Magazine - Year 1982 - Version 2
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Language: HINDI
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चेतना को प्रखर परिष्कृत बनाने वाली विद्या— आत्मिकी
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यह एक स्पष्ट एवं सुनिश्चित तथ्य है कि प्रत्येक सामर्थ्य का ठीक तरह उपयोग आना चाहिए, अन्यथा वह बंदूक की तरह उलटा वार भी करती है और चलाने वाले की ही पसली तोड़ देती है। आग, बिजली, बारूद, जैसी शक्तियों की महिमा सभी जानते हैं, उनसे कितने बड़े−बड़े प्रयोजन सिद्ध होते हैं; किंतु साथ ही यह खतरा भी रहता है कि प्रयोक्ता अनाड़ी या उच्छृंखल हुआ, तो उन्हीं से अपना और संपर्क-क्षेत्र का देखते−देखते विनाश भी कर सकता है। ठीक यही बात ईश्वरप्रदत्त आंतरिक क्षमताओं के संबंध में भी है। चेतना का क्षेत्र पदार्थ-सामग्री से कम नहीं, वरन् अधिक ही है। यदि उसकी प्रयोग विधि मालूम न हो तो समझना चाहिए कि वरदान भी अभिशाप सिद्ध होंगे; हो भी रहे हैं।
दृष्टि पसारकर चारों ओर देखने से कुछ विचित्र प्रकार के नजारे देखने को मिलते हैं। शारीरिक दृष्टि से लोग दिन−दिन दुर्बल और रुग्ण बनते जा रहे हैं; जबकि उनसे कहीं गई−गुजरी स्थिति वाले पशु−पक्षी निरोग जीवन जीते हैं। मानसिक दृष्टि से समुन्नत समझे जाने वाले लोग भी उद्वेग, विक्षोभ, असंतोष, आवेशग्रस्त स्थिति में रहते और अर्धविक्षिप्त सनकी लोगों जैसी जलती−जलाती जिंदगी जीते हैं। जबकि मोर, कबूतरों को नाचते, फुदकते, पेड़ों पर कलरव करते, मोद मनाते देखा जाता है। धरती को स्वर्ग की संरचना कहे जा सकने योग्य मानवी परिवारों के क्लेश-कलह और पतन-पराभव को सड़ी कीचड़ों जैसा देखा जा सकता है। समाज में एकदूसरे को गिराने, ठगने और सताने की प्रक्रिया ही लोकमान्यता प्राप्त करती और चतुरता समझी जाती है। न कहीं स्नेह है न सहयोग। न कहीं सौहार्द्र है न सहयोग। ऐसे ही लोग एकदूसरे के लिए जाला बुनते और मीठी गोली खिलाकर चंगुल में फँसाने की तिकड़में लड़ाते रहते हैं। व्यवहार कुशलता यही तो है। अपव्यय, दुर्व्यसन, प्रदर्शन, आकर्षण के आधार पर लोग मौज उड़ाते और दूसरों पर रौब गाँठते देखे जाते हैं। अनैतिकताओं के छोटे−बड़े प्रचलन इतने अधिक हैं कि लगता है कि नीति-सदाचार की बात केवल कहने-सुनने की विडंबना भर बन गई है। अंधविश्वासों, मूढ़ मान्यताओं, कुरीतियों का अपना दौर है। एकदूसरे के प्रतिघात-प्रतिपात रचते रहने के परिणाम अंततः भयावह ही होते हैं। आक्रमण-प्रत्याक्रमण की प्रतिशोध भरी विनाशलीला का कहीं अंत नहीं। बहुमूल्य सामर्थ्य इसी जंजाल में चुक जाती है और खीजने-खिजाने, रोने-रुलाने के अतिरिक्त किसी के पल्ले और कुछ नहीं पड़ता।
