Magazine - Year 1985 - Version 2
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Language: HINDI
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भीतर वाले को सही करें।
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कपड़ों से लिपटा हुआ कलेवर बाहर दिखता है, पर असल में व्यक्ति जो कुछ है भीतर रहता है। बल, बुद्धि, विद्या, प्रतिभा इनमें से बाहर एक भी नहीं दीखती। मलमूत्र की गठरी भर बाहर है। यदि प्राण निकल जाय तो मृत शरीर की कीमत छदाम भी न उठे।
पेड़ का कलेवर कितना विस्तृत दिखता है पर उसके पल्लव, फूल समेत सारा वैभव जड़ों के ऊपर निर्भर रहता है। जड़ें जितनी मोटी और गहरी होती हैं उतनी ही खुराक पेड़ को मिलती है और वह उतना ही अधिक फलता−फूलता है। जड़ें यदि सूखने लगें। उनमें दीमक लगकर खोखली कर दें तो हवा का एक झोंका उस ठूँठ को जमीन पर गिरा देगा।
मिट्टी का ढेला निरर्थक होता है उसका बाजारू मूल्य कुछ भी नहीं। किंतु परमाणुओं के भीतर जो शक्ति भरी रहती है वह असीम होती है। एक कण का मध्यवर्ती नाभिक किसी प्रकार फट पड़े तो इस पूरे क्षेत्र को तहस−नहस कर सकता है।
सूर्य आग का एक गोला भर है। पर पृथ्वी पर उसकी किरणें आती है और उन्हीं से इस लोक की गर्मी रोशनी का सारा काम चलता है। फिर भी सौर−मण्डल को सम्भालने की पूरी जिम्मेदारी सूर्य के मध्य−केन्द्र पर ही है।
शरीर की शोभा चेहरे पर निर्भर है। उसकी गति−विधियाँ हाथ−पैरों के सहारे चलती हैं किन्तु जीवन संचार का रक्त−प्रवाह शरीर के मध्य में विराजमान हृदय के ऊपर निर्भर है, जो दृष्टिगोचर नहीं होता। जो दिखता है, वह तो एक माँस की गठरी भर है। उसकी संचालन क्रिया हृदय पर निर्भर रहती है।
हिरन कस्तूरी की गन्ध बाहर तलाशता है, पर वस्तुतः वह उसकी नाभि में छिपी रहती है बाहर तो उसका खोखला भर दृष्टिगोचर होता है।
किसी फल का जीवन सत्व उसके मध्य भाग में होता है। बीज इसी को कहते हैं। नया वंश उगाने की क्षमता इस बीज में ही होती है। पर वह दिखता नहीं। छिलका दिखता है। गूदा भीतर होता है। गूदे के भीतर वह सत्व रहता है जिसे बीज कहते हैं। छोटा होने पर भी प्राण उसी में होता है।
चलते पहिए हैं। बाहर में दीखते भी वे ही हैं। पर सन्तुलन बनाये रखने की क्षमता उस धुरी में होती है जो बाहर से दृष्टि गोचर नहीं होती।
मनुष्य जो कुछ भी है, भीतर है। जो सोचता है, निर्णय करता है और पराक्रम में जुटता है वह भीतर है बाहर नहीं। इस भीतर वाले को ही देखना परखना चाहिए और उसी को सम्भालना, संजोना, सुधारना और समर्थ बनाना चाहिए। यह सही रहे तो समझना चाहिए कि मनुष्य का व्यक्तित्व और भविष्य सही है। अनदेखे के भीतर ही वह समाया हुआ है, जो देखता है और दिखता नहीं है।
आंखें कितनी बड़ी होती हैं पलक, भवें, पुतली मिलाकर काफी कलेवर उनमें भरा होता है, पर असल में दृष्टा वह है जिसे ‘तिल’ कहते हैं। उसमें अन्तर पड़े तो समूची आंखें बड़ी−बड़ी होने पर भी देखना और दिखना न हो सकेगा। व्यक्ति तिल जैसा है वह भीतर रहता है। उसे सम्भाल लिया जाय तो बाहर का कलेवर सुन्दर हो या कुरूप, छोटा हो या बड़ा उससे कुछ बनता बिगड़ता नहीं। हम भीतर से सही हैं, तो फिर समझना चाहिए कि बाहर वाला भी सब कुछ सही है।