत्याहार से मनोविकार दूर होते हैं। धारणा से धैर्य, ध्यान से ऐश्वर्य एवं समाधि से कर्म बंधन कटकर मोक्ष प्राप्त होती है। साधना की ये सब उपलब्धियाँ परिष्कृत अंतश्चेतनारूपी स्वच्छ दर्पण पर स्पष्ट दिखाई देती हैं। सब प्रकार से कल्याणकारी पथ अध्यात्म-साधना को सही रूप में समझा, बढ़ाया व अपनाया जा सके तो ये दिव्य अनुदान हर किसी के लिए पा सकना सहज-सुलभ है।
वपषः कान्तिरुत्कृष्ठा जठराग्निविवर्धनम्। आरोग्यं च पटुत्वं च सर्वज्ञत्वं च जायते॥ भूतं भव्यं भविष्यच्च वेत्ति सर्वं कारणम्। अश्रुतान्यपि शास्त्राणि सरहस्यं वदेद ध्रुवम्॥ वक्त्रे सरस्वती देवी सदा नृत्यति निर्भरम्। मन्त्र सिद्धिर्भवेत्ततस्य जपादेव न संशयः॥
–शिवसंहिता आत्मसाधना से शरीर में उत्तम कांति उत्पन्न होती है। जठराग्नि बढ़ती है, शरीर निरोग होता है, पटुता और सर्वज्ञता बढ़ती है तथा सब वस्तुओं का ज्ञान प्राप्त होता है। तब भूत, भविष्य और वर्तमानकाल की सब वस्तुओं के कारण का ज्ञान होता है। जो शास्त्र सुने नहीं है उनके रहस्य जानने तथा व्याख्या करने की शक्ति प्राप्त होती हैं। उस योग-साधक की जिह्वा पर सरस्वती नृत्य करती है और मंत्रादि सरलतापूर्वक सिद्ध होते हैं। यथा वा चित्त सामर्थ्य जायतेयोगिनोध्रुवम्।
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