यही है आज की स्थिति, जिसमें समस्याएँ— कठिनाइयाँ, विपत्तियाँ, विभीषिकाएँ चित्र-विचित्र रूप से सामने आती हैं। संपन्नता, शिक्षा, सुविधा की कमी न होते हुए भी परिस्थितियाँ इतनी विकट होती चली जा रही है, जितनी दुर्भिक्ष एवं दुर्घटनाग्रस्त लोगों को भी सहन नहीं करनी पड़तीं। आखिर इस गोरखधंधे जैसी पहेली में उलझन कहाँ हैं, इसका गहराई में उतरकर पता लगाने पर एक ही सूत्र हाथ लगता है कि दृष्टिकोण में निकृष्टता भर जाने से ही सरल-सौम्य जीवन में विकृत विषाक्तता भरी है और उसी ने रस में विष फैलने जैसा संकट खड़ा किया है। एक शब्द में इसे लोकमानस का पतन-पराभव कह सकते हैं। आस्थासंकट के रूप में वही अपनी प्रेत-पिशाच जैसी करतूतें दिखाने में लगा हुआ है। यह स्थिति वैयक्तिक रूप में नारकीय परिस्थितियाँ उत्पन्न करती और अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में महाविनाश व प्रलय संभावना प्रस्तुत करती दीखती है। लगता है चिरसंचित मानवीसत्ता और सभ्यता सामूहिक आत्महत्या की तैयारी में जुट पड़ी हो।
निदान-कारण को जानने पर उपचार— समाधान कठिनाई नहीं होना चाहिए। प्रेरणास्रोत अंतःकरण है। वहाँ से आकांक्षाएँ उठती है। मस्तिष्क को सोचने और शरीर को करने के लिए विवश करती है। इन अंतःप्रेरणाओं— आस्थाओं, विचारणाओं, संवेदनाओं को कुसंस्कारों के दलदल से निकालकर सुसंस्कारी बनाना अध्यात्मतत्त्व दर्शन का ही काम है। उस गहराई तक प्रवेश और किसी का हो ही नहीं सकता। अंतःकरण को प्रभावित करके व्यक्तित्व को उच्चस्तरीय प्रेरणा देने में— निकृष्टता को उत्कृष्टता में ढाल देने में, अध्यात्म विज्ञान द्वारा प्रतिपादित उपाय-उपचारों के अतिरिक्त और कोई मार्ग है नहीं। आज की हेय परिस्थिति वस्तुतः मनःस्थिति की निकृष्टता के साथ जुड़ी हुई है। छेद जहाँ हुआ है, रोकना वहीं पड़ेगा। इस प्रसंग में समर्थ आत्म विज्ञान ही अपना चमत्कार दिखा सकता है। विभीषिकाओं से लदे भविष्य को उज्ज्वल भविष्य में बदलने की सामर्थ्य और किसी में है नहीं। अस्तु समय की माँग एक ही है कि मृतक न सही मूर्छित स्थिति में पड़ी हुई आत्मविद्या को उसके सही स्वरूप में पुनर्जीवित किया जाए।
यहाँ ‘सही स्वरूप’ शब्द को जानबूझकर प्रयुक्त किया जा रहा है; क्योंकि इन दिनों हर क्षेत्र में घुस पड़ी विकृतियों ने अध्यात्म विज्ञान को भी अछूता नहीं छोड़ा है। बाजीगर विज्ञान को भी झाँसा देते हैं और वे अध्यात्म को भी उपहासास्पद बना देते हैं। प्रायः यह बाजीगरी ही अध्यात्म के तत्त्व दर्शन और उपचार-प्रयोगों में बुरी तरह घुस पड़ी हैं। निहित स्वार्थों ने इस महान विज्ञान को क्षत-विक्षत करके इस रूप में बदल दिया है कि उससे भावुक, धर्मभीरु मात्र समय, श्रम और धन की बर्बादी भर करते रहते हैं। सस्ते उपचारों से उच्चस्तरीय लाभ दिलाने के झाँसे देने वाले देवताओं के दलाल ही इन दिनों गुरुजन कहलाते और अंधे द्वारा अंधों का मार्गदर्शन किए जाने का उपहासास्पद प्रयोग खड़ा करते हैं। उस विडंबना से किसी के पल्ले कोई बड़ी उपलब्धि तो क्या पड़ती है, बर्बादी और अश्रद्धा की प्रतिक्रिया ही हाथ लगती है। इस प्रवाह में बहते रहने पर मानवी सत्ता की जीवनधारा का प्राणविद्या— अध्यात्म विद्या के किसी भँवर में समा जाने का खतरा उत्पन्न हो गया है।
