Magazine - Year 1985 - Version 2
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Language: HINDI
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समूचा ब्रह्मांड एक चैतन्य शरीर
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तत्त्वदर्शियों का यह मत है कि जड़ और चैतन्य में भेद हमें हमारी स्थूल दृष्टि के कारण दिखाई पड़ता है। वस्तुतः जड़ता कहीं भी नहीं है। ब्रह्मांड के कण-कण में चेतना संव्याप्त है। मानवी काया और विराट् ब्रह्मांड भी उसी चेतना के महासागर का एक अंग होने के नाते परस्पर एक-दूसरे से प्रभावित होते हैं। इस तत्व-दर्शन को प्रतिपादित कर विश्व भर में फैलाने एक विज्ञान का स्वरूप देने का कार्य भारत से ही आरम्भ हुआ व इसे ज्योतिर्विज्ञान नाम दिया गया। इसका उद्देश्य यही था कि आकाश में ग्रह-नक्षत्रों की स्थिति का मौसम विज्ञान और प्राणी समुदाय पर पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन किया जाय। विडम्बना यही है कि इस विद्या का फलित ज्योतिष के नाम पर दुष्प्रभावों की भय-विभीषिका फैलाने के रूप में दुरुपयोग अधिक हुआ है। फिर भी छुटपुट प्रयास ऐसे चले हैं जिन्हें यथार्थवादी एवं भ्रान्ति निवारक कहा जा सकता है।
भारतीय ज्योतिष की नींव बड़ी गहरी, वैदिक काल से पड़ी प्रतीत होती है। सृष्टि के निर्माण काल के बारे में विज्ञान तथा इस ज्योतिष से बड़ा तालमेल बैठता है। काल गणना करके मानव वर्ष तथा देव वर्ष बने हैं। 360 मानव वर्षों का एक देव वर्ष कहा जाता है। 12 हजार वर्षों का एक देवयुग और 1000 देवयुग को ब्रह्मा जी का एक दिन कहा जाता है। एक देवयुग में सतयुग, त्रेता द्वापर तथा कलियुग क्रमशः 48, 36, 24 और 10 हजार वर्ष के होते हैं। प्रत्येक युग के आरम्भ तथा अन्त में पड़ने वाली संध्या बेला को भी वर्गीकृत किया गया। आरम्भिक संध्या बेला को सन्ध्या और अन्तिम चरण को संध्याँश कहा गया। भारतीय ज्योतिर्विद् यह भी बताते हैं कि कलियुग, द्वापर, त्रेता और सतयुग में संध्याएं क्रमशः 100, 200, 300 और चार-चार सौ वर्ष की पड़ती हैं। एक युग की संध्या और संध्याँश का समग्र एक जैसा होता है। युगों के मुख्य भाग सतयुग में 4000, त्रेता में 3000, द्वापर में 2000 और कलियुग में 1000 वर्षों का कहे गए हैं।
ज्योतिष शास्त्र का आधार गणित को दिलाने का श्रेय आर्यभट्ट को जाता है। अनेक कठिन प्रश्नों को सूक्ष्मीकृत करके उन्होंने मात्र 30 श्लोकों में सीमित कर दिया। प्रसिद्ध ज्योतिष व सिद्धान्त के काल क्रिया पाद अध्याय में तिथि नक्षत्र की गणना की गई है। सूर्य सिद्धान्त में ब्रह्मांड की ही नहीं काल विभाजन की भी गवेषणा की गई है।
