Magazine - Year 1985 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
आत्मिकी की प्रगति एवं सुनियोजन की आवश्यकता
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
विज्ञान, भौतिक जगत की एक महती शक्ति है। प्रकृति के भण्डार में असीम प्रयोजनों में काम आने वाली अगणित क्षमताएँ भरी पड़ी हैं। उनमें से क्रमशः प्रयत्नपूर्वक मनुष्य के हाथों कितनी ही सामर्थ्यें लगती चली गई हैं। अग्नि का, कृषि, पशु पालन, धातुओं के उपकरण बनाने का पहिये के निर्माण का सिद्धान्त प्रगति के आरम्भिक दिनों में हस्तगत हुआ। तब का मनुष्य इतने भर से भौतिक जीवन में असाधारण सुविधाएँ हस्तगत करता गया। यह लोभ आगे भी संवरण न हो सका। एक के बाद एक खोज करते हुए वह विद्युत ही नहीं अणु शक्ति और लेसर किरणों तक का अधिष्ठाता बन गया। यान्त्रिक वाहन, जलयान, नभयान उसने बनाये और मुद्रण कला जैसे अनेकों सुविधा साधन ढूंढ़ निकाले। जब वह अन्तरिक्ष पर अधिकार जमाने के फेर में है। प्रक्षेपणास्त्र उसके हाथ आ गये हैं अनेकों उपग्रह अन्तरिक्ष में विचरण कर रहे हैं। कल कारखानों के सहारे अनेकों सुविधा साधन बनते चले गये हैं। विज्ञान ने मनुष्य के हाथों असीम सामर्थ्य प्रदान की है। इस आधार पर वह संपन्न भी हुआ है और बुद्धि बल बढ़ाता प्रगति पथ पर निरन्तर आगे बढ़ा है। यह प्रकृति के रहस्यों को खोजते जाने और उसके ज्ञान के सहारे उपयोगी उपकरण बनाते जाने का ही प्रतिफल है।
इन प्रशंसनीय प्रयासों के साथ एक दुर्भाग्य भी पीछा करता आया है कि मारक और घातक उपकरणों का निर्माण भी कम नहीं हुआ और उपार्जित पूँजी का कम अंश उसमें नहीं लगा। इनके द्वारा करोड़ों को जान गँवानी पड़ी और उनके आश्रित बिलखते रह गये। ऐसे महायुद्ध का प्रतिफल यही तो हो सकता था।
विज्ञान ने सुखोपभोग के जहाँ अनेकों साधन प्रदान किये वहाँ मनुष्य को आलसी प्रमादी भी बनाया। नशे को ही लें। उसने अच्छे−खासों को निकम्मा बनाकर रख दिया। यान्त्रिक उत्पादन से अमीरों की अमीरी गरीबों की गरीबी बढ़ाकर दोनों के मध्य खाई चौड़ी कर दी। हर हाथ को काम मिलना सम्भव न रहा। बेकारी−बेरोजगारी के कुचक्र में असंख्यों पिसने लगे। वैज्ञानिक प्रगति में मानवी बुद्धिमता की प्रशंसा तो की जा सकती है, पर उसके द्वारा अपनाये मार्ग को देखते हुए यह भी कहना पड़ता है कि उपलब्धियों का सदुपयोग नहीं हुआ। उससे लाभ थोड़ों को हुआ और हानिकारक दुष्परिणाम असंख्यों को भुगतने पड़े। अभी भी जिस मार्ग पर कदम बढ़ रहे हैं, उन्हें देखते हुए भविष्य और भी अधिक अन्धकारमय दिखता है। स्वसंचालित विशालकाय मशीनें अगणित लोगों को बेरोजगार भूखों मरने के लिए विवश करेंगी। उत्पादन को खपाने के लिए मण्डियों पर अधिकार करने के लिए समर्थों की लिप्सा युद्धोन्माद बढ़ाकर नये−नये युद्ध क्षेत्र रचेंगी। वाहन और कारखाने जो जहरीला धुंआ उगलते रहते हैं, उससे वायु मण्डल विषाक्त हो चला है। कारखानों की गन्दगी, नदी नालों के मारफत समुद्र में पहुँचती है जिससे जल जीवों का ही सफाया नहीं होता, वर्षा भी जहरीली होती है। हवा की तरह