मनुष्य जाति ने इतिहास के अनेक अवसरों पर अनेकों हानियाँ उठाई और सहन की हैं; पर आदर्शों के प्रति आस्थावान बनाए रहने वाले ‘अध्यात्म विज्ञान’ के लिए खतरा कभी भी उत्पन्न नहीं हुआ, किंतु आज की स्थिति भिन्न एवं विचित्र हैं। विज्ञान और प्रत्यक्षवाद ने इन दिनों खुले आम अध्यात्मतत्त्व दर्शन को झुठलाया है। उसे अवास्तविक और अनावश्यक ठहराने के लिए ऐसे तर्क-प्रमाण प्रस्तुत किए हैं, जिन्हें देखते हुए चिंतन की प्रखरता न रखने वालों के बहक जाने और अनास्था अपना लेने का पूरा−पूरा खतरा है। अनैतिकता, विलासिता और उच्छृंखलता के समर्थन में और भी कितने ही प्रवाह चल रहे हैं, जो चतुरता और संपन्नता की अभिवृद्धि से भी कहीं अधिक तेजी के साथ भ्रष्ट चिंतन एवं दुष्ट आचरण को उत्तेजना दे रहे हैं। इन परिस्थितियों में आस्था-संकट दिनों- दिन घनीभूत होता चला जा रहा है। यह लक्षण महाविनाश के हैं। उस मार्ग पर चलते हुए यादवी गृहयुद्ध में हम सभी किसी न किसी प्रकार अपना आत्मघात कर बैठेंगे।
यह सामयिक संकट बताता है कि समय रहते उस, साधना विज्ञान को— तत्त्व दर्शन को पुनर्जीवित किया जाए, जो चेतना की गरिमा को समझाने और उसे सदुद्देश्य में निरत करने की विद्या समझा सके। इससे कम में वर्तमान विनाश-विग्रह से बच निकलने का और कोई उपाय है नहीं। बुद्धि, संपदा और सुविधा की अभिवृद्धि के साथ−साथ उनका सदुपयोग करा सकने वाली भाव-चेतना— आत्मविद्या का पुनर्जीवन इन दिनों जितना आवश्यक है, उतना इससे पूर्व कभी भी नहीं रहा। इस दिशा में इन दिनों बरती गई उपेक्षा इतनी आत्मघाती होगी कि इसका सुधार— समाधान फिर कभी हो ही न सकेगा।
यह तो हुई सामयिक विभीषिकाओं के समाधान की बात। स्थायी और दूरगामी महत्त्व की बात यह है कि मानवी प्रगति ने जिस प्रकार भौतिकी में गहराई तक प्रवेश करके अनेकानेक वैज्ञानिक उपलब्धियाँ हस्तगत की हैं, उसी प्रकार यह प्रयास चेतना के क्षेत्र में भी चलने चाहिए। कुछ शताब्दियों पूर्व की तुलना में आज की वैज्ञानिक प्रगति में असाधारण अंतर है। इस क्षेत्र के अन्वेषण ने प्रकृति के अंतराल में प्रवेश करके उसकी सूक्ष्म परतों को कुरेदा तथा इतना कुछ पाया है, जिसकी कुछ दिन पहले तक किसी को कल्पना तक नहीं थी। बिजली, रेडियो, टेलीविजन, रेल, मोटर, वायुयान, पनडुब्बी, अणु विद्युत, हाइड्रोजन बम, मिसाइलें, अंतरिक्ष यान, मृत्युकरण, होलोग्राफी, लेसर जैसी चमत्कारी उपलब्धियों को यदि कुछ शताब्दी पूर्व के कहीं छिपे मनुष्य देख पाए, तो वे आश्चर्यचकित हुए बिना न रहेंगे और उसे किसी देव-दानव की करतूत मानेंगे। प्रकृति को कुरेद डालने वाला मनुष्य जगत का एक प्रकार से अधिपति न सही, अधिष्ठाता तो बनता ही जा रहा है। इन आश्चर्यों के मूल में मनुष्य की वह गरिमा काम करती देखी जा सकती है, जिसे चेतना की