Magazine - Year 1985 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
भगवद् भक्ति में दुराग्रह कैसा?
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
कल जन्माष्टमी का उत्सव था। आज राधा गोविन्द जी के मन्दिर में नन्दोत्सव है। दक्षिणेश्वर के काली मन्दिरों की सजावट आज देखते ही बनती है। भक्तजनों के झुण्ड के झुण्ड गोविंद जी के दर्शनों के लिये आ रहे हैं। कीर्तन अपनी चरम सीमा पर है। भक्ति रस की धारा प्रवाहित हो रही है।
दोपहर के भोग के पश्चात् गोविन्द जी के विग्रह को शयन के लिये भीतरी प्रकोष्ठ में ले जाते समय पूजक क्षेत्रनाथ का पाँव फिसल जाने से रंग में भंग हो गया। वह मूर्ति सहित फर्श पर जा गिरे, जिससे मूर्ति का एक पाँव टूट गया। भक्ति रस की धारा मन्द पड़ गयी उसके स्थान पर भय और आशंका के मेघ मंडराने लगे। मन्दिर में बड़ा कोलाहल मच उठा। अपने−अपने मन से सभी भावी अमंगल की सूचना दे रहे थे। सबके चेहरों पर भय की रेखायें खिंच गयीं। निश्चय ही कोई सेवा अपराध हुआ है। उसका दण्ड अमंगल के रूप में सबको भोगना होगा।
रानी रासमणी ने सुना तो वह एक दम सिहर उठी। अब क्या होगा। किन्तु जो कुछ हो चुका था, उसे टाल सकने की सामर्थ्य किस में थी। अब क्या किया जाय, इसके लिये पण्डितों की सभा बुलायी गयी। पण्डित लोगों ने ग्रन्थ देखे सोच−विचार किया और यह विधान दिया भग्न विग्रह को गंगा में विसर्जित करके उसके स्थान पर नयी मूर्ति की स्थापना की जाय।
रानी रासमणी को पंडितों का यह निष्ठुर विधा रुचा नहीं किन्तु उसके हाथ की बात भी क्या थी। ब्राह्मणों की संपत्ति को टालना उसके बस में कहाँ था। निदान नयी मूर्ति बनवाने का आदेश दे दिया गया। रानी उदास हो गयी। भला इतनी श्रद्धा और प्रेम से जिन गोविंद जी को इतने दिन पूजा जाता रहा, उन्हें थोड़ी-सी बात पर जल में विसर्जित कर देने का कारण उसकी समझ में नहीं आया।
जमाता मधुरबाबू रानी की इस उदासी का ताड़ गये। उन्होंने सम्मति दी− ‘रानी माँ क्यों न इस विषय में छोटे भट्टाचार्य (स्वामी रामकृष्ण परमहंस) की राय जान ली जाय?
रानी स्वामी रामकृष्ण पर विशेष श्रद्धा रखती थीं। उनकी अनूठी निष्ठा व भक्ति के कारण वे उनके द्वारा दिये जाने वाले निर्णय को स्वीकार करने की स्थिति में भी थीं। रानी ने अपने मन की व्यथा रामकृष्ण से कह सुनायी। सुनकर उन्होंने रानी से प्रश्न किया−यदि आपके जमाताओं में से किसी एक का पाँव टूट जाता तो वह उनकी चिकित्सा करवातीं या उनके स्थान पर दूसरे को ले आतीं?
‘मैं अपने जमाता की चिकित्सा कराती, उन्हें त्याग कर दूसरे नहीं ले आती।
‘बस उसी प्रकार विग्रह के टूटे पैर को जोड़कर उसकी सेवा-पूजा यथावत् होती रहे तो उसमें दोष ही क्या है।’
श्री रामकृष्ण परमहंस के इस सहज विधान को सुन कर रानी हर्षित हो उठीं। यद्यपि उनकी यह व्यवस्था ब्राह्मणों के मनोनुकूल नहीं थी। उन्होंने उसका विरोध भी किया पर अब रानी का धर्म संकट समाप्त हो चुका था। उसे स्वामी जी की बात ही पसन्द थी। उसने ब्राह्मणों के विरोध की चिन्ता नहीं की। स्वामी जी ने टूटे विग्रह के पाँव को ऐसा जोड़ दिया कि कुछ पता ही नहीं चलता। पूजा−सेवा उसी प्रकार चलती रही।
एक दिन किन्हीं जमींदार महाशय ने उनसे पूछा− मैंने सुना है आपके गोविन्द जी टूटे हैं। इस पर वे हँसकर बोले− ‘आप भी कैसी भोली बातें करते हैं, जो अखण्ड−मंडलाकार हैं, वे कहीं टूटे हो सकते हैं।