Magazine - Year 1982 - Version 2
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Language: HINDI
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अंतरंग के परिष्कार की व्यावहारिक साधनाएँ
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‘साधना’ अपने आप में एक बड़ा व्यापक शब्द है। इसका अर्थ हुआ— "आत्मसत्ता के परिष्कार के लिए किए गए अनेकानेक पुरुषार्थ−प्रयास।” अपने को कुमार्ग से हटाकर, भली प्रकार साधकर सही दिशा में मोड़ देना व उस पथ पर तेजी से चल पड़ना, इसी शब्द की विवेचना के अंग हैं। विडंबना यह है कि आज इससे अभिप्राय जप-ध्यान, पूजा−उपचार, विभिन्न यौगिक क्रियाओं इत्यादि तक ही सीमित होकर रह गया है। जबकि ये सभी उच्चस्तरीय प्रयोजन अपने स्थान पर सही होते हुए भी एकांकी हैं— निष्फल हैं, यदि प्रारंभिक पुरुषार्थ, आत्मपर्यवेक्षण एवं आत्मविकास का नहीं हुआ तो। व्यावहारिक जीवन की साधना के बाद ही वे विधि−विधान आरंभ होते हैं, जिनमें सबको सहज कौतूहल रहता है।
अंतरंग तो उपेक्षित पड़ा रहे, वहाँ कभी झाँका भी न जाए तो बहिरंग कैसे सधेगा? जिसने भी बहिरंग में वास्तविक सुख−शांति चाही है, सबसे पहले अपने अंतरंग में प्रवेश किया है। साधनसंपन्न व्यक्तियों के संबंध में यही कहा जाता है कि वे सर्वथा सुखी हैं; पर यदि उन्हें समीप से देखा जाए तो ‘कुंभीपाक’ जैसी नरक योनियों के दृश्य प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होते हैं। शांति के लिए बेचैन व्यक्ति अपने अंदर झाँकने का साहस भी नहीं जुटा पाता। साधना की यहीं पर आवश्यकता है। यह एक तथ्य है कि आंतरिक उत्कृष्टता के अभाव में पाई गई संपदा एक ज्वरग्रस्त रोगी को मिष्ठान भरपेट खिला देने की तरह ही भयावह सिद्ध होती है। उदात्त दृष्टिकोण के अभाव में वैभव का दुरुपयोग होता है तथा व्यसन−अहंकार की पूर्ति में संलग्न व्यक्ति अपना सर्वनाश देखते−देखते कर बैठता है।
‘ब्रह्मविद्या’ का अर्थ यही है कि दृष्टिकोण में दूरदर्शी विवेकशीलता का, आदर्शवादिता का, समन्वय हो, जो चिंतन में, व्यवहार में तथा फिर साधना के क्रिया-क्षेत्र में परिलक्षित हो। व्यक्तिगत संपन्नता साधना की परिणति सुपात्र हैं। व्यक्तित्व का सारा आधार ही दृष्टिकोण है। अंतरंग जैसा भी कुछ है, इसी आधार पर बनता है कि अपने आंतरिक विकास के लिए क्या सोचा गया और उसकी रूपरेखा किस प्रकार बनाई गई।
उस मारे ऊहापोह को तत्त्ववेत्ताओं ने ‘कर्मयोग‘ की संज्ञा दी है, जिसमें व्यक्ति अपने अंतःक्षेत्र के कुसंस्कारों के विरुद्ध विद्रोह खड़ाकर तपश्चर्या की नीति अपनाता है। वह अंतः पर छाए कषाय−कल्मषों की निवृत्ति करता है तथा क्रियाकलापों में आदर्शवादिता का समावेश, ताकि निर्वाह से बचने वाली सामर्थ्य का परमार्थ प्रयोजनों में प्रयोग हो सके।