प्रखरता कह सकते हैं। वस्तुतः यही वह क्षमता है, जो अन्य प्राणियों की तुलना में अतिरिक्त होने के कारण मनुष्य को सृष्टि का मुकुटमणि और परमेश्वर का युवराज कहाने का सौभाग्य मिला है। अन्य प्राणियों को यह अनुदान उतनी ही मात्रा में मिला है, जिसमें वे अपना निर्वाह सुविधापूर्वक कर सके। मनुष्य को भगवान का अतिरिक्त उपहार यही है। बीजरूप में उसे वह सब कुछ प्राप्त है, जो नियंता के अपने पास है। इस बीज को उगाना मनुष्य का काम है। मानवी चेतना ने प्रकृति को कुरेदा और अनगढ़ पदार्थ को उसने अपने लिए असाधारण रूप से उपयोगी बना लिया। अब इसी प्रयास को दूसरे उच्चस्तरीय प्रयोजन में नियोजित करने की बारी है।
‘भौतिकी’ से असंख्य गुनी सामर्थ्यवान् ‘आत्मिकी’ है। भौतिक विज्ञान के चमत्कारों से सभी परिचित हैं। आत्म विज्ञान के रहस्यों से भी हमें अवगत होना चाहिए। जब जड़ की तुलना में चेतना का सामर्थ्य अधिक है तो भौतिक विज्ञान की तुलना में आत्म विज्ञान की उपलब्धियाँ भी अत्यधिक विस्तृत एवं महत्त्वपूर्ण होनी चाहिए। इस क्षेत्र की सफलताओं की तुलनात्मक दृष्टि से विशिष्टता एवं वरिष्ठता कहीं अधिक ऊँची है। भौतिकी द्वारा मिलने वाली उपलब्धियाँ मात्र शरीर की सुविधा प्रदान करने— इसी स्तर की अनुकूलताएँ उत्पन्न करने भर में काम आती हैं; जबकि आत्मिकी द्वारा उपार्जित विभूतियाँ मनुष्य का अपना स्तर ऊँचा उठाती हैं। कहना न होगा कि यह व्यक्तित्व की गौरव-गरिमा ही मनुष्यों की वरिष्ठता उभारती है। उन्हें महामानव, अतिमानव, लोकनायक, ऋषि, देवता एवं अवतार स्तर तक ऊँचा उठा ले जाती है। संपन्नता तो आतंकवादी-दुष्ट-दुरात्मा भी संचित करने में सफल हो जाते हैं, किंतु महानता की गौरव-गरिमा मात्र उन्हीं को उपलब्ध होती है, जो अपने अंतराल कोे— चरित्र-चिंतन को, उच्चस्तरीय बनाने में सफल होते हैं। इस दिशा में की गई प्रगति ही वास्तविक प्रगति है। उसके सहारे महानता एवं संपन्नता के दोनों ही क्षेत्रों में आशातीत प्रगति हो सकती है।
दृष्टि पसारकर चारों ओर देखने से कुछ विचित्र प्रकार के नजारे देखने को मिलते हैं। शारीरिक दृष्टि से लोग दिन−दिन दुर्बल और रुग्ण बनते जा रहे हैं; जबकि उनसे कहीं गई−गुजरी स्थिति वाले पशु−पक्षी निरोग जीवन जीते हैं। मानसिक दृष्टि से समुन्नत समझे जाने वाले लोग भी उद्वेग, विक्षोभ, असंतोष, आवेशग्रस्त स्थिति में रहते और अर्धविक्षिप्त सनकी लोगों जैसी जलती−जलाती जिंदगी जीते हैं। जबकि मोर, कबूतरों को नाचते, फुदकते, पेड़ों पर कलरव करते, मोद मनाते देखा जाता है। धरती को स्वर्ग की संरचना कहे जा सकने योग्य मानवी परिवारों के क्लेश-कलह और पतन-पराभव को सड़ी कीचड़ों जैसा देखा जा सकता है। समाज में एकदूसरे को गिराने, ठगने और सताने की प्रक्रिया ही लोकमान्यता प्राप्त करती और चतुरता समझी जाती है। न कहीं स्नेह है न सहयोग। न कहीं सौहार्द्र है न सहयोग। ऐसे ही लोग एकदूसरे के लिए जाला बुनते और मीठी