Magazine - Year 1985 - Version 2
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Language: HINDI
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कलाकार का प्रतिशोध
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मरण शैया पर पड़े हुए पिता ने अपने पुत्र की ओर कातर दृष्टि से देखा। बैजू ने कहा- ‘तात! मैं आपकी जीते जी तो कोई विशेष सेवा नहीं कर पाया बताइए अब क्या आदेश है?”
‘बेटा! मुझे इस समय अपनी एक ही इच्छा कचोट रही है। अपने संगीत दर्प से तानसेन ने मुझे बड़ा अपमानित किया था और मैं उसका बदला नहीं ले सका।’ यह कहकर बैजू के पिता ने दम तोड़ दिया।
बदला मैं लूँगा- निश्चय कर उसने अपने पिता की मृतदेह की अन्त्येष्टि क्रिया सम्पन्न करा दी। श्मशान में भी अपने पिता की राख को हाथ में लेकर उसने कसम खाई कि मैं बदला लेकर रहूँगा।
रात का घना अन्धकार था। तानसेन के महल की चार दीवारी फाँद कर बैजू अन्दर घुस गया। हाथ में परशु की तेजधार, अन्धेरे में भी चमक रही थी। वह तानसेन के शयन कक्ष की ओर बढ़ा। दरवाजे की झिर-झिरी से झाँक कर देखा सब लोग निद्रा मग्न थे तानसेन देवी सरस्वती की प्रतिमा के आगे बैठा कुछ पढ़ रहा था।
सरस्वती की शान्त और वरद्हस्त उठाए प्रतिमा को देखकर बैजू के हृदय में विचार मन्थन होने लगा। अन्तःकरण में स्फुरणाएं उठने लगीं- ‘प्रतिशोध ऐसा प्रतिशोध, किस काम का जिसमें अपना और भी पतन हो। माना कि तानसेन तो संगीत दर्प में पिताजी को अपमानित कर बैठा तो क्या मैं भी अपने बल और छल-छद्म के दर्प में उसे मारकर उसका बदला लूँ। क्या प्रतिशोध का दूसरा मार्ग नहीं है? हो सकता है? ऐसा हीन प्रतिशोध मुझे नहीं लेना। देवी माँ मुझे सद्बुद्धि दे।’ और वह बिना प्रतिशोध लिए ही घर लौट आया। वस्तुतः ऐसे प्रतिशोध से क्या लाभ जो मनुष्य को दानवी-प्रवृत्तियों में लगा दे।
बैजू ने घर आते-आते रास्ते में संगीत साधना का निश्चय किया और अपनी साधना तथा सिद्धि की प्रखरता के आधार पर तानसेन को परास्त कर प्रतिशोध लेने का विचार किया। वीणा और वाद्य यन्त्र लेकर देवी सरस्वती के सम्मुख बैठा बैजू अहर्निश संगीत साधना में लगा रहने लगा।
संगीत के स्वरों में झंकृत वीणा के साथ-साथ उसकी हृदय तन्त्री भी बजने लगी और बैजू के गीतों का आराध्य सर्वनियामक परमात्मा हो गया। अपनी साधन तन्मयता में वह खाने-पीने की सुध तक भूल जाता। लोगों ने उसे बावरा कह कर सम्बोधित करना शुरू कर दिया। उसके गीतों और स्वरों को जो भी सुनता, ईश्वर भक्ति की तरंगें मन में उठने लगतीं।
बैजू बावरा की ख्याति फैलने लगी। होते-होते सम्राट अकबर तक उसकी प्रशंसा पहुँची। अकबर की दृष्टि में तो तानसेन के समान और कोई गायक ही नहीं था परन्तु जब सुना कि बैजू बावरा भी बहुत अच्छा गाता है तो स्वाभाविक ही उसका जी भी गायन सुनने के लिए मचल उठा।
अकबर ने दूत को भेजा बैजू बावरा को दरबार में उपस्थित होने के लिए। परन्तु दूत अकेला ही लौट आया और बोला- महाराज! आपको गीत सुनना है तो उसकी झोंपड़ी पर जायें।
दरबारियों समेत राजा बैजू बावरा की झोंपड़ी पर पहुँचे और बैजू ने अपनी स्वर लहरी छेड़ी। सब मन्त्र मुग्ध हो उठे। तानसेन ने अपनी पराजय को अब प्रत्यक्षतः स्वीकार कर लिया- जहाँपनाह! मैं आपको खुश करने के लिए गाता हूँ और बैजू ईश्वर को खुश करने के लिए। ईश्वर की तुलना में आपकी सत्ता की संगति कहाँ बैठेगी। जो अन्तर ईश्वर और आप में है वही अन्तर बैजू और मुझ में है।
ईश्वर भक्ति के प्रसाद स्वरूप बैजू के मन से प्रतिशोध या विकार की भावना नष्ट हो चुकी थी। उसे ध्यान भी नहीं था कि “मुझे तानसेन को पराजित करना था” फिर भी उसका प्रतिशोध-सही अर्थों में पूरा हो चुका था क्योंकि उसके परम सखा तानसेन का संगीत दर्प टूट चुका था।