Magazine - Year 1985 - Version 2
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Language: HINDI
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मानवी क्षमता का कोई पारावार नहीं
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वर्तमान ओलंपिक खेलों के बाद पर्यवेक्षकों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि मानवी प्रगति का कोई अन्त नहीं। पिछले दिनों खेल-कूदों में बाजी मारने-प्रवीणता और पूर्णता के लिए एक सीमा निर्धारित की गई थी और कहा गया था कि मानवी अवयवों की संरचना तथा विकसित प्रयत्नशीलता के सहारे वह अमुक खेल में इतनी क्षमता तक का ही परिचय दे सकता है।
अब उन अनुमानों से बहुत आगे बढ़कर खिलाड़ियों ने कीर्तिमान स्थापित किए हैं। इसी प्रकार शिक्षा शास्त्रियों का अनुमान था कि बच्चों का बौद्धिक विकास-क्रम को देखते हुए कोई प्रतिभाशाली बालक इतनी कक्षाएं उत्तीर्णकर सकता है। किन्तु वह अनुमान भी गलत साबित हुए और कितने ही बालकों ने निर्धारित मापदण्ड से कहीं अधिक प्रगति करके दिखाई है।
मध्यकाल में वीरता का मापदण्ड युद्ध-कौशल रहा है। कोई व्यक्ति शस्त्र चलाने में जितना कौशल दिखा सकता है और परिस्थितियों के प्रतिकूल होते हुए भी कितना साहस दिखा सकता है, इसकी भी एक सीमा निर्धारित की गई थी पर पिछली शताब्दी में आग्नेयास्त्रों का सामना करने और उनके बीच सनसनाते हुए आगे बढ़ते जाने तथा शत्रु के बारूद खाने पर कब्जा करने का नया कीर्तिमान स्थापित किया गया है।
विद्वानों की बिरादरी का कोई भी व्यक्ति कितने ही ग्रन्थों में पारंगत हो सकता है और उसकी स्मरण शक्ति कितनी तीव्र हो सकती है, इसका अनुमान भूतकाल के सर्वोत्तम समझे जाने वाले विद्वानों की सफलताओं को देखते हुए किया गया था। पर वर्तमान शताब्दी में वे पुरातन निर्धारण टूट गये और यह कहना पड़ा कि मानवी बुद्धि की कोई सीमा निर्धारित नहीं हो सकती।
विज्ञान, अन्वेषण, समीक्षा के क्षेत्रों में मानवी आयुष्य को देखते हुए कितनी सफलता सम्भव है, इस पुरातन आधार का अब व्यतिरेक कर दिया गया है और समझा गया है कि मनुष्य की प्रतिभा का कोई अन्त नहीं। इच्छा शक्ति की तीव्रता और निरन्तर अभ्यास के सहारे मनुष्य कितना आगे बढ़ सकता है, इसकी कोई सीमा निर्धारित नहीं की जा सकती। मनुष्य असीम है, उसकी प्रगति और सफलता के सम्बन्ध में यह नहीं कहा जा सकता कि भूतकाल में जो अधिक से अधिक हो सकता है भविष्य में उससे बढ़कर नहीं हो सकता।
किस क्षेत्र में मनुष्य किस सीमा तक आगे बढ़ सकता है और अपने कर्तृत्व को कहाँ तक अग्रगामी बना सकता है। इस सम्बन्ध में कुछ सीमा बन्धन नहीं बाँधा जा सकता। कोई रिकार्ड बुक नहीं बनाई जा सकती कि यही अन्तिम है। मनुष्य की क्षमता असीम है, पर वह विकसित तभी होती है जब मनुष्य अपने संकल्प और प्रयास को ऊँचा उठाता चले। उसके उत्साह और साहस में कमी न पड़े।
दूसरों के लिए आदर्शवादिता का अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करने में भूतकाल के त्यागी तपस्वी ही चरमोत्कर्ष का स्पर्श करते रहे हैं उससे आगे बढ़ने और अपने को महान सिद्ध करने की अब अधिक गुंजाइश नहीं रही यह सोचना व्यर्थ है। स्वयं को कठिनाई में डालकर दूसरों की सेवा साधना में निरत रहने वाले वर्तमान उदाहरण यही बताते हैं।
जहाँ साधनहीनों ने अपने सद्गुणों और श्रेष्ठता सिद्ध करने वाले प्रयासों के आधार पर उन्नति के उच्च शिखर तक पहुँचने में सफलता प्राप्त की है। वहाँ ऐसे लोभ भी कम नहीं हैं जिन्हें सब प्रकार की सुविधा, अनुकूलता होते हुए भी अपने आलस्य प्रमाद में पूर्वजों की सम्पदा और ख्याति को भी धूलि में मिला दिया और दूसरों की सलाह और सहायता मिलने पर भी पतन पराभव के गर्त्त में गिरते चले गये। इसीलिए कहा जाता है कि मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है। उसकी सम्भावनाएं महान हैं।