गोली खिलाकर चंगुल में फँसाने की तिकड़में लड़ाते रहते हैं। व्यवहार कुशलता यही तो है। अपव्यय, दुर्व्यसन, प्रदर्शन, आकर्षण के आधार पर लोग मौज उड़ाते और दूसरों पर रौब गाँठते देखे जाते हैं। अनैतिकताओं के छोटे−बड़े प्रचलन इतने अधिक हैं कि लगता है कि नीति-सदाचार की बात केवल कहने-सुनने की विडंबना भर बन गई है। अंधविश्वासों, मूढ़ मान्यताओं, कुरीतियों का अपना दौर है। एकदूसरे के प्रतिघात-प्रतिपात रचते रहने के परिणाम अंततः भयावह ही होते हैं। आक्रमण-प्रत्याक्रमण की प्रतिशोध भरी विनाशलीला का कहीं अंत नहीं। बहुमूल्य सामर्थ्य इसी जंजाल में चुक जाती है और खीजने-खिजाने, रोने-रुलाने के अतिरिक्त किसी के पल्ले और कुछ नहीं पड़ता।
यही है आज की स्थिति, जिसमें समस्याएँ— कठिनाइयाँ, विपत्तियाँ, विभीषिकाएँ चित्र-विचित्र रूप से सामने आती हैं। संपन्नता, शिक्षा, सुविधा की कमी न होते हुए भी परिस्थितियाँ इतनी विकट होती चली जा रही है, जितनी दुर्भिक्ष एवं दुर्घटनाग्रस्त लोगों को भी सहन नहीं करनी पड़तीं। आखिर इस गोरखधंधे जैसी पहेली में उलझन कहाँ हैं, इसका गहराई में उतरकर पता लगाने पर एक ही सूत्र हाथ लगता है कि दृष्टिकोण में निकृष्टता भर जाने से ही सरल-सौम्य जीवन में विकृत विषाक्तता भरी है और उसी ने रस में विष फैलने जैसा संकट खड़ा किया है। एक शब्द में इसे लोकमानस का पतन-पराभव कह सकते हैं। आस्थासंकट के रूप में वही अपनी प्रेत-पिशाच जैसी करतूतें दिखाने में लगा हुआ है। यह स्थिति वैयक्तिक रूप में नारकीय परिस्थितियाँ उत्पन्न करती और अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में महाविनाश व प्रलय संभावना प्रस्तुत करती दीखती है। लगता है चिरसंचित मानवीसत्ता और सभ्यता सामूहिक आत्महत्या की तैयारी में जुट पड़ी हो।
निदान-कारण को जानने पर उपचार— समाधान कठिनाई नहीं होना चाहिए। प्रेरणास्रोत अंतःकरण है। वहाँ से आकांक्षाएँ उठती है। मस्तिष्क को सोचने और शरीर को करने के लिए विवश करती है। इन अंतःप्रेरणाओं— आस्थाओं, विचारणाओं, संवेदनाओं को कुसंस्कारों के दलदल से निकालकर सुसंस्कारी बनाना अध्यात्मतत्त्व दर्शन का ही काम है। उस गहराई तक प्रवेश और किसी का हो ही नहीं सकता। अंतःकरण को प्रभावित करके व्यक्तित्व को उच्चस्तरीय प्रेरणा देने में— निकृष्टता को उत्कृष्टता में ढाल देने में, अध्यात्म विज्ञान द्वारा प्रतिपादित उपाय-उपचारों के अतिरिक्त और कोई मार्ग है नहीं। आज की हेय परिस्थिति वस्तुतः मनःस्थिति की निकृष्टता के साथ जुड़ी हुई है। छेद जहाँ हुआ है, रोकना वहीं पड़ेगा। इस प्रसंग में समर्थ आत्म विज्ञान ही अपना चमत्कार दिखा सकता है। विभीषिकाओं से लदे भविष्य को उज्ज्वल भविष्य में बदलने की सामर्थ्य और किसी में है नहीं। अस्तु समय की माँग एक ही है कि मृतक न सही मूर्छित स्थिति में पड़ी हुई आत्मविद्या को उसके सही स्वरूप में पुनर्जीवित किया जाए।
