Magazine - Year 1985 - Version 2
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Language: HINDI
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विभीषिकाओं की काली घटाएं बरसने न पाएंगी।
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प्रकृति में विकृतियों की भरमार होती है तो मानवी मस्तिष्क गड़बड़ाने लगता है और ऐसे कर्म करने पर उतारू होता है जो प्रस्तुत विपत्तियों को और भी बढ़ा दें।
यह कथन भी गलत नहीं है कि जब मनुष्य का चिंतन गड़बड़ाता है तो प्रकृति का संतुलन बिगड़ जाता है और वायुमंडल, वनस्पति जगत, छोटे-बड़े जीवधारी, उलटी दिशा में चलने लगते हैं और उस प्रवाह का असर मनुष्य की प्रकृति पर पड़ता है।
दोनों ही प्रतिपादन अपनी-अपनी जगह पर सही हैं। पर यह कहना कठिन है कि बीज किस कहा जाय और परिणति किसे।
प्रायः आधी शताब्दी से विकृतियों का ऐसा ही दौर चल रहा है। द्वितीय महायुद्ध के बाद विश्व के महान नेताओं ने मिलजुलकर स्थायी शांति स्थापना के लिए बड़ी योजनाएं बनाई थीं और बड़े निश्चय किये थे। किन्तु उन दस्तावेज की स्याही भी सूखने न पाई थी कि परस्पर संदेह, अविश्वास और विद्वेष के विष बीज अंकुरित होने शुरू हो गये। इस अवधि में राजनैतिक कुटिलताएं सभी पक्षों से अपने दांव-पेंच चलाने में चूकी नहीं हैं। विज्ञान के आविष्कार आश्चर्यजनक हुए हैं, पर वे ऐसे हुए हैं जो विनाश के काम आयें। पूंजी का विनियोग ऐसे कामों में हुआ है जिससे पतन और पराभव का ही उत्पादन हो सके। बुद्धिमानों-कलाकारों ने जो कुछ उगाया है उसे मानव भविष्य के लिए संकट उत्पन्न करने वाला ही कह सकते हैं।
विगत पचास वर्षों में अंतरिक्षीय वातावरण भी ऐसा बना है जो पृथ्वी के लिए, पृथ्वी निवासियों के लिए संकट ही उत्पन्न कर सकता था। इन्हीं दुर्दिनों के बीच पिछले पचास वर्ष गुजरे हैं उनमें हैरानियां किस कदर बढ़ी है। इसका लेखा-जोखा लेने पर प्रतीत होता है कि सर्वनाश जैसा कुछ हुआ तो नहीं, पर उसकी पृष्ठभूमि निश्चित रूप से बनी है और इस संभावना का पथ-प्रशस्त हुआ कि निकट भविष्य में मनुष्य की गतिविधियां और प्रकृतिगत हलचलें दोनों ही अशुभ की दिशा में चल रही हैं और उसके प्रमाण परिचय अनेकानेक दुर्घटनाओं के रूप में जहां-तहां से फूटते रहे हैं। मनुष्य के उद्वेग अपने ढंग से भड़के हैं और प्रकृतिगत उत्पातों ने छोटे-बड़े कितनी ही विभीषिकाओं के रूप में अपना परिचय दिया है। कोई वर्ष चैन से नहीं बीता।
हमारे हिमालय जाने के वर्षों में स्थिति स्पष्ट होती गई कि दोनों ही ओर से आमने-सामने से घटाएं आकर आपस में टकरा रही हैं। दोनों ही पक्ष समान रूप से दोषी हैं। प्रकृति मनुष्यों को उत्तेजित कर रही है और मनुष्य प्रकृतिक्रम को उद्धत बना रहे हैं।
अभी क्रम धीमा चला है और घटनाएं बीच-बीच में अवकाश एवं दूरी देकर घटित होती रही हैं। इसलिए दूरवर्ती मनुष्य के लिए सभी को एक साथ मिलाकर देख सकना संभव नहीं हो रहा है। पर यदि कोई इन सबको श्रृंखलाबद्ध देखे तो मालूम पड़ेगा कि प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध में मिलाकर जितनी धन जन की हानि हुई थी। उससे कम नहीं कहीं अधिक क्षति शीतयुद्ध की इस अवधि में उठाई जा सकी। वृक्ष वनस्पति कटने से लेकर, अंतर्ग्रही यात्राओं और रोमांचकारी आविष्कारों ने ऐसी भूमिका बनाई है जिससे अणु युद्ध न होने पर भी मनुष्य अपनी वरिष्ठता गंवा बैठेगा और इस धरती का वातावरण प्राणियों के रहने योग्य न रह जायेगा।
इन विभीषिकाओं को अधिक अच्छी तरह हिमालय की ऊंचाई पर चढ़कर देख सकना हमारे लिए संभव हो सका। मार्गदर्शक ने अपने दिव्य चक्षु देकर उस धुंधले को और भी स्पष्ट कर दिया।
प्रकृति की विशालता और मनुष्य की सशक्तता मिलकर जब मल्लयुद्ध करेंगी और दो सांडों की तरह समूचे क्षेत्र को विस्मार कर देने की ठाने ठानेंगी तो भवितव्यता कितनी जटिल होंगी यह समझने में−हस्तामलववत् देखने में देर न लगी।