‘ज्ञानयोग‘ की साधना यह है, जिसमें मस्तिष्कीय गतिविधियों पर, वैचारिक प्रवाहों पर विवेक का अंकुश बिठाया जाता है। चाहे जो कुछ सोचने की छूट नहीं दी जाती। मात्र औचित्य को ही चिंतन का आधार बनाया जाता है। अपने गुण, कर्म, स्वभाव को परिष्कृत करने, अपना चिंतन व्यापक दूरदर्शी बनाने के लिए जिन आधारों की सहायता ली जाती है वे ज्ञानयोग की साधना के अंतर्गत आते हैं। स्वाध्याय, योग, सत्संग, चिंतन−मनन, इसी के अंग हैं।
सद्भावना के रूप में अंतर्जगत में वास करने वाले परमेश्वर की साधना ‘भक्तियोग‘ के अंतर्गत की जाती है। उच्च आदर्शों के प्रति सघननिष्ठा, भक्तिभावना कही जाती है। इसका अर्थ याचना— मनुहार या व्यक्ति−मूर्ति से प्रेम नहीं; अपितु आदर्शों के समुच्चय के रूप में−श्रद्धातत्त्व का स्वरूप लिए विद्यमान निराकार ईश्वर को अपने ही अंतः में ढूँढ़ना, पाना और उसमें अवगाहन करना है। उपासना आदि उपचार इसी के अंतर्गत आते हैं।
कर्मयोग स्थूलशरीर की, ज्ञानयोग सूक्ष्मशरीर की तथा भक्तियोग कारणशरीर की साधना का—परिष्कार का विज्ञान है।
इन्हीं तथ्यों को उपनिषद्कारों ने अपने−अपने ढंग से समझाया है।
नारद परिव्राजकोपनिषद् में स्वयं पितामह ब्रह्मा ने नारदादि की जिज्ञासाओं का समाधान करते हुए कहा है—
इन्द्रियाणां प्रसंगेन दोषमृत्छत्यसंशयः। संनियम्यतुतान्येव ततः सिद्धि निगच्छति॥ न जातु कामः कामानुपभोगेन शाम्यति।
हविषा कृष्णावतर्मेव भूय एकाभिवर्धते॥ 3। 36−37 अर्थात्— इंद्रियों के विषय में आसक्त रहने के कारण अनेक दोषों का प्रादुर्भाव होता है। यदि वे ही इंद्रियाँ भली प्रकार वशीभूत हो जाए तो वह सिद्धिदायिनी होती हैं। भोगों का उपभोग करने से विषयों की कामनाएँ कभी शांत नहीं होतीं, भोग तो घृत द्वारा अग्नि प्रदीप्त होने के समान उनकी वृद्धि की करते हैं। स्थूलशरीर के परिष्कार की–कर्मयोग की साधना की ओर जब साधक आगे बढ़ता है तो उसे इन्हीं व्यवधानों को पार करते हुए आगे बढ़ना होता है। आत्मपरिष्कार की साधना के लिए उसे मन पर ही अंकुश लगाना होता है। चंचल वृत्तियों की ओर प्रवृत्त करने वाला भी वही तो है। उसमें संचित कुसंस्कार प्रदीप ज्वालारूपी अंतरात्मा पर कषाय-कल्मषों की तरह छाए रहते हैं। न वह स्वयं प्रकाशवान हो पाती है, न ही जीवन को प्रकाशवान करने, औरों को प्रखर−प्रेरणा दे सकने योग्य बन पाती है। पहले आत्मपर्यवेक्षणकर, अंतर्मुखी बनकर अपने वर्तमान क्रियाकलापों, भूत व भविष्य का सुनियोजन करना होता है, ताकि अल्पावधि के लिए मिला यह जीवन इंद्रिय उपभोगों में नष्ट न हो जाए। इंद्रियलिप्सा के लिए नहीं, जीवन-धारणा किए रहने के लिए जब आहार−विहार का संतुलित-समन्वित क्रम निर्धारित कर लिया जाता है तो फिर शरीर के व्याधिग्रस्त होने का कोई