Magazine - Year 1985 - Version 2
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Language: HINDI
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मानव के परिष्कार एवं उत्कर्ष की भावी सम्भावनाएँ
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मनुष्य मूलतः क्या है? और उसकी मूलभूत−जन्मजात प्रवृत्तियाँ क्या हैं? इस संदर्भ में उसके उद्गम स्रोत पर ध्यान देना चाहिए। वह ईश्वर का ज्येष्ठ पुत्र युवराज है और उसकी विश्व वाटिका को समुन्नत सुविकसित करने के लिए एक कुशल माली की भूमिका निभाने आया है। उसका जन्मजात स्वभाव भी इस भूमिका का निर्वाह कर सकने के सर्वथा उपयुक्त है। शरीर, मानस तन्त्र और भावनाओं का त्रिविधि संस्थान ऐसी दिव्य क्षमताओं और विभूतियों से भरा−पूरा मिला है जिससे जीवन सम्पदा को सार्थक बनाने वाली उच्चस्तरीय भूमिका निभा सके।
आधुनिक वैज्ञानिकों ने इस संदर्भ में भ्रान्त धारणाएँ ही दी हैं और उसके अस्तित्व को हेय स्तर का ठहराया है। कहा है कि जन्मजात रूप से उसे पशु−प्रवृत्तियाँ ही मिली हैं। उनकी पूर्ति से ही से चैन पड़ता है। वही उसे करना चाहिए। इन तथाकथित अन्वेषण कर्ताओं का कहना है कि समुद्र में जैसे एक कोशीय प्राणियों के रूप में जीवन उत्पन्न हुआ, उसी से विभिन्न प्रकार के प्राणी विकसित हुए उसी विकास श्रृंखला में से बन्दर की औलाद के रूप में मानव जीवन प्रकाश में आया। पशु−प्रवृत्तियों के इन विश्लेषण कर्ताओं ने यह कहा है कि सभी जानवर स्वार्थ प्रधान हैं। जहाँ अवसर मिलता है वहाँ आक्रमण करने में नहीं चूकते। यौन स्वेच्छाचार उनकी स्वाभाविक मान्यता है। खतरे की स्थिति में वे लड़ने या भाग खड़े होने की दोनों ही नीतियाँ अपनाते हैं। चूँकि मनुष्य भी एक तरह का पशु है इसलिए उसमें भी यही प्रवृत्तियाँ काम करती हैं, जो अन्यान्यों में हैं। इस प्रतिपादन के हिसाब से नीतिवादी−आदर्शवादी उत्कृष्टता की जड़ कट जाती है और वह नर पशुओं की श्रेणी में ही जा खड़ा होता है। उस प्रतिपादन के अनुसार यदि मनुष्य चोर−उचक्का, व्यभिचारी आक्रमणकारी बनता है तो यह उसकी स्वाभाविकता ही मानी जायेगी।
हमें इन पाश्चात्य प्रतिपादकों की मान्यताओं पर तनिक भी ध्यान नहीं देना चाहिए और पूछना चाहिए कि यदि जानवर विकसित हो रहे हैं तो मनुष्य शरीर का विकास कब से हुआ और भविष्य में क्या अन्तर पड़ेगा? लाखों वर्षों से मनुष्य इसी स्तर के शरीरों में रह रहा है और उसकी प्रवृत्तियों एवं आदतों में भी कोई अन्तर नहीं पड़ा है। वह सदा से शाकाहारी रहा है। साथ ही उसे नीति, सदाचार, मर्यादा एवं परमार्थ की दृष्टि से भी अपनी गरिमा प्रकट करनी पड़ी है।
