Magazine - Year 1985 - Version 2
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Language: HINDI
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जलयानों की प्रेतात्माएँ
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उन्नीसवीं शताब्दी में ब्रिटेन में विनिर्मित दो कुख्यात जलपोतों को प्रेतात्माओं द्वारा अभिशप्त करने की घटनाओं को नाविकों द्वारा यथार्थ माने जाने के कारण बड़ा महत्व मिला। इनमें “हिनेमोआ” जो कि 2000 टन इस्पात से विनिर्मित किया गया था, ने अपनी प्रथम जलयात्रा सन् 1892 में लन्दन के एक प्राचीन कब्रिस्तान से मिट्टी और मलबे की खेप भरकर आरम्भ की थी। अपनी प्रथम यात्रा की अवधि में ही उसके चार शिक्षार्थी नाविकों की टाइफ़ाइड ज्वर से मृत्यु हो गई। इसके पश्चात् यह क्रम चलता रहा। उसका प्रथम कैप्टन पागल हो गया, दूसरा अपराधी बना, तीसरे को अपने पद से इसलिये च्युत कर दिया गया क्योंकि वह सदैव नशे में धुत रहने लगा था। चौथा कैप्टन अपने केबिन में मृत पाया गया पांचवें ने अपनी जीवन लीला को स्वयं ही अपने आपको गोली मारकर समाप्त कर लिया। छठे कैप्टन के नियन्त्रण में पहुँचने पर यह जलपोत एक दुर्घटना में उलट ही गया। इस दुर्भाग्यशाली जलपोत, हिनेमोआ का अन्त सन् 1908 में एक तूफान में हो गया। कुछ दिनों के बाद जब यह जलपोत बरबाद होकर स्काटलैण्ड के पश्चिमी तट पर बहते हुए पहुँचा तो लोगों ने देखा कि यह पूर्ण रूप से नष्ट−भ्रष्ट हो चुका था। उस पर कुछ भी उपयोगी सामान नहीं बचा था। नाविकों की मान्यता थी कि उसकी प्रथम यात्रा में मिट्टी और मलवे की खेप के साथ−साथ उसमें मानव कपाल एवं अस्थियों का भी समावेश था जिससे प्रेम आत्माओं ने कुपित होकर उस जलपोत को अपनी प्रथम यात्रा में ही अभिशप्त कर दिया था।
“ग्रेट इर्स्टन” नामक एक अन्य जहाज का इसामबर्ड किंगडम ब्रुनेल नामक एक विख्यात ब्रिटिश इंजीनियर द्वारा 1854 में निर्माण आरम्भ किया गया था। यह अपने समय के एक विशालतम जलपोतों में से था किन्तु यह बड़ा ही दुर्भाग्यशाली सिद्ध हुआ। इसका निर्माण एक महान सागरीय आश्चर्य व तैरने वाले एक राज महल के रूप में किया गया था, जिसमें चार हजार व्यक्तियों को पूर्ण सुख−सुविधा, आमोद−प्रमोद सहित सम्पूर्ण विश्व का भ्रमण करवाने की पूर्ण व्यवस्था थी। इसमें छः मस्तूल और पाँच चिमनियाँ धुएं के निकास के लिये लगी थीं, जो कि किसी भी जहाज पर उन दिनों प्रथम बार ही देखी गई थीं।
“ग्रेट् इर्स्टन” में भारी इस्पात की चादरें बड़ी मजबूती से लगाई गई थी। इतना ही नहीं उनमें 3 फीट के अन्तर से दूसरी उतनी ही मजबूत इस्पात की चादर और लगाई गई थी इनको जोड़ने के लिये एक इंच मोटे इस्पात के रिबिटों का प्रयोग किया गया था। दो चादरों के बीच में 16 कंपार्टमेंट बनाये गये जो कि पूर्णतः जलरोधी थे। इसकी रूपरेखा बनाते समय इस बात पर विशेष रूप से बल दिया गया था कि यह जलपोत किसी भी स्थिति में न डूबने पावे और अन्तिम समय तक यह देखा गया कि यह जहाज डूबा नहीं यद्यपि विभिन्न कारणों से यह दुर्भाग्यशाली जहाज नितान्त निकम्मा ही सिद्ध हुआ।