कारण नहीं रह जाता। स्वस्थ शरीर–सधा शरीर ही साधना का उपयुक्त वाहन बन सकता है, मात्र इंद्रियाँरूपी सारथियों को संभावना पड़ता है। महामानव दुबली−पतली काया के होते हुए भी अंतः से जीवांत बने रहते हैं, यह मात्र कर्मयोग की महत्ता है। जिस भी व्यक्ति ने शरीर को मंदिर माना–लिप्साओं को शत्रुवत माना, उनसे मोर्चा लिया औषधिरूप सात्विक आहार ग्रहण किया और संतुलित श्रम-साधना का निर्धारण किया, उसे अपने इस कर्मयोग का प्रतिफल सुदृढ़ आरोग्य और दीर्घ जीवन के रूप मिलता ही रहेगा। अवांछनीयता की ओर प्रेरित करना, दुष्ट दृष्टिकोण अपनाने के लिए बाध्य करना तो अचेतन में बैठे कुसंस्कारों का ‘कर्त्तव्य’ है। वे अपना काम करते हैं व मानवी अंतःसाहस की परीक्षा लेते हैं। आत्मबलसंपन्न व्यक्ति इन परामर्शों को बलपूर्वक कुचल देते हैं; इसके लिए आवश्यक तप-तितिक्षा शरीरगत एवं मनोगत करके अपने आपको मजबूत बनाते हैं। व्रत, उपवास, अस्वाद, भूशयन, पदयात्रा, मौन, ब्रह्मचर्य, जैसी तितिक्षाएँ इसी प्रयोजन से की जाती हैं कि शरीर अपनी मनमानी न बरते, उच्छृंखल क्रिया−कृत्यों की ओर न बढ़े, औचित्य की मर्यादा में ही रहें। कर्मयोग का उत्तरार्ध है— अपने निर्वाह से बची व निरोध द्वारा संचित सामर्थ्य को सत्प्रयोजनों में नियोजित कर देना। पीड़ा−पतन निवारण में ऐसा व्यक्ति अपने भाव भरे अनुदान प्रस्तुत करता है। इसे चाहे नैतिकी कहा जाए अथवा समाजशास्त्र, धर्मशास्त्र कहा जाए अथवा व्यवहार−विज्ञान। सिद्धांत एक ही है— अपने लक्ष्य को जान−पहचानकर प्रभु समर्पित ब्राह्मण जैसा जीवन जीना और साधु जैसी परमार्थपरायणता का परिचय देकर अपनी सामर्थ्य को सेवा धर्म में लगाना। ज्ञानयोग में अपने अंदर विवेकरूपी ऋषि की प्रतिष्ठापना कराई जाती है। मात्र कर्मयोग ज्ञानयोग के बिना अधूरा है। औचित्य-अनौचित्य का निर्धारण तो अपने क्रियाकलापों को सुनियोजित बनाने के लिए करना ही होगा। चिंतन को अस्त−व्यस्त उड़ान−भटकावों से रोककर एक लक्ष्य निर्धारितकर उस पर विचार तरंगों को केंद्रीभूत करना, यही प्रक्रिया ध्यान में भी अपनी जाती है, जो ज्ञानयोग का ही एक अंग है। शरीरगत क्रियाकलाप तो चर्मचक्षुओं से भी देखे जाते हैं, पर मानसिक हलचलें अदृश्य होती हैं, उन्हें देखने−समझने के लिए सूक्ष्मदृष्टि विकसित करनी होती है। स्थूलतः धर्म−अध्यात्म जैसे विषयों का पठन–उन पर चिंतन-मनन , श्रवण−स्वाध्याय ज्ञानयोग की साधना के अंतर्गत आता है। कथा, सत्संग, प्रवचन इसी उद्देश्य से सुने भी जाते हैं; पर ये तो मात्र निर्देश हैं, दिशा में चलने के संकेत भर हैं, जीवन की दिशा निर्धारित करने के आधार नहीं। मस्तिष्क को वांछित प्रवाह में चलने देने के लिए अवतारों के, ऋषियों के–महामानवों के विचारों व चरित्र का अवलोकन–श्रवण–स्वाध्याय