मनुष्य देवताओं की सन्तान है। आधुनिक अन्तरिक्ष विज्ञानी भी यह मानने लगे हैं कि मानवी सत्ता किन्हीं उच्च लोकों के समुन्नत प्राणियों की वंशज है। पृथ्वी पर देवलोकवासी असाधारण क्षमता एवं भावना से भरेपूरे लोग समय−समय पर यहाँ आते रहे हैं और धरती को मनुष्य को अधिक सुविकसित स्थिति में पहुँचाने के लिए भावभरा योगदान देते रहे हैं। इन दिनों भी उड़नतश्तरियों के रूप में उस प्रयास के चलते रहने का परिचय मिलता है। पृथ्वी के कितने ही भागों में इस प्रकार के प्रमाण अवशेष भी उपलब्ध हैं।
इन पंक्तियों में उस श्रुति का प्रतिपादन किया जा रहा है जिसमें कहा गया है कि “मनुष्य पूर्ण से उत्पन्न हुआ। पूर्णता युक्त है और अन्त में पूर्ण ही होकर रहेगा।” कभी−कभी कुप्रचलनों का दौर आ जाता है जैसे कि सूर्य चन्द्रमा के उदीयमान होते हुए भी ग्रहण के−बादलों के या कुहरा अन्धड़ के कारण उनका प्रकाश धुँधला पड़ जाता है। जरा-जीर्ण स्थिति में भी भवनों की−प्राणियों की दुर्दशा हो जाती है। ऐसा ही कुछ अवरोध मानवी गरिमा के सम्बन्ध में भी समझा जा सकता है। यह अस्थायी है और आशा की जानी चाहिए कि इसमें जल्दी ही उत्साहवर्द्धक परिवर्तन होने जा रहा है।
इन दिनों शरीर शास्त्री, मनोविज्ञानी, नृतत्ववेत्ता अपने-अपने ढंग से मनुष्य की भावी प्रगति की अपने-अपने ढंग से योजनाएँ बनाने में निरत हैं। भविष्य में मनुष्य अधिक बलिष्ठ, अधिक दीर्घजीवी, अधिक बुद्धिमान और अधिक सुयोग्य बन सके। इसमें सबसे कारगर और सूक्ष्म प्रभाव गुण−सूत्रों का− जीन्स का−जीव रसायनों की हेरा−फेरी का है। साइन्स ने एक सीमा तक इसमें प्रगति कर ली है। तो भी हारमोन्स को उभारने दबाने का प्रयोग हाथ नहीं आया है। विकसित अध्यात्म विज्ञान इस कमी को पूरा कर देगा। और आज की विकसित मनुष्य की कल्पनाओं−आकाँक्षाओं को चरितार्थ होने का अवसर मिलेगा। आहार-विहार में, जो इन दिनों व्यक्तिक्रम चल रहा है वह उतने ही दिन चलेगा जितने समय तक मनुष्य को आरोग्य, दीर्घजीवन और बलिष्ठता का महत्व हृदयंगम नहीं होता। मनुष्य जल्दी ही वस्तुस्थिति को समझ जायेगा और जिह्वा तथा जननेन्द्रिय के असंयम पर अंकुश लगा लेगा।
अतिशय महत्वपूर्ण मनुष्य का मनःसंस्थान है। जीवन पर प्रमुख रूप से वही छाया रहता है। कल्पना−मन, विवेचन−बुद्धि, चित्त−अचेतन और अहं−मान्यता, यही चार क्षेत्र मिल−जुलकर मनुष्य जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को ऊँचा−उठाते या नीचे गिराते हैं। यही है मनःक्षेत्र की धुलाई और रंगाई, जिसे विज्ञान की भाषा में ब्रेन वाशिंग अथवा व्यक्तित्व परिष्कार कहते हैं। यह भी अब बहुत अधिक कठिन नहीं रहा है। विज्ञान ने विभिन्न प्रवृत्तियों के केन्द्र संस्थान खोज निकाले हैं और उनके साथ इलेक्ट्रोडों द्वारा विद्युत प्रवाह जारी करके प्रवृत्तियाँ बदलने में बहुत हद तक सफलता प्राप्त कर ली गई हैं। इन प्रयोगों से प्रभावित शेर, बकरी की तरह सौम्य और बकरा शेर की तरह निर्भय आक्रामक होते देखा गया है। बुढ़ापे में बचपन की कोमलता लाई जा सकती है और बच्चे को बूढ़ों जैसा विचारशील बनाया जा सकता है। यह मानसिक नियन्त्रण यदि स्थायी हो सके और आकाँक्षाओं, भावनाओं, मान्यताओं और विचारणाओं को बदल सकें तो समझना चाहिए कि मानवी काया कल्प का क्षुद्र को महान बनाने वाला वह सूत्र हाथ आ गया।
नीत्से के दर्शन ने हिटलर को जन्म दिया और समूचे जर्मनी को ऐसे आवेश में भर दिया कि वे लोग अपने समुदाय को अति श्रेष्ठ मानने और समस्त विश्व पर शासन स्थापित करने की तैयारी करने लगे। अरविन्द अपने पाण्डीचेरी प्रयोग में सुपरमैन “उत्कृष्ट मानव” की कल्पना भी वे अपने पूर्ण योग के माध्यम से मनुष्य में देवत्व के उदय के रूप में कर रहे थे। यों उनके जीवन काल में वह प्रयास पूरा नहीं हो पाया, पर यह नहीं समझा जाना चाहिए कि वह काम अधूरा ही छूट गया। उसे आगे बढ़ाने के लिए पूर्ण योग का स्थान “प्रज्ञायोग’’ ले रहा है और लक्ष्य की पूर्ति के लिए प्राणप्रण से जुटा है।
भावी देवमानव की विशेषता होगी उसके अन्दर देवत्व का उदय। यदि वह बन पड़ा तो इसकी परिणति निश्चित रूप से धरती पर स्वर्ग के अवतरण के रूप में होगी। देवता धरती पर जन्म लेने की प्रतीक्षा करते रहते हैं और भगवान इसी धरती पर अवतार लेने के लिए दौड़ते आते हैं।
मानवी परिष्कार और विकास का ठीक और सही समय यही है। अपनी-अपनी काम बिरादरियों को वरिष्ठ सिद्ध करने के लिए अनेक देश अनेक बार अपने−अपने ढंग से प्रयत्न एवं उद्घोष करते रहे हैं। किसी समय शक और हूणों की तूती बोलती थी। अंग्रेज भी कभी सारी दुनिया पर छाये रहे। इन दिनों रूस, अमेरिका कम से कम अस्त्रों, अन्वेषणों और अन्तरिक्ष पर आधिपत्य की दृष्टि से तो मूर्धन्य हैं ही। जापान की औद्योगिक क्षमता बढ़ती जा रही है। अन्यान्य देश की सम्पदा और सामर्थ्य की दृष्टि से प्रगति पथ पर बढ़ चलने के लिए अग्रसर हो रहे हैं।
इन सब में महती भूमिका भारत की होने जा रही है। ऋषि परम्परा का अब फिर अभिनव पुनरुत्थान हुआ है। उच्चस्तरीय व्यक्ति संख्या की दृष्टि से कम हों तो भी कोई चिन्ता की बात नहीं। बुद्ध, गाँधी, अरविन्द जैसे आत्मशक्ति के धनी पिछली शताब्दियों में उँगलियों पर गिनने−जितने ही हुए हैं, पर उन्होंने आँधी तूफान की तरह समय को उलट दिया। अब उस प्रक्रिया में फिर उफान आ रहा है। आवश्यक नहीं कि वे व्यक्ति ख्याति प्राप्त ही हों। ऋषि युग में छः पुरुष और एक महिला यह सात ही मूर्धन्य सात ऋषि मूर्धन्य सप्त ऋषियों में गिने गए। पर यह नहीं समझा जाना चाहिए कि उनके अतिरिक्त और उच्चस्तरीय आत्माएँ नहीं थी। इन दिनों सप्त ऋषियों के अवतरण का पुण्य प्रभातकाल है। उनका प्रयास एक ही होगा कि मानवी गरिमा को निकृष्टता के दल दल में से उबार कर परिशोधन किया जाय और आत्मिक दृष्टि से उसे उच्च शिखर तक पहुँचा दिया जाय।
