Magazine - Year 1985 - Version 2
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Language: HINDI
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शक्तिपात और उसका आधार
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सत्संग और कुसंग के भले बुरे परिणामों से सभी अवगत हैं। इसमें कुछ भाग तो कथन परामर्श का भी रहता है और कार्य पद्धति के अवलोकन का भी। किन्तु अधिक प्रभाव व्यक्तित्व का रहता है जो प्रकाश की तरह अपने संपर्क क्षेत्र पर अपनी छाप छोड़ता है। अग्नि के समीप जाने पर उसकी गर्मी एक परिधि तक स्वयमेव पहुँचती है।
इसके लिए यह आवश्यक नहीं कि उसका स्पर्श आवश्यक हो। पुष्पों की सुगंध और कूड़े करकट की सड़न का एक दायरा बन जाता है और उसका प्रभाव सहज ही उन लोगों तक पहुँचता है जो उस परिधि में होते हैं। आग में मिर्च जलाये जाने पर उससे छीकें आने और खाँसी उठने का सिलसिला दूर−दूर तक उठता दिखाई देता है। हर व्यक्ति का अपना एक प्रभाव क्षेत्र होता है और वह बिना कुछ कहे भी एक आदान−प्रदान का क्रम चला देता है। सत्संग और कुसंग का प्रभाव मात्र वातावरण से भी सम्भव है।
मनुष्य के शरीर के चारों ओर एक तेजोवलय होता है उसे यन्त्रों की सहायता से प्रकाश युक्त भाप की तरह देखा जा सकता है। इसके साथ जुड़े रहने से विद्युत कण आगे−आगे उड़ते रहते हैं ओर सामर्थ्य के अनुरूप समीपवर्ती व्यक्तियों पर ही नहीं पदार्थों पर भी छाप छोड़ते हैं इस प्रसंग में निकटता का और भी अधिक महत्व है। कमजोर पक्ष पर समर्थ पक्ष अनायास ही छा जाता है।
बच्चों को जिन बड़े व्यक्तियों के साथ रहने, गोदी में चढ़ने या खेलने का अवसर मिलता है। उनका स्वभाव तदनुरूप ढलना आरम्भ हो जाता है। इसलिये उन्हें यदि सुसंस्कारी बनाना है तो अनुपयुक्त व्यक्तियों के सान्निध्य से यथा सम्भव बचाया ही जाना चाहिए।
यह प्राण ऊर्जा उन पदार्थों में भी घुस पड़ती है जो व्यक्ति विशेष के संपर्क में आते हैं। वस्त्र, छड़ी, कलम माला आदि जो वस्तुएँ अधिक समय तक जिस किसी के साथ रहती हैं उसका प्रभाव ग्रहण कर लेती हैं और फिर जिनके भी पास जाती हैं उन्हें प्रभावित करती हैं।
नारी और नर में यह चुम्बकत्व विशेष रूप से काम करता है। नारी में आकर्षण और पुरुष में विकर्षण स्तर का चुम्बकत्व होता है जो निकटता होने पर अपनी चुम्बकीय ऊर्जा का हस्तान्तरण करने लगता है।
अध्यात्म साधकों को ब्रह्मचर्य की शिक्षा दी जाती है और कहा जाता है कि वे विपरीत लिंग के साथ घनिष्ठता न बनाये। उनसे यथा सम्भव अधिक से अधिक दूरी बनाये रहें। विशेषतया दृष्टि न मिलाये क्योंकि चुम्बकत्व की मात्रा उनके माध्यम में अपना गहरा प्रभाव छोड़ती है। यौनाचार में तो जननेन्द्रियों का ही नहीं प्राण ऊर्जा का भी पारस्परिक घुलन-मिलन और आदान-प्रदान एक सीमा व्यक्तित्वों के स्तर में एक आश्चर्यजनक परिवर्तन करते हैं। इतना ही नहीं बहुधा भ्रूण स्थापित होने और दोनों के संयोग का प्रतिफल एक नये व्यक्ति का जन्म होने तक भी जा पहुँचता है।
व्यभिचार का प्रतिबन्ध आध्यात्मिक दृष्टिकोण से भी किया गया है क्योंकि उसमें नर पक्ष अधिक घाटे में रहता है अपनी प्राण ऊर्जा का एक अंश गँवा बैठता है। साथ ही नारी पक्ष का चुम्बकत्व अनायास ही उससे बहुत कुछ अपहरण करके स्वयं तो लाभान्वित रहता है और अपने बहुत से दोष दुर्गुण नारी पक्ष में छोड़ देता है। ऐसे ही रहस्यमय कारणों से पतिव्रत और पत्नी व्रत मर्यादाओं के अनुशासन पालन पर अंकुश लगाया गया है। विशेषतया आत्मिक प्रगति को लक्ष्य मानकर समर्थ पक्ष अपनी आध्यात्म सम्पदा को हस्तान्तरित करते समय यह विशेष रूप से परखता है कि किन्हीं अपनी बहुमूल्य सम्पदा को किसी कुपात्र के कीचड़ जैसे व्यक्तित्व पर तो नहीं उड़ेला जा रहा है। इसके लिए पात्रता का विशेष रूप से ध्यान रखना पड़ता है। अन्यथा उस उपलब्धि का दुरुपयोग होने पर ग्रहण कर्ता को ही नहीं देने वाले चलने वालों को विशेष रूप में सतर्क किया गया है।