के माध्यम से करके हम अपनी मनःस्थिति को उत्कृष्टतापरायण बना सकते हैं। विचार संस्थान हमेशा परिष्कृत−पवित्र−विधेयात्मक चिंतन से युक्त हो, यही लक्ष्य रहे। अपनी मानसिक हलचलों का सूक्ष्मदृष्टि से अध्ययनकर यह सतत देखा जा सकता है कि अवांछनीय प्रवाह का दमन व दिव्य चिंतन का अनुसरण कितना हो पा रहा है। भक्तियोग कारणशरीर को सुसंस्कृत सुविकसित बनाता है। प्रेम का–भक्ति का प्रकटीकरण सद्भावनाओं–आदर्शों के प्रति प्रगाढ़ प्यार के रूप में प्रकट होता है। साधक सबसे पहले स्वयं इस साधना का लाभ पाता है। 'रसौ वै सः' का सही स्वरूप जान वह अंतः में छिपे यथार्थ-रस का आस्वादन करता है, जिह्वा तथा इंद्रियलिप्सा में नष्ट होने वाले रस उसे नष्ट नहीं कर पाते। आत्मक्षेत्र का पर्यवेक्षणकर उसके अंदर शरीर के प्रति करुणा जागती है, ब्रह्मचर्य के प्रति कठोर रहने की बुद्धि जागृत होती है। ये ही सद्भावनाएँ जब परायों पर आरोपित होती हैं तो सबके प्रति करुणा, सहज ममत्व जाग उठता है और व्यवहार में उतरा यह औदार्य सहकारिता–आत्मविस्तार की वृत्ति के रूप में प्रकट होता है। विचार बाहर से आते हैं, ज्ञान अर्जितकर व शिक्षण−अनुभव से प्रविष्ट होते हैं। भाव भीतर से उठते हैं। वे अंतःकरण के उत्पादन हैं। ज्ञान से बुद्धि तो परिपक्व होती है, पर आंतरिक उत्कृष्टता उभरेगी ही, यह कोई निश्चित नहीं। अपना अंतः तो प्रत्यक्षतः भगवान का मंदिर है। भावों का भांडागार है। यहाँ से निःसृत सद्भावनाएँ साधक के आस−पास ऐसा चुंबकीय-क्षेत्र बनाती हैं कि सद्विचार अपने आप समीप आते चले जाते हैं, एक अभिरुचि के सत्परायण व्यक्ति अपने आप समीप आते हैं व भाव–संवेदनाओं का आदान−प्रदान करते हैं। सद्भावयुक्त अंतःकरण कभी घाटा या प्रत्यक्ष लाभ जैसी बात मस्तिष्क में नहीं आने देता। सारे तर्कों को परे रख कोई अंतः का उल्लास ऐसा उठता है, जो उच्चस्तरीय भाव-संवेदनाओं की भूख बुझाने के लिए त्याग–बलिदान की माँग करता है। वह देश के प्रति भी हो सकता है, समाज के प्रति भी, कर्त्तव्यों–आदर्शों−महामानवों के प्रति भी। होता वह अंततः भगवान के लिए ही है। भक्तियोग सतत-सघन-निष्ठा, भक्तिभावना, आत्मिक आकांक्षाओं में मग्न रहता है। वह गुण, कर्म, स्वभाव की उत्कृष्टता को सबसे बड़ी संपदा–बड़प्पन मानता है। ऐसी आत्माएँ ही देवदूत कहलाती हैं, असंख्यों प्राणियों का उद्धार स्वयं के साथ कर सकने में समर्थ होती हैं। संयम शरीर में बैठा भगवान है तथा सद्विचार मस्तिष्क में विराजमान परमेश्वर। पहली स्थूलशरीर की परिष्कृति से प्राप्त कर्मयोग की उपलब्धि है। सद्विचार सूक्ष्मशरीर की उपलब्धि हैं, जो ज्ञानयोग द्वारा संपादितकर अर्जित की जाती हैं। सद्भाव कारणशरीर के परिष्कार की फलश्रुति है, जो प्रत्यक्षतः ईश्वर— परम पिता के रूप