समय की कठिनाइयों में एक ही सबसे बड़ी आवश्यकता है कि मानवी व्यक्तित्व को ओछेपन से विरत करके उसे आदर्शवादी उत्कृष्टता अपनाने के लिए सहमत ही नहीं बाधित भी किया जाय। मनुष्य नीतिवान बने। वासना, तृष्णा और अहन्ता के भव−बन्धन से उबरे और लोभ-मोह की हथकड़ी, बेड़ियों को तोड़ फेंके। इतना भर मोड़−मरोड़ बन पड़ा तो मनुष्य सच्चे अर्थों में मनुष्य कहला सकेगा। उस पर नर−पशु या नर-पिशाच कहलाने का लाँछन न लगेगा। पवित्रता और प्रखरता का पुष्प−परमार्थ में नियोजन हो सके तो हर किसी को महामानवों की श्रेणी में बैठने का अवसर मिलेगा। तब नर को नारायण, पुरुष को पुरुषोत्तम, क्षुद्र को महान कहा जा सकेगा। लिप्सा, लालसा की कुत्साएं जैसे ही सद्भावनाओं की ओर, सत्प्रवृत्तियों की ओर मुड़ी कि सारा वातावरण ही बदल जायेगा। जो गतिविधियाँ चल रही हैं उनमें आश्चर्यजनक परिवर्तन दृष्टिगोचर होगा।
लोग हिल-मिलकर कर रहें−मिल−बाँटकर खाएँ और हलकी-फुलकी, हँसती-हँसती जिन्दगी जिएँ तो किसी को किसी वस्तु का अभाव न रहे। इस धरती का उत्पादन और उत्खनन इतना वैभवशाली है कि उसके रहते किसी को किसी वस्तु की कमी अनुभव न हो। अभाव सर्वथा कृत्रिम है। वे लालसाओं के अत्यधिक बढ़ जाने पर दीखते भर हैं। आलसी और प्रमादी ही दरिद्रता की शिकायत करते हैं। क्षुद्र और संकीर्ण मन वाले कुकर्मी ही विग्रह के बीज बोते और अशान्ति उत्पन्न करते हैं। मनुष्य यदि आत्म−सुधार के निमित्त तत्पर हो सके, गुण−कर्म−स्वभाव को अपनी गरिमा के अनुरूप ढाल सके तो पारस्परिक स्नेह, सद्भाव और सहयोग की कहीं कमी न रहे। यही देवत्व है। इन विशेषताओं और विभूतियाँ का भाण्डागार मानवी अन्तराल में भरा पड़ा है। उसे निखारने और उभारने भर की आवश्यकता है। यह परिवर्तन सरल भी है और सुखद भी।
अगले दिनों मनःस्थिति बदलते ही परिस्थितियाँ बदलने की सम्भावना सुनिश्चित है। अज्ञान, अशक्ति और अभाव से ही प्रायः विपन्नता छायी रहती है। दुर्गति ही दुर्गति की जन्मदात्री है। इन्हें झाडू लेकर बुहार डाला जाय तो कूड़ा−कर्कट जमने में जो दुर्गन्ध और कुरुपता छाई रहती है उसका कहीं अता−पता भी न चलेगा। व्यक्ति के बदलने से युग के बदलने का तथ्य शत−प्रतिशत सत्य है। इस सत्य का प्रत्यक्ष दर्शन निकट भविष्य में निश्चित रूप से किया जा सकेगा, इसमें सन्देह की कहीं गुञ्जाइश नहीं है।