पानी भी क्रमशः अधिक जहरीला होता चला जा रहा है। अधिक अन्न उपजाने के लिए रासायनिक खाद और फसल के कीड़े मारने के लिए बनने वाले जहरीले छिड़कावों ने खाद्य−पदार्थों को विषाक्त करना आरम्भ कर दिया है। अणु शक्ति का उपयोग चाहे युद्ध करने के लिए हो या बिजली बनाने के लिए वह हर हालत में विकिरण उत्पन्न करती है। इस प्रकार वैज्ञानिक प्रगति जितनी सुविधाएँ उत्पन्न कर रही है उससे कहीं अधिक जीवन संकट उत्पन्न करने वाले दुष्परिणाम भी खड़े कर रही है। मारक औषधियों ने स्वास्थ्य का संरक्षण कम और भक्षण अधिक किया है।
अच्छा होता, वैज्ञानिकों को पैसे के बल पर मुट्ठी में रखकर उनके द्वारा नई शोधें कराने और नये उपकरण बनवाने वाले सत्ताधीश एवं धनाध्यक्ष अपनी बिरादरी को अधिक समर्थ बनाने की अपेक्षा सर्वसाधारण का हित सोचते और ऐसे निर्माण करते, जिससे देहातों में बिखरे अशिक्षित भारत में छोटे−छोटे उपकरणों के सहारे बहुसंख्यक लोगों को उपयोगी उत्पादन में सुविधा मिलती। इस संदर्भ में मानवता की एक बड़ी चुनौती विज्ञान के सामने है। उसे एक दो हार्स पावर की बिजली से चल सकने वाली कुटीर उद्योगों के यन्त्र बनाने चाहिए। हवा और पानी की शक्ति से चलने वाले सस्ते बिजली घर बनाने चाहिए। जमीन से ऊपर पानी लाने वाले पम्प, छोटे हल, ट्रैक्टर, करघे, लकड़ी चीरने और लोहा गलाने की भट्टियाँ बना सकना कुछ अधिक कठिन नहीं होना चाहिए। वजन ढोने की हल्की गाड़ियाँ, बैलों पर कम वजन डालने वाले जुए, छोटी पवनचक्कियां, जैसे यन्त्र मनुष्यों का—पशुओं का श्रम हलका कर सकते हैं, साथ ही रोजगार भी देते रह सकते हैं। अन्न के बाद मनुष्य की दूसरी आवश्यकता कपड़े की है। इसके लिए रुई बनाने, कातने−बुनने, धोने, रंगने की छोटी−छोटी मशीनें बन सकती हैं और क्षेत्र में बड़े मिलों की प्रतिद्वन्द्विता रोककर लाखों बेरोजगारों को काम दिया जा सकता है। सरकार ही शिक्षा का सारा भार अपने ऊपर उठाए, यह आवश्यक नहीं। निजी विद्यालय चलाने को भी एक स्वतन्त्र व्यवसाय (प्राइवेट सेक्टर) के रूप में छूट दी जा सकती है। इस प्रकार सरकार जनता एवं वैज्ञानिक मिलकर देश के लिए एक ऐसा रचनात्मक तन्त्र खड़ा कर सकते हैं जिसमें स्वल्प पूँजी वाले भी अपने लिए तथा दूसरे साथियों के लिए आजीविका, उपार्जन के नये स्रोत खोल सकें। विज्ञान को “बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय” के क्षेत्र में प्रवेश करना चाहिए और सदा काम आने वाले छोटे यन्त्रों के निर्माण में तत्परतापूर्वक लगना चाहिए। इससे यन्त्र बनाने वाले उद्योगी और उनसे काम लेने वाले प्रयोक्ता सभी का हित साधन हो सकता है। यों अभी कुछ तो यन्त्र बने हैं पर वे बेमन से उपेक्षा पूर्वक बनाये गये हैं, उनकी खामियाँ दूर नहीं की गई। अन्यथा अम्बर चरखा जैसे उपकरण असफल क्यों होते? इस दिशा में अब नये सिरे से सोचा और सहकारिता के आधार पर कारगर कदम उठाया जाना चाहिए।