में अंदर बैठे होते हैं। स्थूल, सूक्ष्म, कारणशरीरों का परिष्कार करने के लिए कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग का साधनाक्रम व्यावहारिक जीवन में उतारा जाए, ताकि आत्मिक-प्रगति की दिशा में अग्रसर हुआ जा सके। ‘साधना’ शब्द को भ्रम-जंजाल में न उलझाकर, मानव जन्म रूप में सहज प्राप्त इस अनुदान को न भुलाकर यदि इन तीन शरीरों की ही साधना कर ली जाए तो वह सब कुछ हस्तगत हो सकता है, जिसकी चर्चा सिद्धियों-चमत्कारों के रूप में की जाती है। पथ है तो कठिन, पर इसे पार किए बिना उच्चस्तरीय सोपानों पर पहुँचने वालों के प्रयास निष्फल ही रहेंगे।
इन्द्रियाणां प्रसंगेन दोषमृत्छत्यसंशयः। संनियम्यतुतान्येव ततः सिद्धि निगच्छति॥ न जातु कामः कामानुपभोगेन शाम्यति।
हविषा कृष्णावतर्मेव भूय एकाभिवर्धते॥ 3। 36−37 अर्थात्— इंद्रियों के विषय में आसक्त रहने के कारण अनेक दोषों का प्रादुर्भाव होता है। यदि वे ही इंद्रियाँ भली प्रकार वशीभूत हो जाए तो वह सिद्धिदायिनी होती हैं। भोगों का उपभोग करने से विषयों की कामनाएँ कभी शांत नहीं होतीं, भोग तो घृत द्वारा अग्नि प्रदीप्त होने के समान उनकी वृद्धि की करते हैं। स्थूलशरीर के परिष्कार की–कर्मयोग की साधना की ओर जब साधक आगे बढ़ता है तो उसे इन्हीं व्यवधानों को पार करते हुए आगे बढ़ना होता है। आत्मपरिष्कार की साधना के लिए उसे मन पर ही अंकुश लगाना होता है। चंचल वृत्तियों की ओर प्रवृत्त करने वाला भी वही तो है। उसमें संचित कुसंस्कार प्रदीप ज्वालारूपी अंतरात्मा पर कषाय-कल्मषों की तरह छाए रहते हैं। न वह स्वयं प्रकाशवान हो पाती है, न ही जीवन को प्रकाशवान करने, औरों को प्रखर−प्रेरणा दे सकने योग्य बन पाती है। पहले आत्मपर्यवेक्षणकर, अंतर्मुखी बनकर अपने वर्तमान क्रियाकलापों, भूत व भविष्य का सुनियोजन करना होता है, ताकि अल्पावधि के लिए मिला यह जीवन इंद्रिय उपभोगों में नष्ट न हो जाए। इंद्रियलिप्सा के लिए नहीं, जीवन-धारणा किए रहने के लिए जब आहार−विहार का संतुलित-समन्वित क्रम निर्धारित कर लिया जाता है तो फिर शरीर के व्याधिग्रस्त होने का कोई कारण नहीं रह जाता। स्वस्थ शरीर–सधा शरीर ही साधना का उपयुक्त वाहन बन सकता है, मात्र इंद्रियाँरूपी सारथियों को संभावना पड़ता है। महामानव दुबली−पतली काया के होते हुए भी अंतः से जीवांत बने रहते हैं, यह मात्र कर्मयोग की महत्ता है। जिस भी व्यक्ति ने शरीर को मंदिर माना–लिप्साओं को शत्रुवत माना, उनसे मोर्चा लिया औषधिरूप सात्विक आहार ग्रहण किया और संतुलित श्रम-साधना का निर्धारण किया, उसे अपने इस कर्मयोग का प्रतिफल सुदृढ़ आरोग्य और दीर्घ जीवन के रूप मिलता ही रहेगा। अवांछनीयता की ओर प्रेरित करना, दुष्ट दृष्टिकोण अपनाने के लिए बाध्य करना तो अचेतन में