यहाँ ‘सही स्वरूप’ शब्द को जानबूझकर प्रयुक्त किया जा रहा है; क्योंकि इन दिनों हर क्षेत्र में घुस पड़ी विकृतियों ने अध्यात्म विज्ञान को भी अछूता नहीं छोड़ा है। बाजीगर विज्ञान को भी झाँसा देते हैं और वे अध्यात्म को भी उपहासास्पद बना देते हैं। प्रायः यह बाजीगरी ही अध्यात्म के तत्त्व दर्शन और उपचार-प्रयोगों में बुरी तरह घुस पड़ी हैं। निहित स्वार्थों ने इस महान विज्ञान को क्षत-विक्षत करके इस रूप में बदल दिया है कि उससे भावुक, धर्मभीरु मात्र समय, श्रम और धन की बर्बादी भर करते रहते हैं। सस्ते उपचारों से उच्चस्तरीय लाभ दिलाने के झाँसे देने वाले देवताओं के दलाल ही इन दिनों गुरुजन कहलाते और अंधे द्वारा अंधों का मार्गदर्शन किए जाने का उपहासास्पद प्रयोग खड़ा करते हैं। उस विडंबना से किसी के पल्ले कोई बड़ी उपलब्धि तो क्या पड़ती है, बर्बादी और अश्रद्धा की प्रतिक्रिया ही हाथ लगती है। इस प्रवाह में बहते रहने पर मानवी सत्ता की जीवनधारा का प्राणविद्या— अध्यात्म विद्या के किसी भँवर में समा जाने का खतरा उत्पन्न हो गया है।
मनुष्य जाति ने इतिहास के अनेक अवसरों पर अनेकों हानियाँ उठाई और सहन की हैं; पर आदर्शों के प्रति आस्थावान बनाए रहने वाले ‘अध्यात्म विज्ञान’ के लिए खतरा कभी भी उत्पन्न नहीं हुआ, किंतु आज की स्थिति भिन्न एवं विचित्र हैं। विज्ञान और प्रत्यक्षवाद ने इन दिनों खुले आम अध्यात्मतत्त्व दर्शन को झुठलाया है। उसे अवास्तविक और अनावश्यक ठहराने के लिए ऐसे तर्क-प्रमाण प्रस्तुत किए हैं, जिन्हें देखते हुए चिंतन की प्रखरता न रखने वालों के बहक जाने और अनास्था अपना लेने का पूरा−पूरा खतरा है। अनैतिकता, विलासिता और उच्छृंखलता के समर्थन में और भी कितने ही प्रवाह चल रहे हैं, जो चतुरता और संपन्नता की अभिवृद्धि से भी कहीं अधिक तेजी के साथ भ्रष्ट चिंतन एवं दुष्ट आचरण को उत्तेजना दे रहे हैं। इन परिस्थितियों में आस्था-संकट दिनों- दिन घनीभूत होता चला जा रहा है। यह लक्षण महाविनाश के हैं। उस मार्ग पर चलते हुए यादवी गृहयुद्ध में हम सभी किसी न किसी प्रकार अपना आत्मघात कर बैठेंगे।
यह सामयिक संकट बताता है कि समय रहते उस, साधना विज्ञान को— तत्त्व दर्शन को पुनर्जीवित किया जाए, जो चेतना की गरिमा को समझाने और उसे सदुद्देश्य में निरत करने की विद्या समझा सके। इससे कम में वर्तमान विनाश-विग्रह से बच निकलने का और कोई उपाय है नहीं। बुद्धि, संपदा और सुविधा की अभिवृद्धि के साथ−साथ उनका सदुपयोग करा सकने वाली भाव-चेतना— आत्मविद्या का पुनर्जीवन इन दिनों जितना आवश्यक है, उतना इससे पूर्व कभी भी नहीं रहा। इस दिशा में इन दिनों बरती गई उपेक्षा इतनी आत्मघाती होगी कि इसका सुधार— समाधान फिर कभी हो ही न सकेगा।