बड़े लोग इस दिशा में कम ध्यान दें तो छोटे लोग मिलजुलकर सहकारी स्तर पर बड़ी पूँजी वाले कारखाने खड़े कर सकते हैं। करोड़ों की पूँजी वाले कारखाने, शेयरों में, बैंकों के ऋण से, सरकारी अनुदान से बनकर खड़े हो जाते हैं तो कोई कारण नहीं कि देहातों में काम आ सकने वाले गृह उद्योगों के लिए आवश्यक उपकरण न बन सकें। शहरों पर आबादी का बढ़ता हुआ दबाव और बढ़ता हुआ गन्दगी का प्रभाव कम करने के लिए कस्बों को विकसित किया जाना चाहिए। सड़कों का जाल इस तरह बिछाया जाना चाहिए कि पास वाले कस्बों तक सस्ते वाहन आसानी से पहुँच सकें। सरकारी कोष में धन कम हो तो वाहनों पर टैक्स लगाकर उसकी पूर्ति उसी प्रकार की जा सकती है जैसे कि नये पुल बनाने पर यातायात टैक्स लगता है। विज्ञान को सब कुछ अमीरों के लिए बड़े पैमाने पर काम करने वाले साधन ही नहीं जुटाने चाहिए वरन् देहातों में चल सकने वाले उपकरण भी बनाने चाहिए। जिससे बेरोजगारी का निराकरण हो सके। कृषि में शाक और सस्ते फल उत्पादन की काफी गुंजाइश है। आवश्यकता लगन पूर्वक काम करने भर की है।
यह सुविधा साधन उत्पन्न करने वाले, अर्थ प्रधान उपायों की चर्चा हुई। यह भौतिक विज्ञानियों का और उनके लिए बड़ी पूँजी जुटाने वालों का क्षेत्र हुआ। विज्ञान को इतने क्षेत्र तक ही सीमित नहीं होना चाहिए। उसे चेतना क्षेत्र में भी प्रवेश करना चाहिए और व्यक्तित्व निखारने वाले कामों में भी हाथ डालना चाहिए। यह कार्य अध्यात्म विज्ञानियों का है। संसार में पदार्थ क्षेत्र ही सब कुछ नहीं है उसके समतुल्य एवं अधिक महत्वपूर्ण चेतना क्षेत्र भी है। मनुष्य को अन्य प्राणियों का स्वास्थ्य, बुद्धि, प्रतिभा, कला−कौशल, व्यवहार, संयम आदि की दृष्टि से अधिकाधिक समुन्नत और सुसंस्कृत बनाना अध्यात्म क्षेत्र के विज्ञानियों−प्रज्ञावान मनीषियों, योगी तपस्वियों का काम है। उनका कार्यक्षेत्र भौतिक विज्ञान से भी कहीं अधिक बढ़ा-चढ़ा और अधिक उपयोगी है। पदार्थ विज्ञान सुविधा साधन विनिर्मित कर रहा है। उन साधनों का उपयोग जिसको करना है उस मनुष्य का दृष्टिकोण परिष्कृत करना असामान्य काम है। उसने अनेकों कुटेवें अपना ली हैं और ऐसे क्रिया−कलाप अपना लिए हैं जो मात्र व्यक्ति के लिए ही नहीं समूचे समाज के लिए हानिकारक हैं। ढेरों दुष्प्रवृत्तियाँ ऐसी हैं जिनसे पीछा छूटना और छुड़ाया जाना चाहिए। ढेरों सत्प्रवृत्तियाँ ऐसी हैं जिन्हें अभी अपनाया नहीं गया। अन्यथा सामान्य परिस्थितियों में रहने वाले व्यक्ति भी महामानव स्तर का बन सकता था। इस संदर्भ में प्रयोग करना और उपलब्धियों से साधारण को अभ्यास कराना यह आत्मवेत्ताओं का मनीषियों का काम है।
मनुष्य का शरीर और मस्तिष्क बहुमूल्य यन्त्र है। उसके अन्तराल में प्रकृति की पदार्थपरक और परब्रह्म की चेतना परक अनेकानेक विभूतियाँ समाविष्ट हैं। वे बीज रूप से प्रसुप्त स्थिति में रहती हैं, उन्हें अंकुरित और पल्लवित किया जा सके तो नर के भीतर सोया हुआ नारायण जगाया जा सकता है और पुरुष में पुरुषोत्तम की झाँकी देखने को मिल सकती है। इस स्तर के प्रयत्नों को योगाभ्यास एवं तपश्चर्या कहते हैं। साधना भी इसी को कहा जाता है। पुरातन काल के तत्त्वदर्शी अपनी काया में सन्निहित उन सूक्ष्म