बाराह मिहिर की पंच सिद्धान्तिका में चन्द्रमा की कलाओं की विवेचना है। ग्रन्थ यंत्राध्याय के अनुसार काल के सूक्ष्म अवयवों का ज्ञान बिना यन्त्र के असम्भव है। राशि वलय, नाड़ी, वलय या शंकुधरी, चक्र चाप, सूर्य फलक और भित्ति यन्त्र जैसे यन्त्रों का विशद वर्णन भाष्कराचार्य ने किया है। तदुपरान्त ज्योतिष में कुछ शतकों तक पठार सा रहा क्योंकि उसमें कोई ठोस कार्य सम्पन्न नहीं दिखते।
1682 में सवाई जयसिंह का जन्म हुआ बड़े होकर पहले उन्होंने जन्तर-मन्तर दिल्ली में वेधशाला बनवाई और बाद में जयपुर, उज्जैन, वाराणसी और मथुरा में वेधशालाएं स्थापित कराईं। यह दुर्भाग्य ही है कि अन्तिम तीन वेधशालाएं जब खण्डहर स्वरूप ही हैं। इतना ही नहीं महाराजा जयसिंह का विशाल ग्रन्थागार भी विनष्ट हो गया है। उन्होंने पं. जगन्नाथ से टॉलेमी के “सिनटैविसस” का अनुदान कराया। आधुनिक इक्वेटोरियल यन्त्र की भाँति ही उनका बनवाया हुआ चक्र यन्त्र प्रसिद्ध है।
आज की दिल्ली की कुतुबमीनार का निर्माण कभी सम्राट समुद्र गुप्त ने कराया था। परन्तु आमतौर पर लोग इसे कुतुबुद्दीन ऐबक का बनाया मानते हैं। यह इतिहास की एक बड़ी भूल है। इस मीनार का वास्तविक नाम “विष्णु ध्वज” था। इसे वेधशाला की केन्द्रिय मीनार के रूप में बनवाया गया था। प्रो. डी.त्रिवेदी द्वारा प्राप्त जानकारी के अनुसार इस मीनार का निर्माता समुद्रगुप्त ही था। पास की विष्णुपद पहाड़ी में लोहे का स्तम्भ भी खड़ा किया गया था। जिस पर गुप्त कालीन लिपि में खुदे सूत्र हैं।
डा. त्रिवेदी की जानकारी से यह भी स्पष्ट होता है कि यह मीनार 5 डिग्री कोण पर झुकी हुई है और 22 जून को दोपहर में उसकी छाया नहीं पड़ती। सर्वविदित है कि यह दिन उत्तरी गोलार्ध का सबसे बड़ा दिन माना जाता है। कुतुबमीनार गणित के सिद्धान्तों के आधार पर बनायी गई थी। इसके प्रत्येक कोने के बीच की दूरी 30 डिग्री तथा 35 डिग्री है। त्रिकोण भित्ति की गणना से इसकी ऊँचाई आधुनिक इकाई में 87.03 मीटर है।
ऐसा प्रतीत होता है कि आधुनिक भौतिक विज्ञानियों द्वारा प्रणीत ब्रह्मांडीय एकत्व का सिद्धान्त ऋषियों को बहुत पहले ही मालूम हो चुका था। इसकी झाँकी हम आर्ष ग्रन्थों में पाते हैं। भारतीय ऋषि सदा से इस बात को कहते आये हैं कि इस जगत को दो मार्गों से समझा जा सकता है अपरा विद्या और परा विद्या। उनके अनुसार अपरा विद्या निकृष्ट स्तर की है जो पदार्थ जगत के लिए ही लागू होती है। दूसरी तरफ परा विद्या को अतींद्रिय व सूक्ष्म योग शक्ति ग्राह्य माना गया है। यह वस्तुतः उच्चस्तरीय गणित है। जिससे वैदिक काल में विश्व की संरचना व काल गणना का अध्ययन किया जाता था।
चिर पुरातन वेदों का सम्बन्ध परा विद्या से है और ज्योतिष को वेदों का नेत्र कहा गया है। अतः ज्योतिष को भी परा विद्या से ही सम्बन्धित बताया गया है। चूँकि परा विद्या एक उच्चस्तरीय गणित है अतः ज्योतिष भी उसी स्तर की गणित विद्या है। इन महान ग्रन्थों के अनुसार इस महान विद्या ज्योतिर्विज्ञान का मूलभूत आधार वस्तुतः चन्द्रमा, सूर्य तथा सौर जगत के अन्यान्य ग्रहों का पृथ्वी तथा उसके निवासियों से अन्योन्याश्रित सम्बन्धों एवं सम्भावित प्रभावों का अध्ययन है।