इसके निर्माण में एक इंच मोटे 30 लाख रिबिट हथौड़ों की चोटों के द्वारा लगाये गये थे, जिसके लिये एक हजार दिनों तक 200 रिबिट दस्तों को कार्य करना पड़ा था। इसके निर्माण की अवधि में होने वाली दुर्घटनाओं में एक दर्शक और चार मजदूरों ने प्राण गँवाये। इसके अतिरिक्त एक रिबिट करने वाला और एक एप्रेन्टिस कार्य करते हुए लुप्त हो गये थे। कुछ लोगों का मत था कि वे किसी कम्पार्टमेंट में फँसकर रह गये होंगे और उनकी सहायता के लिये की गई पुकार हथोड़ों की आवाज में डूब गयी होगी।
इसी बीच स्पात को प्लेटों के भाव में वृद्धि होने से आर्थिक कठिनाइयाँ आईं और कुछ दिनों के लिये निर्माण कार्य को स्थगित करना पड़ा। किन्तु ब्रुनेल ने शीघ्र ही और अधिक द्रव्य जुटा लिया। निर्माण का एक चरण पूर्ण होने पर इस महान और सबसे भारी जल पोत को थेम्स नदी के जल तक पहुंचाने के लिए 330 फीट के अंतर को तय करना था जो कि एक बड़ी चुनौती बनकर सामने आया। इस साधारण सी लगने वाली दूरी को तय करने में पूरे तीन महीने का चौंका देने वाला समय लगा। इस विशालतम ढांचे को एक-एक इंच खिसकाने में अनेक प्रकार की बाधाओं का सामना करना पड़ा। अनेक बार जंजीरें टूटती गईं। अनेक नौकाएं डूब गईं व अनेकानेक हाइड्रोलित रेम्स फट गये तब कहीं यह थेम्स नदी के जल में पहुंचा। सन् 1858 की 31 जनवरी को यह महान पोत अपनी यात्रा के योग्य बना तब तक इस पर 100 लाख से अधिक व्यय किया जा चुका था। अब आगे की यात्रा के लिए और धन की आवश्यकता थी अतः डायरेक्टरों के नये बोर्ड का गठन किया गया, जिन्होंने इस जल पोत से लाभ कमाने की बात सोची और उसे भारत और आस्ट्रेलिया की ओर न भेजकर उसे अमेरिका की ओर भेजने का निश्चय किया। अभी तक उसमें केवल पहले दर्जे के केबिन ही बन पाये थे। दूसरे और तीसरे दर्जे के प्रवासियों के लिए निर्माण कार्य को अगले कुछ वर्षों के लिए छोड़ दिया गया। इस महान जलपोत की यात्रा आरंभ होने से एक दिन पूर्व 53 वर्षीय ब्रुनेल उसका अंतिम निरीक्षण करने आया। उसने अपने कुछ विशिष्ट साथियों के साथ फोटो खिंचवाया ही था कि अचानक वह लड़खड़ाया, एक झटका खाया और गिरते ही उसके प्राणांत हो गये। ब्रुनेल की मृत्यु को एक सप्ताह ही बिता था कि एक समाचार मिला कि ग्रेट इस्टर्न की एक चिमनी में भयंकर विस्फोट हो गया है जिसके फलस्वरूप पांच कर्मचारी जलकर और एक कर्मचारी पैडल व्हील में फंस कर मर गये हैं। विस्फोट के कारण उसका दिवानखाना जिसमें चारों ओर आयने जड़े हुए थे व बड़े ही सुंदर ढंग से संवारा गया था, पूरी तरह नष्ट-भ्रष्ट हो चुका था। विस्फोट का कारण था एक भाप बल्ब का असावधानी से बंद की स्थिति में ही रह जाना।