केन्द्रों को समझते थे साथ ही उन्हें प्रखर बनाने की विद्या का प्रयोग करके न केवल अपने को असामान्य बनाते थे वरन् अन्यान्यों को भी इस कौशल से लाभान्वित करते थे। यह गुह्य विद्या है तो भी यथार्थ और प्रचण्ड। जिनमें श्रद्धा हो वे अनुभवी प्रवीण पारंगतों के मार्गदर्शन में यह प्रशिक्षण प्राप्त कर सकते हैं और अभ्यास की परिणतियों से लाभान्वित हो सकते हैं। पिण्ड में ब्रह्माण्ड का समग्र ढाँचा विद्यमान है। बीज से समग्र वृक्ष और शुक्राणु से परिपूर्ण मनुष्य को उदय करने के लिए उस प्रसुप्ति को जागृति में बदलना होगा। यह योगाभ्यास का विषय है। इसे चेतना परक विज्ञान क्षेत्र ही समझना चाहिए। पिछले दिनों यह क्षेत्र पाखण्डियों के हाथों रहा है। अब उसे मनस्वी, तेजस्वी और तपस्वी हाथ में लें। तो विज्ञान के अधूरे भाग की भी पूर्ति हो चले और उस प्रगति से ऐसा लाभ मिले जो भौतिक विज्ञान से भी उपलब्ध नहीं हुआ है।
इन दिनों “ब्रेन वाशिंग’’ के नाम से जाने−जाने वाले प्रयोग की महती आवश्यकता है। इस क्षेत्र में भौतिक विज्ञानियों ने भी यत्किंचित् प्रवेश किया है और विरोधियों को समर्थ बनाने में आंशिक सफलता पाई है। उनकी कल्पना है कि सशक्तों को दुर्बलों के मनों पर आधिपत्य करने के उपरान्त पालतू पशुओं जैसा इच्छानुवर्ती होने के लिए प्रशिक्षित किया जा सकता है। उनके प्रयोग सफल हुए तो समर्थ नफे में रहेंगे किन्तु मनुष्य का स्वतन्त्र चिन्तन और आत्मबल समाप्त हो जायेगा। अस्तु यह क्षेत्र विशुद्ध रूप से अध्यात्मवादियों का है। उन्हें लोककल्याण की दृष्टि से उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्श कर्तृत्व अपनाने के लिए जन−साधारण को प्रशिक्षित करना चाहिए। “ब्रेन वाशिंग’’ उन्हीं का काम है। इसे हाथ में लेकर वे मनुष्य जाति की महती सेवा साधना कर सकते हैं।
पंच भौतिक मानवी काया के हृदय, फुफ्फुस आदि अवयवों और रक्त−माँस−अस्थि आदि घटकों का स्वरूप और क्रिया−कलाप समझ लिया है। शल्य−क्रिया क्षेत्र में उसने श्रेय भी प्राप्त किया है। मस्तिष्कीय घटकों के स्थान एवं क्रिया−कलाप समझकर इलेक्ट्रोडों द्वारा उस क्षेत्र को वशवर्ती किया जा रहा है।
वस्तुतः मनःक्षेत्र चेतना से जुड़ता है और इसे सम्भालने की जिम्मेदारी तत्वज्ञानियों—अध्यात्मवादियों पर आती है पर उनने गहराई से उतरना छोड़ दिया है। पाखण्ड के सहारे अपनी गाड़ी चला रहे हैं। यह जादू का खेल तभी तक चल सकता है जब तक भारत में अंध श्रद्धा वाले अनपढ़ भावुक भक्तजनों का अस्तित्व बना रहेगा। भौतिक विज्ञानियों ने जब अध्यात्म क्षेत्र का मोर्चा खाली देखा तो उसमें भी अपनी टाँग अड़ानी आरम्भ कर दी और प्रसन्नता की बात है कि उन्होंने कुछ न कुछ सफलता प्राप्त कर ली है। मैस्मरेजम−हिप्नोटिज्म का सिद्धान्त बहुत दिन पहले ही हाथ लग गया था। अब मेटाफिजीक्ज एक मान्यता प्राप्त विज्ञान की शाखा है। दूरदर्शन, दूरवर्ती, भविष्य कथन, मन को पढ़ना आदि इसमें नई धाराएँ सम्मिलित हो गईं और परामनोविज्ञान, मरणोत्तर जीवन, अतीन्द्रिय क्षमता आदि पर नया प्रकाश डाला है। फिर सन्देह इस बात का है कि वे अध्यात्म के आत्मा परक अन्तःकरण से संबंधित पक्ष पर अधिक सफलता प्राप्त न कर सकेंगे। क्योंकि उसके लिए चारित्रिक पवित्रता की विशेष रूप से आवश्यकता होती है। जबकि पाश्चात्य विज्ञानी इस संदर्भ में काफी पिछड़े हुए होते हैं।