ज्योतिष का तात्विक अर्थ शक्ति अथवा नक्षत्र है। सर एम.एम. विलियम ने अपनी संस्कृत से अंग्रेजी शब्दकोष में ज्योतिष की इस प्रकार व्याख्या की है। “सत्व गुण से व्याप्त मनःस्थिति अथवा प्रशान्त मनःस्थिति अथवा ब्रह्म-ज्योति अथवा सर्वोच्च सत्ता के रूप में बोधगम्य प्रकाश”। एक शब्द में ज्योतिष को चेतन सत्ता की पारस्परिक क्रिया का विज्ञान कह सकते हैं। अर्थात् तत्वों अथवा शरीर के अवयवों, मन एवं ब्रह्मांडीय शक्तियों के बीच पारस्परिक संयोग- क्रिया का परिणाम ही ज्योतिर्विज्ञान है।
ब्रह्मांड विद्या (ज्योतिष शास्त्र) में ग्रहों को एक राजनैतिक सामाजिक व्यवस्था क्रम में रखा गया है। जिसमें सूर्य राजा का प्रतिनिधि है, चन्द्रमा रानी का तथा बुध राजकुमार का। इस सबके पीछे भी गणितीय सिद्धान्त काम करते हैं। प्राचीन आर्ष ज्योतिषियों ने ज्योतिर्विद्या को एक ब्रह्मांडीय अनुशासन के रूप में प्रस्तुत किया है। जिसमें ईश्वर के प्रति अगाध प्रेम, निष्ठा व्यक्त की गई है। ज्योतिष का उनने पवित्र तन्त्र के रूप में ध्यानपूर्वक अध्ययन किया एवं ज्योतिष को ज्ञान का समुद्र कहा है। इस विद्या को परम पावन परा विद्या के रूप में प्रतिपादित किया गया जिसकी गहराइयां तथा सीमाएं अनन्त हैं। इसीलिए भारतीय ज्योतिष शास्त्रियों में उपरोक्त संकेत रूपक स्थापित किये हैं जिससे इस विद्या के रहस्यों को समझा जा सके।
ब्रह्मांड रसायन जैविकी के अनुसार राशि चक्र के बारह चिन्ह काल पुरुष के, महाकाल के शरीर के अंग हैं। पहला राशि चिन्ह मेष है जो काल पुरुष के मस्तिष्क नियन्त्रण केन्द्र का प्रतिपादन करता है। वृषभ चेहरे का प्रतीक है। मिथुन गर्दन तथा सीने के ऊपरी हिस्से का तथा कन्धों का चिन्ह है। कर्क हृदय, सिंह पेट, कन्या नाभि, तुला आंतों, वृश्चिक गुप्ताँगों, धनुष जंघाओं, मकर जोड़ों, कुम्भ घुटनों के नीचे वाले भागों तथा मीन शरीर के अन्तिम निचले हिस्से पैरों का प्रतीक है।
इस व्यवस्था के अंतर्गत ब्रह्मांडीय पुरुष के शरीर के विभिन्न अंगों के रूप में ग्रहों को चिन्हित किया गया है। चन्द्रमा मन है। मंगल शक्ति है। बुध वाक् है। गुरु काल पुरुष का ज्ञान, स्वास्थ्य, समृद्धि, सन्तति तथा सुख सम्बन्धी पक्ष है। शुक्र आकर्षण शक्ति, लैंगिक प्रेम तथा उपभोग का प्रतीक है। शनि तितीक्षा, व्यथा एवं अन्ततः भक्ति की वेदना का प्रतीक है। जिसमें मिलन की सम्भावनाएं निहित हैं।