अब इस स्थिति में उसकी मरम्मत अनिवार्यतः होनी थी, जिसमें अपेक्षा से अधिक समय लगा, अतः संयुक्त राज्य अमेरिका की यात्रा को रद्द कर दिया और डायरेक्टरों ने इस कुख्यात से कुछ अर्थलाभ प्राप्त करने के उद्देश्य से उसे वेल्स की एक धार्मिक यात्रा के लिए दर्शनार्थियों को रवाना करने का निश्चय किया। इसी बीच एक जोर की आंधी ने उसकी समस्त बंधन और लंगरों को तोड़कर इस जल पोत को बीच समुद्र में पहुंचा दिया। जहां कि यह 18 घंटे तक तूफान से जूझता रहा जब कि आस-पास के सारे जहाज डूब चुके थे। इसकी सर्वोत्तम बनावट के कारण ही यह डूबने से बच गया, यद्यपि तूफान के कारण उसका दिवानखाना फिर से पूर्णतः क्षतिग्रस्त हो चुका था। इसके तीन माह पश्चात् ग्रेट इस्टर्न कैप्टन, उसके कर्णधार व उनके खजांची का एक 9 वर्षीय पुत्र किनारे पर एक नौका द्वारा जाते हुए डूबकर मर गये।
किसी भी जहाज की प्रारंभिक यात्रा के समय उसके कैप्टन की मृत्यु होना एक बड़ा ही अशुभ चिन्ह माना जाता है। जैसे ही लंदन में यह समाचार पहुंचा ग्रेट इस्टर्न के मैनेजिंग डायरेक्टरों ने अपना इस्तीफा दे दिया। दूसरे बोर्ड का गठन होने पर उन्होंने उसकी यात्रा की तिथि 9 जून 1830 निश्चित की किंतु जो 300 टिकट बेचे जा चुके थे, उनमें से केवल 35 प्रवासी ही शेष बचे थे क्योंकि अन्य यात्री प्रतीक्षा करते-करते थक चुके थे और वे अन्य जहाज से रवाना हो चुके थे। अंत में इन 35 यात्रियों को ही लेकर यह जहाज 16 जून 1860 को अपनी यात्रा पर रवाना हुआ। नये कैप्टन की सहायता के लिए 418 कर्मचारियों का एक बड़ा दल था।
न्यूयार्क पहुंचने पर इस जहाज का भव्य स्वागत किया गया। न्यूयार्क में इस जहाज पर दो दिन के भ्रमण का विज्ञापन किया गया। 2000 टिकट बिके किंतु जहाज पर केवल 300 व्यक्तियों के विश्रामार्थ ही बिस्तर थे। लोगों ने बड़ी परेशानी में रात्रि व्यतीत की। इसी बीज भंडार गृह में एक पाइप के फट जाने से पूरा खाद्यान्न भीगकर बेकार हो गया। खाने योग्य केवल थोड़ा-सा बेक्ड बीफ और सख्त बिस्कुट ही जिन्हें बड़ी ऊँची कीमत पर बेचा गया। भूखे प्यासे जल्दी ही किनारा आने पर उतर जाना चाहते थे किन्तु रात्रि में मल्लाहों की गलती के कारण इस जहाज ने मार्ग छोड़ दिया था और यह 100 मील दूर समुद्र में पहुँच चुका था। जहाज को उचित दिशा में घुमाया गया किंतु यात्रियों को जब किनारा मिला तब वे भूख और प्यास के कारण बुरी तरह थक चुके थे। भ्रमण की एक और यात्रा का प्रयत्न असफल ही रहा। न्यूयार्क वासियों को अब इस विशालकाय जलपोत में कोई रुचि नहीं रह गई थी।
जब यह जलपोत रात्रि में चुपचाप न्यूयार्क से रवाना हुआ तो पर केवल 90 यात्री ही थे। अभी अटलांटिक महासागर को आधा ही पार किया था कि उसकी एक स्क्रू-शाफ्ट निकल गई। मिलफोर्ड ह्वेन में एक छोटी नौका को छूने भर से उसके दो यात्री डूबकर मर गये। आगे चलकर ब्लेन हेम नामक एक जहाज को इसने टक्कर मारकर क्षतिग्रस्त कर दिया।
तीसरे कैप्टन को लाया गया किन्तु बोर्ड द्वारा कर्मीदल के एक तिहाई व्यक्तियों को कम कर देने से उसने अपना पद छोड़ दिया। अब चौथे कैप्टन को लाया गया, जो केवल 100 यात्रियों को लेकर ही रवाना हुआ।