अध्यात्म क्षेत्र में इसी प्रक्रिया का आदान−प्रदान उच्चस्तरीय भूमिका पर गुरु शिष्य के बीच भी होता है। गुरु अपनी संग्रहित प्राण ऊर्जा का एक बड़ा भाग कारण विशेष के निमित्त शिष्य के लिए भी हस्तान्तरित कर सकता है। इस प्रक्रिया को शक्तिपात कहते हैं। इसमें भी संकट उठाना पड़ता है और भस्मासुर जैसी स्थिति बन पड़ती है। विभूति वरदान को पचा न पाने के कारण भस्मासुर तो बेमौत मरा ही। शंकर पार्वती ही नहीं, विष्णु भगवान तक को उस कारण हैरान होना पड़ा।
विवेकानन्द, दयानन्द आदि की निज की साधना उतनी नहीं थी, उन्हें गुरु पक्ष से जो असाध्य अनुदान मिले उनके कारण वे इतना कुछ कर सके जितना एकाकी पुरुषार्थ से कदाचित् वे न कर पाते।
प्राचीन काल के गुरुकुलों की एक विशेषता यह भी थी कि वे अध्ययन करने वाले छात्रों में से सभी की पात्रता परखते रहते थे और उनमें से जो जिस प्रकार की जितनी प्राण ऊर्जा का अनुदान प्राप्त करने का अधिकारी होता था उसे उतना देकर उन्हें निहाल करने में कृपणता नहीं बरतते थे। किन्तु साथ ही यह भी अनुशासन निर्धारित करते थे कि अनुदान का उपभोग लिप्सा, तृष्णा, अहन्ता की पूर्ति जैसे क्षुद्र प्रयोजनों के लिए न किया जाय। उस सामर्थ्य के सहारे कहीं कोई अनीति परक दुष्कर्म न किया जाय। ऐसी दशा में उस अनुदान देने वाले को भी दण्ड भुगतना पड़ता है क्योंकि उसने पात्रता परखे बिना, उपलब्धि का उद्देश्य जाने बिना क्यों देने में उतावली बरती। कोई अपनी बन्दूक किसी अनाड़ी के हाथ सौंप दे और उसे पाकर वह किसी को मौत के घाट उतार दे या धमका कर लूट−पाट करे तो इस अनर्थ में वह व्यक्ति जिसने बंदूक अनुपयुक्त प्रयोग की आशंका का अनुमान लगाये बिना देने वाला व्यक्ति भी अपराधी बनता है और उसे भी आक्रमणकारी की सहायता करने का दण्ड भुगतना पड़ता है। शक्तिपात के संबंध में यह सतर्कता भी रखी जाती है। जिसके पास इस प्रकार का भण्डार है उसे प्रायः प्रकट करने से कतराते हैं ताकि कोई धूर्त चापलूस झूठ-झूठ भक्ति-भाव दिखाकर या झूठे आश्वासन देकर उनकी सज्जनता का अनुचित लाभ न उठा ले।
जहाँ सामर्थ्य के अभाव में कोई उच्चस्तरीय कार्य रुकता है वहाँ उस कार्य को बिगड़ने न देने के लिए बिना माँगे भी महान आत्माएँ अपनी शक्ति का एक बड़ा भाग उन सत्पात्रों को अनायास ही सौंप देते हैं। ऐसा भी होता है कोई महान कार्य कराने के लिए कोई उच्च आत्मा किसी सत्पात्र को आग्रहपूर्वक ही ऐसा अनुदान हस्तान्तरित करे। शिवाजी और चन्द्रगुप्त ने बिना माँगे ही किसी उच्च प्रयोजन के निमित्त ऐसा अनुदान उपलब्ध किया था।
जो लोग शक्तिपात कर सकने की क्षमता का विज्ञापन करते हैं उनमें से कदाचित् ही कोई इस योग्य होता हो। जो कर सकते हैं वे अकारण जहाँ तहाँ चर्चा नहीं करते अन्यथा जेब का पैसा बार-बार दिखाने वाले को कोई जेबकतरा सहज ही चकमा दे सकता है।
जिस प्रकार पिता अपनी सम्पदा का उत्तराधिकार अपनी प्रिय सन्तान को दे जाता है उसी प्रकार आत्म-बल के धनी योगी तपस्वी भी अपने शिष्यों को शक्ति का अनुदान देते हुए आना-कानी वहीं करते।