ब्रह्मांडीय विद्या में सामाजिक राजनैतिक प्रतीक भी है। जैसे सूर्य- राजा, चन्द्रमा- रानी, गुरु- शुक्र, मन्त्री, मंगल-सेनापति, बुध-राजकुमार तथा शनि सेवक हैं। ये प्रतीक मात्र हैं जो उनके अधिकार क्षेत्र का बोध कराते हैं जिसकी परिधि में सृष्टि का घट-घट आ जाता है। काल पुरुष चार्ट, जो ग्रहों की जानकारी का मूल आधार है, की सहायता लेकर किसी भी व्यक्ति की जन्म कुण्डली बनाकर व्यक्ति के शारीरिक-मानसिक विकास की जानकारी मिल सकती है साथ ही भावी भावनाओं की जानकारी देकर दिशाधारा निर्धारित की जा सकती है। यदि किसी व्यक्ति का सूर्य ग्रह ठीक जगह स्थित तथा बलवान है तो व्यक्ति की सामाजिक स्थिति तथा नियन्त्रण शक्ति ठीक होने की जानकारी मिलती है। शक्तिशाली ग्रह अपने विशिष्ट प्रभाव की जानकारी देते हैं।
यह एक समग्र विज्ञान सम्मत विधा है, ऐसा इस वर्णन से स्पष्ट होता है। खगोल भौतिकी के सिद्धान्त भी कुछ ऐसा ही प्रतिपादित करते हैं। न केवल भारत अपितु विदेशों के विद्वान भी ज्योतिर्विज्ञान के स्वरूप की ऐसी व्याख्या करने में समर्थ हुए हैं, जिससे ब्रह्मांडीय शक्तियों के जीव चेतना पर प्रभाव की पुष्टि होती है।
ईसाई धर्म की पुस्तक बाइबिल की व्याख्या करते हुए तीन शताब्दी पूर्व विद्वान पैरासेल्सस ने लिखा था कि “मनुष्य शरीर को इच्छाओं का सजा हुआ वाद्य यन्त्र कहना चाहिए जिसमें कि आत्मा की झंकार सबसे मधुर रूप में सुनाई देती है। इच्छाएं आकाश में स्थित नक्षत्रों (देव शक्तियों) के बीच कोश ही हैं। यह बीज शरीर के कुछ महत्वपूर्ण स्थानों में रहते हैं। उनकी आणविक संरचना और ब्रह्मांड व्यापी नक्षत्रों की मूलभूत संरचना में विलक्षण साम्य होता है।
पैरासेल्सस लिखते हैं- “शरीर की रचना नक्षत्र गति के संरक्षण और निर्देशन में होती है। उत्पत्ति के तीसरे दिन चन्द्रमा ने बुद्धि और तुला ने व्यक्तित्व को प्रभावित किया। शरीर में तन्मात्राएं दूसरे दिन ही आ गईं थीं, जिनकी उत्पत्ति सूर्य शक्ति से हुई। हृदय पर लियो (चन्द्रमा) का अधिकार होता है और वह आत्मिक शान्ति और सभ्यता प्रदान करता है। शरीर के दूसरे सूक्ष्म अंगों को सेजीटेरियस इगो प्रभावित करते हैं। इस प्रकार मध्यकाल के ज्योतिर्विद् भी आर्षविज्ञान की इस विधा के उन पक्षों का समर्थन करते दीखते हैं जिन्हें देव संस्कृति में महत्वपूर्ण स्थान मिलता रहा है।
सभी वैज्ञानिक प्रमाण एवं उपलब्ध तथ्य यही बताते हैं कि यह समग्र ब्रह्मांड एक शरीर है और इसका कोई भी अंग अलग नहीं, वरन् एकात्म भाव से जुड़ा हुआ है। कोई भी ग्रह-नक्षत्र कितनी भी दूर क्यों न हो, वह जीव जगत को निश्चित रूप से प्रभावित करता है। साथ ही अपने ग्रह पर होने वाली विधाता को अमान्य गतिविधियाँ प्रकारान्तर से अंतर्ग्रही सन्तुलन को प्रभावित कर दैवी प्रकोपों को आमन्त्रित करती हैं, यह भी सत्य है। अन्तर्ग्रही प्रभावों से अब भली-भांति परिचित मनीषीगण यह कहने में हिचकते नहीं कि अणु में लघु एवं विभु में महान की, पिण्ड व ब्रह्मांड की एकता का सिद्धान्त सुनिश्चित एवं सत्य है। चिन्तन में परिवर्तन के इस महत्वपूर्ण मोड़ ने विज्ञान को नयी दिशाधारा दी है, नये सिरे से सोचने का अवसर दिया है।