सन् 1861 के सितम्बर में ग्रेट इर्स्टन एक बड़े तूफान में फँस गया, जिसमें किसी अन्य जहाज का बचना दूभर ही होता। इस तूफान के कारण उसके दोनों ओर के पैडल क्षतिग्रस्त हो गये, समस्त बचाव नौकाएँ टूट−टूट कर बह गईं, उसका पतवार टूट गया और उसके स्क्रू को क्षति पहुँचाने लगा। इसकी मरम्मत में 60 हजार पौण्ड का व्यय हुआ। अगले वर्ष जब यह जलपोत लांग आयलैण्ड साउण्ड के पास से यात्रा कर रहा था। एक नुकीली चट्टान से वह टकरा गया जिसने उसके बाह्य आवरण को लंबाई में 83 फीट और चौड़ाई में 9 फीट तक चीर दिया। यात्रा चार्ट में इस चट्टान का कोई उल्लेख नहीं था। इस प्रकार मरम्मत पर 70 हजार पौण्ड व्यय करना पड़ा।
इस दुर्भाग्यशाली जहाज से परेशान होकर डायरेक्टरों ने इसे बेचना उचित समझा और सन् 1864 में यह जहाज केवल 25000 पौण्ड के मूल्य का बिका। अब इस जहाज का उपयोग समुद्र में केबिल बिछाने के लिए किया गया। किन्तु दुर्भाग्य ने उसे वहाँ भी नहीं छोड़ा। जब वे आयरलैण्ड से न्यू फाउण्डलैण्ड की ओर 1186 मील पर पहुँचे ही थे कि केबिल का अन्तिम छोर उनके पास से खिसक कर समुद्र में तीन मील गहरा चला गया। उसकी शोध की गई किन्तु जब कोई उपयोग होता नहीं दिखा तो जहाज को इंग्लैण्ड वापस लौटना पड़ा। सन् 1866 में एक प्रयास और दूसरे जहाज से किया गया जिसके सफल होने पर यूरोप और उत्तरी अमेरिका के बीच प्रथम सन्देश 27 जुलाई को भेज पाना सम्भव हो सका। बाद में सन् 1869 में इस जहाज ने अदन और भारत के बीच केबिल बिछाने में सफलता प्राप्त की।
सन् 1874 में इस जहाज ने केबिल डालने का कार्य पूर्ण किया और इसे मिलफोर्ड ह्वेन में लाकर रखा गया जहाँ कि यह पंद्रह वर्षों तक उसी स्थिति में जंग खाता खड़ा रहा। इसकी कोई उपयोगिता न मानकर इसे उसके दूसरे मालिकों ने सन् 1886 में 20 हजार पौण्ड में बेच दिया। कुछ दिनों तक इस तैरते हुए राजमहल से विज्ञापन प्रसारण का कार्य लिया गया। इस पर विज्ञापन लिखे जाते थे। अन्त में इसे लोहे व अन्य धातुओं के व्यापारी को बेच दिया गया।
इसको तोड़ना भी उतना ही कष्टप्रद सिद्ध हुआ जितना कि उसका निर्माण करना। जब उन दुहरी चादर से निर्मित कम्पार्टमेन्टों को तोड़ा गया, तब उसमें दो मानव हाड़-कंकाल पाये गये। ये दोनों हाड़ कंकाल उस रिबिट करने वाले और उसके एप्रेन्टिस के ही थे जो कि निर्माण के समय लुप्त हो गये थे। अब उन लोगों की शंका का समाधान हो गया था जो कि इस सागरीय आश्चर्य, तैरते हुए राजमहल को प्रेतात्माओं द्वारा शापित होने की बात कहते थे।
प्रस्तुत घटनाक्रम बताते हैं कि कोई भी वस्तु चाहे कितनी ही मूल्यवान क्यों न हो, यदि वे शापग्रस्त हों अथवा निरीहों की आहें इनसे जुड़ी हों, अन्ततः वे हानिकारक ही सिद्ध होती हैं। मिस्र के पिरामिडों से लेकर कोहिनूर के हीरे तक के प्रसंग यही तथ्य प्रामाणित करते हैं।