यह तो हुई सामयिक विभीषिकाओं के समाधान की बात। स्थायी और दूरगामी महत्त्व की बात यह है कि मानवी प्रगति ने जिस प्रकार भौतिकी में गहराई तक प्रवेश करके अनेकानेक वैज्ञानिक उपलब्धियाँ हस्तगत की हैं, उसी प्रकार यह प्रयास चेतना के क्षेत्र में भी चलने चाहिए। कुछ शताब्दियों पूर्व की तुलना में आज की वैज्ञानिक प्रगति में असाधारण अंतर है। इस क्षेत्र के अन्वेषण ने प्रकृति के अंतराल में प्रवेश करके उसकी सूक्ष्म परतों को कुरेदा तथा इतना कुछ पाया है, जिसकी कुछ दिन पहले तक किसी को कल्पना तक नहीं थी। बिजली, रेडियो, टेलीविजन, रेल, मोटर, वायुयान, पनडुब्बी, अणु विद्युत, हाइड्रोजन बम, मिसाइलें, अंतरिक्ष यान, मृत्युकरण, होलोग्राफी, लेसर जैसी चमत्कारी उपलब्धियों को यदि कुछ शताब्दी पूर्व के कहीं छिपे मनुष्य देख पाए, तो वे आश्चर्यचकित हुए बिना न रहेंगे और उसे किसी देव-दानव की करतूत मानेंगे। प्रकृति को कुरेद डालने वाला मनुष्य जगत का एक प्रकार से अधिपति न सही, अधिष्ठाता तो बनता ही जा रहा है। इन आश्चर्यों के मूल में मनुष्य की वह गरिमा काम करती देखी जा सकती है, जिसे चेतना की प्रखरता कह सकते हैं। वस्तुतः यही वह क्षमता है, जो अन्य प्राणियों की तुलना में अतिरिक्त होने के कारण मनुष्य को सृष्टि का मुकुटमणि और परमेश्वर का युवराज कहाने का सौभाग्य मिला है। अन्य प्राणियों को यह अनुदान उतनी ही मात्रा में मिला है, जिसमें वे अपना निर्वाह सुविधापूर्वक कर सके। मनुष्य को भगवान का अतिरिक्त उपहार यही है। बीजरूप में उसे वह सब कुछ प्राप्त है, जो नियंता के अपने पास है। इस बीज को उगाना मनुष्य का काम है। मानवी चेतना ने प्रकृति को कुरेदा और अनगढ़ पदार्थ को उसने अपने लिए असाधारण रूप से उपयोगी बना लिया। अब इसी प्रयास को दूसरे उच्चस्तरीय प्रयोजन में नियोजित करने की बारी है।
‘भौतिकी’ से असंख्य गुनी सामर्थ्यवान् ‘आत्मिकी’ है। भौतिक विज्ञान के चमत्कारों से सभी परिचित हैं। आत्म विज्ञान के रहस्यों से भी हमें अवगत होना चाहिए। जब जड़ की तुलना में चेतना का सामर्थ्य अधिक है तो भौतिक विज्ञान की तुलना में आत्म विज्ञान की उपलब्धियाँ भी अत्यधिक विस्तृत एवं महत्त्वपूर्ण होनी चाहिए। इस क्षेत्र की सफलताओं की तुलनात्मक दृष्टि से विशिष्टता एवं वरिष्ठता कहीं अधिक ऊँची है। भौतिकी द्वारा मिलने वाली उपलब्धियाँ मात्र शरीर की सुविधा प्रदान करने— इसी स्तर की अनुकूलताएँ उत्पन्न करने भर में काम आती हैं; जबकि आत्मिकी द्वारा उपार्जित विभूतियाँ मनुष्य का अपना स्तर ऊँचा उठाती हैं। कहना न होगा कि यह व्यक्तित्व की गौरव-गरिमा ही मनुष्यों की वरिष्ठता उभारती है। उन्हें महामानव, अतिमानव, लोकनायक, ऋषि, देवता एवं अवतार स्तर तक ऊँचा उठा ले जाती है। संपन्नता तो आतंकवादी-दुष्ट-दुरात्मा भी संचित करने में सफल हो जाते हैं, किंतु महानता की गौरव-गरिमा मात्र उन्हीं को उपलब्ध होती है, जो अपने अंतराल कोे— चरित्र-चिंतन को, उच्चस्तरीय बनाने में सफल होते हैं। इस दिशा में की गई प्रगति ही वास्तविक प्रगति है। उसके सहारे महानता एवं संपन्नता के दोनों ही क्षेत्रों में आशातीत प्रगति हो सकती है।