बैठे कुसंस्कारों का ‘कर्त्तव्य’ है। वे अपना काम करते हैं व मानवी अंतःसाहस की परीक्षा लेते हैं। आत्मबलसंपन्न व्यक्ति इन परामर्शों को बलपूर्वक कुचल देते हैं; इसके लिए आवश्यक तप-तितिक्षा शरीरगत एवं मनोगत करके अपने आपको मजबूत बनाते हैं। व्रत, उपवास, अस्वाद, भूशयन, पदयात्रा, मौन, ब्रह्मचर्य, जैसी तितिक्षाएँ इसी प्रयोजन से की जाती हैं कि शरीर अपनी मनमानी न बरते, उच्छृंखल क्रिया−कृत्यों की ओर न बढ़े, औचित्य की मर्यादा में ही रहें। कर्मयोग का उत्तरार्ध है— अपने निर्वाह से बची व निरोध द्वारा संचित सामर्थ्य को सत्प्रयोजनों में नियोजित कर देना। पीड़ा−पतन निवारण में ऐसा व्यक्ति अपने भाव भरे अनुदान प्रस्तुत करता है। इसे चाहे नैतिकी कहा जाए अथवा समाजशास्त्र, धर्मशास्त्र कहा जाए अथवा व्यवहार−विज्ञान। सिद्धांत एक ही है— अपने लक्ष्य को जान−पहचानकर प्रभु समर्पित ब्राह्मण जैसा जीवन जीना और साधु जैसी परमार्थपरायणता का परिचय देकर अपनी सामर्थ्य को सेवा धर्म में लगाना। ज्ञानयोग में अपने अंदर विवेकरूपी ऋषि की प्रतिष्ठापना कराई जाती है। मात्र कर्मयोग ज्ञानयोग के बिना अधूरा है। औचित्य-अनौचित्य का निर्धारण तो अपने क्रियाकलापों को सुनियोजित बनाने के लिए करना ही होगा। चिंतन को अस्त−व्यस्त उड़ान−भटकावों से रोककर एक लक्ष्य निर्धारितकर उस पर विचार तरंगों को केंद्रीभूत करना, यही प्रक्रिया ध्यान में भी अपनी जाती है, जो ज्ञानयोग का ही एक अंग है। शरीरगत क्रियाकलाप तो चर्मचक्षुओं से भी देखे जाते हैं, पर मानसिक हलचलें अदृश्य होती हैं, उन्हें देखने−समझने के लिए सूक्ष्मदृष्टि विकसित करनी होती है। स्थूलतः धर्म−अध्यात्म जैसे विषयों का पठन–उन पर चिंतन-मनन , श्रवण−स्वाध्याय ज्ञानयोग की साधना के अंतर्गत आता है। कथा, सत्संग, प्रवचन इसी उद्देश्य से सुने भी जाते हैं; पर ये तो मात्र निर्देश हैं, दिशा में चलने के संकेत भर हैं, जीवन की दिशा निर्धारित करने के आधार नहीं। मस्तिष्क को वांछित प्रवाह में चलने देने के लिए अवतारों के, ऋषियों के–महामानवों के विचारों व चरित्र का अवलोकन–श्रवण–स्वाध्याय के माध्यम से करके हम अपनी मनःस्थिति को उत्कृष्टतापरायण बना सकते हैं। विचार संस्थान हमेशा परिष्कृत−पवित्र−विधेयात्मक चिंतन से युक्त हो, यही लक्ष्य रहे। अपनी मानसिक हलचलों का सूक्ष्मदृष्टि से अध्ययनकर यह सतत देखा जा सकता है कि अवांछनीय प्रवाह का दमन व दिव्य चिंतन का अनुसरण कितना हो पा रहा है। भक्तियोग कारणशरीर को सुसंस्कृत सुविकसित बनाता है। प्रेम का–भक्ति का प्रकटीकरण सद्भावनाओं–आदर्शों के प्रति प्रगाढ़ प्यार के रूप में प्रकट होता है। साधक सबसे पहले स्वयं इस साधना का लाभ पाता है। 