Magazine - Year 1985 - Version 2
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Language: HINDI
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योगः कर्मसु कौशलम्
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मानव जीवन की संरचना इस प्रकार हुई है कि उसे निरन्तर कार्यरत रहना पड़ता है। रात्रि को शरीर की उथली परत ही विश्राम करती है। भीतर के सभी तन्त्र अनवरत रूप से काम में जुटे रहते हैं। श्वास-प्रश्वास, रक्ताभिसरण, आकुंचन-प्रकुंचन, निमेष-उन्मेष आदि क्रम क्षण भर के लिए भी चैन नहीं लेता। मस्तिष्क की ऊपरी परत ही निद्रा का लाभ ले पाती है। अचेतन और सुपरचेतन दोनों ही परतें बिना विराम का नाम लिए जन्म से लेकर मरण पर्यन्त अपना काम करती रहती हैं। धड़कन एक क्षण के लिए रुक जाय तो जीवन लीला की समाप्ति ही समझनी चाहिए।
आहार, पाचन क्षमता का उत्पादन यह एक पूरा चक्र है। इसकी एक कड़ी कभी टूट जाय तो समझना चाहिए कि गाड़ी दल-दल में फँस गयी अथवा खाई में गिरकर उलट गयी। आहार से रक्त बनता है इसमें पेट आंतें आदि का परिश्रम तो मुख्य है ही, पर इसके अतिरिक्त अन्यान्य सभी अवयवों को श्रम करना पड़ता है। न किया जाय तो पाचन लड़खड़ा जायेगा और क्रिया शक्ति कुण्ठित होगी। जो हिस्सा निकम्मा पड़ा रहेगा वह जंग खाये पुर्जे की तरह क्षीण होता चला जायेगा। इसलिए जीवन व्यवस्था में कर्म को नितान्त आवश्यक माना गया है। खाली दिमाग तो शैतान की दुकान होता है। ठाली शरीर भी निस्तेज, दुर्बल और रुग्ण रहने लगता है।
मनुष्य समेत सभी जीव जन्तुओं को कार्यरत रहना अनिवार्य हो जाय, इसलिए प्रकृति ने उन्हें आहार जुटाने और वंश चलाने के दो कार्य ऐसे सौंपे हैं जिनके बहाने शरीर और मन को कुछ न कुछ ताना-बाना बुनना पड़ता है। भाग-दौड़ में निरत रहना पड़ता है। यह शरीर की निर्वाह श्रृंखला के साथ जुड़ी हुई कर्म व्यवस्था हुई। अन्य प्राणियों का काम इस दौड़ धूप से भी चलता रहता है पर मनुष्य इस स्तर से बहुत आगे है। उसकी अन्यान्य आवश्यकतायें तथा जिम्मेदारी भी है। और वे सभी ऐसी हैं जो बढ़ा-चढ़ा कार्य कौशल चाहती हैं। इसके लिए उसे अपने प्रकार के प्रशिक्षण प्राप्त करने पड़ते हैं और अतिरिक्त कार्यक्रम बनाने पड़ते हैं। शरीर का काम क्षुधा निवारण भर से नहीं चल पाता। वर्तमान संसार की उलझी हुई परिस्थितियों में सही तरीके से पार जाने के लिए विद्या, प्रतिभा, कुशलता, दूरदर्शिता आदि का संग्रह करना पड़ता है।
मनुष्य सामाजिक प्राणी है। उसका पूरा जीवन परिवार तथा समाज के साथ गुँथा हुआ है। इसमें पग-पग पर नीतिमत्ता, उदारता एवं जिम्मेदारी का प्रयोग करना पड़ता है। अनीति का प्रचलन भी कम नहीं है उसके दाँव पेंचों से अपने को बचाने एवं आक्रमणों से पीछा छुड़ाने के लिए अनेक प्रकार के दाँव पेंच समझने होते हैं। पेट प्रजनन तक सीमित न रहना हो, उन्नतिशील जीवन जीना हो, सन्तोष, उत्साह और उल्लास अर्जित करना हो तो वे कार्यक्रम भी अपनाने पड़ते हैं जिन्हें उत्कृष्ट एवं आदर्शमय कहते हैं।