हमारी नगण्य-सी साधना और सूक्ष्म शरीरधारी ऋषियों की उस क्षेत्र में उपस्थित क्या मिल-जुलकर दोनों पक्षों को अपनी हठवादिता छोड़ने के लिए विवश नहीं कर सकते? उत्तर अन्तरिक्ष में से उभरा कि ‘कर सकते हैं’ −और उन्हें करना चाहिए।
हिमालय हमें मार्गदर्शक सत्ता के पास चार बार जाना पड़ा। एक ही प्रश्न मनःक्षेत्र पर छाया रहा कि प्रस्तुत विभीषिकाओं को हर कीमत पर निरस्त किया जाना चाहिए। एक घटना स्मरण आई। दो दुर्दान्त साँड एकबार आपस में पूरे आवेश में लड़ रहे थे। लगता था कि वे एक-दूसरे का पेट फाड़ कर रहेंगे। जस खेत में लड़ रहे थे। उसका सर्वनाश करके रहेंगे। इतने में स्वामी दयानन्द उधर से निकले। उनने दोनों को ललकारा। न हटे तो दोनों के सींग पकड़ कर मरोड़े और पूरा बल लगाकर दोनों को दोनों दिशा में फेंक दिया। वे उल्टे गिरे और भयभीत होकर जान बचाने के लिए भाग खड़े हुए। इस घटना की पुनरावृत्ति आज के जमाने में भी सम्भव है। मनुष्य की दुर्बुद्धि और प्रकृति की विकृति यह दोनों ही ऐसे साँड हैं जिन्हें सींग पकड़कर उमेटा और विपरीत दिशा में धकेल दिया जाना चाहिए।
इन दिनों वही प्रयास चल रहा है। सन् 2000 तक दोनों ही काबू में आजायेंगे इस बीज वे घायल तो जहाँ तहाँ हो चुके होंगे। पर सर्वनाश की जो सम्भावना दृष्टिगोचर हो रही है वह रुक जायेगी।
विश्व राजनीति में रूस और अमेरिका का विग्रह अणु युद्ध की प्रलय उपस्थित करते दीख रहा है। पर दैवी प्रयास दोनों को ही समझ देंगे और बढ़े हुए कदम पीछे हट जायेंगे। भारत में साम्प्रदायिक और प्रांतीयतावाद अपना विकराल रूप प्रस्तुत कर रहे हैं। इनकी जलती आग भी ठंडी हो जायेगी। प्रकृति के साथ खिलवाड़ करने के जो उद्धत प्रयत्न चल रहे हैं, वे समझदारी अपनाकर वह करेंगे जिससे संकट टल सके। लंका−दमन के साथ−साथ रामराज्य स्थापन के सतयुगी प्रयास भी चल पड़े थे। विनाश के प्रस्तुत अनेकानेक उपक्रमों पर पानी बरसाने वाले फायर ब्रिगेड चालू कर दिये गये हैं और दुर्भिक्ष की सम्भावना वाली वे घटाएँ बरसाई जा रही हैं, जो कुछ ही दिन में मनुष्यों, पशुओं का पेट भरने वाली हरीतिमा उगाकर ग्रीष्म की दुर्भिक्ष विभीषिका का पूरी तरह समापन कर दें।
हमें पूरा विश्वास है कि मनुष्य की समझ लौटेगी। परमसत्ता का सहयोग मिलेगा, प्रकृति अनुग्रह करेगी। बुरे समय की सम्भावना अब समाप्त ही होने जा रही है, यह हमारी आने वाले कल के संबंध में भविष्यवाणी है।
इस परम पुरुषार्थ के निमित्त ही इन दिनों हम अपने पाँच प्रतिनिधि विनिर्मित करने में लगे हुए हैं। मौन और एकान्त साधना के उपक्रम के साथ−साथ प्रजनन जैसी अतीव कठोर तपश्चर्या चल रही है। यह प्रतिनिधि अथवा वंशज हमसे किसी प्रकार दुर्बल न होंगे। वरन् सूक्ष्म शरीरधारी होने के कारण संसार में फैले हुए प्रतिभावानों को झकझोर कर नवसृजन योजना में उसी प्रकार बलपूर्वक संलग्न करेंगे जैसा कि हमारे मार्गदर्शक ने हमें किया है।
बुद्धिजीवी (2) शासक (3) कलाकार (4) सम्पन्न तथा (5) भावनाशील वर्ग के लोग कम नहीं हैं। इनमें से कितने ही निकट भविष्य में अपनी क्षमताओं को स्वार्थ से हटाकर परमार्थ में नियोजित करेंगे और वातावरण आश्चर्यजनक रूप से बदला हुआ प्रतीत होगा।
सन् 2000 तक हमारा अस्तित्व बना रहेगा और हम अपनी भूमिका अब से भी अधिक अच्छी तरह निभाते रहेंगे। यह हो सकता है इस बीच हम वर्तमान शरीर को त्याग दें। हिमालय के ऋषि में रहकर उनके साथ मिल−जुलकर सूक्ष्म शरीर से काम करें। जो भी करना होगा उसमें हमारा मार्गदर्शक साथ रहेगा। उसके मार्गदर्शन में हमने और हमारे संपर्क क्षेत्र में कल्याण मार्ग का ही नियोजन हुआ है। आगे जो होने वाला है उस भविष्य को विगत भूतकाल की तुलना में अधिक श्रेष्ठ और शानदार ही माना जाना चाहिए। इस सम्बन्ध में किसी को किसी प्रकार का कोई सन्देह न रहेगा, जब पाठक गण हमारी जीवनचर्या एवं भावी भूमिका को अगले अंक में पढ़ेंगे।