जिन रहस्यों पर अधिक प्रकाश पड़ने की आवश्यकता है उसमें मानवीय विद्युत मस्तिष्कीय घटकों के कम्पन अन्तःस्रावी ग्रन्थियाँ और उनसे निकलने वाले स्रावों पर नियन्त्रण करने की पद्धति मानवी चेतना को प्रभावित करने की दृष्टि से अत्यधिक आवश्यक है। हारमोनों पर नियन्त्रण की तरह ही गुण सूत्रों को इच्छानुरूप प्रवाह दे सकने की बात भी असामान्य है। शरीर में संव्याप्त रासायनिक पदार्थों में हेरा−फेरी की बात भी है। जीव कोशों और ज्ञान तन्तुओं की सूक्ष्म संरचना को प्रभावित करना, मस्तिष्क की विभिन्न कोशिकाओं के प्रवाह में परिवर्तन करना यह तथ्य है जिनके ऊपर आध्यात्मिक ऋद्धि−सिद्धियों का आधार टिका है।
मनुष्य को हर दृष्टि से समुन्नत स्तर का बनाना है, उसमें देवत्व का अभ्युदय करना है तो इन रहस्यों को समझना ही नहीं वशवर्ती करना भी आवश्यक है। यह कार्य भौतिक यन्त्रों, उपकरणों एवं क्रिया−कलापों से सम्भव नहीं। इसके लिए अध्यात्म क्षेत्र पर अधिकार रख सकने वाले पवित्रता एवं प्रचुरता सम्पन्न लोगों को कार्य क्षमता एवं विशिष्ट योग्यता की आवश्यकता पड़ेगी। भौतिक उपलब्धियों के समान ही यदि आत्म विज्ञान अन्तःक्षेत्र की विभूतियों को करतलगत कर सके तो ही समझना चाहिए कि समग्र विज्ञान में प्रवेश पाना सम्भव हुआ। मात्र पदार्थों पर अधिकार करना उतना महत्वपूर्ण नहीं है, जिनके बिना मानवी विशिष्टता अवरुद्ध बनी रहे। बिना सुविधा साधनों के भी काम चल सकता है। आत्मवेत्ता तो विशेष रूप में कम से कम साधनों से काम चलाते हुए यह सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं कि यह सब इतना आवश्यक नहीं कि इनके बिना व्यक्तित्व को उत्कृष्ट स्तर का न बनाया जा सके और सच्चे अर्थों में विभूतिवान न बना जा सके। भौतिक साधनों की प्राचीन काल में कमी थी। इतनी बहुलता न थी जितनी इन दिनों है तो भी मनुष्य आत्मबल के सहारे सुखी भी रहते थे और समुन्नत एवं सुसंस्कृत भी। इसके विपरीत इन दिनों जिनके पास साधनों की बहुलता है वे भी बहिरंग एवं अन्तरंग क्षेत्र में विपन्न उद्विग्न पाये जाते हैं।
मनुष्य व्यक्तिगत जीवन में उल्लसित विकसित रहें तथा आनन्द से अपरिपूर्ण दिखाई पड़े तो समझना चाहिए कि उभयपक्षीय उपलब्धियाँ हस्तगत करके मनुष्य सच्चे अर्थों में अपनी गरिमा उपलब्ध कर सके। ऐसे व्यक्तियों की जितनी बहुलता होगी उतना ही वातावरण सुख−शान्ति से भरा-पूरा होगा और स्वल्प साधनों में भी प्रगति एवं समृद्धि की परिस्थितियों का अनुभव होगा।
ऋषियों ने इतने उच्च स्तर की विभूतियाँ उपलब्ध की थीं, जिन पर आज तो सहसा विश्वास करना कठिन होता है। समूचे समाज को आगे बढ़ाने एवं ऊँचा उठाने की क्षमता जिस प्रवाह एवं वातावरण में है, उसकी उपलब्धि आत्म विज्ञान की प्रगति से ही सम्भव हो सकती है।