मनुष्य यों सर्वत्र स्वतन्त्र मालूम पड़ता है। वह भले बुरे जैसे भी चाहे काम कर सकता है। इतने पर भी वह कृत्यों के परिणाम भुगतने के लिए प्रकृति व्यवस्था के अनुरूप बाधित है। अनेकानेक जिम्मेदारियों से बँधा हुआ है। कर्तव्यों के परिपालन से बाधित है। पशु-पक्षी प्रकृति प्रेरणा का अनुसरण करने मात्र से अपनी जीवनचर्या एक क्रमबद्ध ढाँचे के अनुसार पूरी कर लेते हैं। पर मनुष्य का काम इतने भर से नहीं चलता। उसे आत्मा की पुकार सुननी पड़ती है। सामाजिक अनुबन्धों का निर्वाह और वर्जनाओं का प्रतिपादन करना होता है। प्रशंसा और प्रतिष्ठा का ध्यान रखना होता है। निन्दा, भर्त्सना, उपहास से बचना होता है। मात्र शरीर ही नहीं परिवार का भरण-पोषण चरित्र स्तर एवं भविष्य बनाना होता है। यह सब कार्य अनायास ही नहीं हो जाते इनके लिए समुचित जागरूकता बरतनी पड़ती है और कठोर श्रम करना होता है। यह सारा परिकर मिलकर कर्त्तव्य बनता है। कर्त्तव्य पालन से ही उत्तरदायित्वों का निर्वाह होता है और जीवन सन्तोष व्यक्त कर सकने योग्य बनता है इसकी उपेक्षा करने वाले दुत्कारे जाते और जहाँ-तहाँ धिक्कार सहते हैं।
कर्त्तव्य को शास्त्रकारों की भाषा में धर्म कहा गया है। जो दायित्वों का ठीक तरह निर्वाह करता है वह धर्मात्मा है और जो उनकी अवज्ञा करता है वह अधर्मी है। धर्मात्मा पुण्य फल प्राप्त करके प्रत्यक्ष से सुखी रहते हैं और परोक्ष में स्वर्ग सन्तोष का लाभ लेते हैं। अधर्मियों के लिए प्रत्यक्षतः दुःख दुष्परिणाम सामने रहते हैं और परोक्ष में आत्म-प्रताड़ना का- विरोध विग्रह का नरक भुगतना पड़ता है।
आर्षजनों का अभिमत है कि कर्म ही ईश्वर पूजा है। यहाँ कर्म का अर्थ मात्र श्रम नहीं वरन् सत्कर्मों का अवलम्बन है। हर विवेकशील व्यक्ति के लिए उचित है कि वह आजीविका कमाते समय ईमानदारी का ध्यान रखे उसका व्यतिरेक न होने दे। खर्च करते समय समझदारी का उपयोग करे। ऐसा न हो कि अपव्यय अपनाया जाय और उसकी पूर्ति के लिए कुकृत्यों का आश्रय लिया जाय।
निजी जीवन शरीर और परिवार तक सीमित है। इसमें आजीविका उपार्जन और उसके उपयोग में औचित्य का समावेश तो प्रमुख है ही। साथ ही यह तथ्य भी जुड़ता है कि शरीर और सम्बद्ध परिकर में से कोई कुमार्गगामी न बनने पाये। इसके अतिरिक्त धर्म की दूसरी मंजिल आती है जिसे पुण्य या परमार्थ कहते हैं। यह सामाजिक प्रचलनों में औचित्य का अधिकाधिक समावेश करने- सत्प्रवृत्तियों को सींचने और कुप्रथाओं का उन्मूलन करने वाले कदमों को उठाने का प्रयास है। यह उतना ही आवश्यक है जितना शरीर और परिवार का निर्वाह। मनुष्य की प्रगति और अवनति बहुत करके समाज की सुव्यवस्था पर निर्भर है। वातावरण में गन्दगी भरती जा रही हो तो एक व्यक्ति की सज्जनता भी उस माहौल में जीवित न रह सकेगी। श्रेष्ठ वातावरण में सामान्य व्यक्ति की सज्जनता भी उस माहौल में जीवित न रह सकेगी। श्रेष्ठ वातावरण में