'रसौ वै सः' का सही स्वरूप जान वह अंतः में छिपे यथार्थ-रस का आस्वादन करता है, जिह्वा तथा इंद्रियलिप्सा में नष्ट होने वाले रस उसे नष्ट नहीं कर पाते। आत्मक्षेत्र का पर्यवेक्षणकर उसके अंदर शरीर के प्रति करुणा जागती है, ब्रह्मचर्य के प्रति कठोर रहने की बुद्धि जागृत होती है। ये ही सद्भावनाएँ जब परायों पर आरोपित होती हैं तो सबके प्रति करुणा, सहज ममत्व जाग उठता है और व्यवहार में उतरा यह औदार्य सहकारिता–आत्मविस्तार की वृत्ति के रूप में प्रकट होता है। विचार बाहर से आते हैं, ज्ञान अर्जितकर व शिक्षण−अनुभव से प्रविष्ट होते हैं। भाव भीतर से उठते हैं। वे अंतःकरण के उत्पादन हैं। ज्ञान से बुद्धि तो परिपक्व होती है, पर आंतरिक उत्कृष्टता उभरेगी ही, यह कोई निश्चित नहीं। अपना अंतः तो प्रत्यक्षतः भगवान का मंदिर है। भावों का भांडागार है। यहाँ से निःसृत सद्भावनाएँ साधक के आस−पास ऐसा चुंबकीय-क्षेत्र बनाती हैं कि सद्विचार अपने आप समीप आते चले जाते हैं, एक अभिरुचि के सत्परायण व्यक्ति अपने आप समीप आते हैं व भाव–संवेदनाओं का आदान−प्रदान करते हैं। सद्भावयुक्त अंतःकरण कभी घाटा या प्रत्यक्ष लाभ जैसी बात मस्तिष्क में नहीं आने देता। सारे तर्कों को परे रख कोई अंतः का उल्लास ऐसा उठता है, जो उच्चस्तरीय भाव-संवेदनाओं की भूख बुझाने के लिए त्याग–बलिदान की माँग करता है। वह देश के प्रति भी हो सकता है, समाज के प्रति भी, कर्त्तव्यों–आदर्शों−महामानवों के प्रति भी। होता वह अंततः भगवान के लिए ही है। भक्तियोग सतत-सघन-निष्ठा, भक्तिभावना, आत्मिक आकांक्षाओं में मग्न रहता है। वह गुण, कर्म, स्वभाव की उत्कृष्टता को सबसे बड़ी संपदा–बड़प्पन मानता है। ऐसी आत्माएँ ही देवदूत कहलाती हैं, असंख्यों प्राणियों का उद्धार स्वयं के साथ कर सकने में समर्थ होती हैं। संयम शरीर में बैठा भगवान है तथा सद्विचार मस्तिष्क में विराजमान परमेश्वर। पहली स्थूलशरीर की परिष्कृति से प्राप्त कर्मयोग की उपलब्धि है। सद्विचार सूक्ष्मशरीर की उपलब्धि हैं, जो ज्ञानयोग द्वारा संपादितकर अर्जित की जाती हैं। सद्भाव कारणशरीर के परिष्कार की फलश्रुति है, जो प्रत्यक्षतः ईश्वर— परम पिता के रूप में अंदर बैठे होते हैं। स्थूल, सूक्ष्म, कारणशरीरों का परिष्कार करने के लिए कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग का साधनाक्रम व्यावहारिक जीवन में उतारा जाए, ताकि आत्मिक-प्रगति की दिशा में अग्रसर हुआ जा सके। ‘साधना’ शब्द को भ्रम-जंजाल में न उलझाकर, मानव जन्म रूप में सहज प्राप्त इस अनुदान को न भुलाकर यदि इन तीन शरीरों की ही साधना कर ली जाए तो वह सब कुछ हस्तगत हो सकता है, जिसकी चर्चा सिद्धियों-चमत्कारों के रूप में की जाती है। पथ है तो कठिन, पर इसे पार किए बिना उच्चस्तरीय सोपानों पर पहुँचने वालों के प्रयास निष्फल ही रहेंगे।