सामान्य व्यक्ति भी सुधरने और उठने लगते हैं। मनुष्य समाज का ऋणी है। अधिकाँश सुविधायें उसे दूसरों के सहयोग से ही मिली हैं। यहाँ तक कि बोलना पढ़ना जैसी आरम्भिक योग्यतायें भी दूसरों के अनुग्रह से ही मिली हैं। ऐसी दशा में उसे अपने को समाज का ऋणी मानना चाहिए और उसे श्रेष्ठ समुचित बनाने का प्रयत्न करना अपना परम पवित्र कर्त्तव्य मानना चाहिए। यही पुण्य परमार्थ है। यही विराट ब्रह्म की यथार्थवादी सेवा पूजा है। इस प्रयोजन के लिए भी हमारी क्षमता का एक बड़ा अंश नियोजित रहना चाहिए।
नित्य कर्म में ईश्वर उपासना के लिए एक निर्धारित समय रहना चाहिए। आत्मा की श्रेष्ठताओं का समुच्चय परमात्मा है। हम उसके निकटतम पहुँचते जांय- घनिष्ठ तक बनते जांय, यही भजन भाव एक प्रकार का आध्यात्मिक व्यायाम माना जाना चाहिए। अन्तःकरण की पवित्रता अक्षुण्ण बनाये रहने के लिए यह आवश्यक है। जैसे मलीनता के शोधन हेतु शरीर को नहलाने, कपड़ों को धोना, कमरे को बुहारना, बर्तनों का माँजना आवश्यक है। इसी प्रकार ईश्वर की पवित्रता और प्रखरता का प्रभाव आत्मा पर अधिकाधिक आच्छादित करने के लिए हमारे नित्य कर्म में उपासना सम्मिलित रहनी चाहिए।
उपरोक्त सभी कर्त्तव्य कर्म एक से एक अधिक आवश्यक हैं। इनमें से एक की भी उपेक्षा नहीं होनी चाहिए और न ऐसा सोचना चाहिए कि किसी एक का पालन करने से काम चल जायेगा। मनुष्य जीवन का एक क्षण भी बेकार या बर्बाद नहीं होना चाहिए। खाली दिमाग शैतान की दुकान होती है और खाली समय मनुष्य के ऊपर पतन और पराभव थोपता है। इसलिए कर्त्तव्य कर्म में हमें निरन्तर संलग्न रहना चाहिए। व्यस्तता ही जीवन में श्रेय का समावेश करती है। जो भी काम हाथ के नीचे है उसे पूरी दिलचस्पी के साथ किया जाना चाहिए। उसे सही तरीके से पूरा करना, अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न मानना चाहिए। बेगार भुगतने की तरह आधे अधूरे मन या श्रम से किया हुआ काम हर दृष्टि से काना-कुबड़ा और फूहड़ होता है। उसका बाजारू मूल्य तो कम होता ही है साथ ही जिसने किया है उसे अनगढ़ माना जाता है। बया पक्षी कैसा सुन्दर घोंसला बनाता है। यह उसके मनोयोग का फल है उसमें रहकर सुखी तो वह पक्षी ही रहता है पर राह चलते दर्शक उसकी प्रशंसा करते जाते हैं। बेगार भुगतने के लिए कबूतर छितरे हुए तिनकों का फूहड़ घोंसला बनाता है। जरा-सी हवा चलते ही वह अण्डे बच्चों समेत जमीन पर आ गिरता है। बेचारे को दुबारा मेहनत करनी पड़ती है। साथ ही हँसी होने और गालियाँ पड़ने की बेइज्जती मुफ्त में ही होती रहती है। मनुष्य को अपने हर काम में कबूतर जैसे फूहड़पन न दिखाकर, बया जैसी मुस्तैदी दिलचस्पी का परिचय देना चाहिए। जिम्मेदारी के काम करने वालों पर वे अपने विषय में प्रवीण पारगत कहलाने लगते हैं।
गीताकार ने काम को कर्मयोग कहा है और इसे मनोयोग पूर्वक करने से योग सिद्धि की बात कही है। उस कथन में एक बड़ी मार्मिक बात यह है कि लाभ-हानि की चिन्ता न करके कर्म को परिपूर्ण श्रद्धा के साथ करना चाहिए। काम को आगा-पीछा सोचकर तो कना चाहिए पर करते समय खिलाड़ी की मनोवृत्ति रहनी चाहिए। खिलाड़ी बीसियों बार हारते जीतते रहते हैं पर मन भारी नहीं होने देते। दोनों ही स्थितियों में मुस्कराते रहते हैं। काम की सफलता अपने हाथ में नहीं। कई बार परिस्थितियां ऐसी बन पड़ती हैं कि समझदारी से काम करने पर भी असफलता सामने आ खड़ी होती है। यदि कर्ता की तबियत छोटी है तो वह हिम्मत हार बैठेगा और भविष्य में उससे कुछ करते-धरते न बन पड़ेगा। इसी तरह किसी प्रकार बन्दर के हाथ अदरक लग गया और स्वल्प प्रयास में बड़ी सफलता मिल गयी तो अहंकार का ठिकाना न रहेगा। और उस असन्तुलित मनःस्थिति के आगे ठोकर खायेगा। इसलिए गीताकार ने कर्मयोगी के लिए परामर्श दिया है कि वह सच्चाई के साथ किये गये कर्म को ही प्रसन्नता का परिपूर्ण माध्यम समझें। ऐसी मनःस्थिति होने पर सफलता के अहंकार और असफलता के पश्चात्ताप से बचाव हो जाता है। ऐसी सन्तुलित मनःस्थिति एक प्रकार की योग विभूति है। जब कर्म करने में ही अपनी पूर्ण प्रसन्नता मान ली गयी तो सफलता की राह नहीं जोतनी पड़ती और सच्चाई के साथ किया हुआ प्रत्येक कार्य अपने आप में सफलता देने वाली प्रसन्नता जैसा अनुभव होता है। ऐसी निरन्तर हालत में प्रसन्न रहने की विद्या जिसे हाथ लग गयी समझना चाहिए कि वह मन का विजेता हो गया और उन हाथों से जो भी काम होगा वह शानदार होगा इसका निश्चय हो गया।
यदि हमारे सभी कार्य लोक मंगल की दृष्टि से- कर्तव्य भावना की पूर्ति का लक्ष्य रखकर किये गये हैं तो उच्च भावना के अनुरूप पुण्य फलदायक ही होंगे। इन भावनाओं के रहते उनमें दुष्टता का समावेश नहीं हो सकता। कोई व्यावहारिक ज्ञान की कमी से त्रुटि रह भी जायगी तो उस कृत्य को दूषित नहीं कहा जायेगा। स्वार्थ बुद्धि से किया गया परमार्थ भी व्यवसाय बन जाता है। यह तथ्य जिसकी समझ में आ गया, उसका कर्त्तव्य परायण जीवन एक प्रकार से योगियों जैसा हो जाता है।
योग के कितने की प्रयोग उपचार हैं। उनमें से एक अति सरल और अति व्यावहारिक कर्मयोग है। उसमें स्वार्थ और परमार्थ दोनों सधते हैं। संसार की सेवा और आत्म-कल्याण दोनों का समान रूप से समावेश हो जाता है। निठल्ले बैठे रहना तो ऐसे भी किसी के लिए सम्भव नहीं प्रकृति किसी को ठाली बैठने नहीं देती और शरीर और मन की संरचना ही ऐसी ही है जिसमें कुछ न कुछ किये बिना काम ही न चले, चैन ही न पड़े। ऐसी दशा में समय काटने वाले निरुद्देश्य काम ज्यों-त्यों करके की अपेक्षा यही अच्छा है कि अपने हर काम में उच्च उद्देश्य का समावेश किया जाय तो उसे पूरी तन्मयता तथा तत्परता के साथ सम्पन्न किया जाय। कोई यह न समझे कि अधिक काम करने में व्यस्त रहने से शरीर या मन को क्षति उठानी पड़ेगी। कर्मयोगी की सन्तुष्टि एवं प्रसन्नता उसे हर क्षेत्र में प्रगतिशील एवं सम्पन्न बनाती है। इसलिए कर्म को धर्म समझकर उसे परिपूर्ण श्रद्धा के साथ करना ही श्रेयस्कर है।