Magazine - Year 1986 - Version 2
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Language: HINDI
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विज्ञान ही नहीं अध्यात्म भी
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विज्ञान ने अपने समय में अत्यधिक प्रतिष्ठा प्राप्त की है। वह प्रत्यक्षवाद का समर्थक है और सुविधा, क्षमताओं का अभिवर्धन करता है। प्रकृति के गुह्य रहस्यों को खोजने और हस्तगत करने के उपरान्त मनुष्य की साधन संपन्नता में अत्यधिक वृद्धि हुई है। इस पर उसे गर्व भी है और साथ ही पुरातन प्रतिपादनों के प्रति तिरस्कार भी।
वैज्ञानिक अन्वेषण यदि मनुष्य को अधिक सम्पन्न बनाने तक सीमित रहता तो हर्ज नहीं था। पर उस पर नीति निष्ठा और मानवी गरिमा का अंकुश रहना चाहिए था। मानवी चेतना का भी अपना विज्ञान है। पदार्थ की तुलना में उसकी शक्ति सामर्थ्य किसी प्रकार कम नहीं है। अन्तःचेतना की उत्कृष्टता का समावेश रहने पर वह मानवी गरिमा के अनुरूप, चिन्तन, चरित्र और व्यवहार अपनाने के लिए बाधित करती है। किन्तु यदि उसे साधनों की अहंमन्यता से उपेक्षित तिरस्कृत किया जाने लगे तो फिर उद्दण्डता ही हाथ रह जाती है। व्यक्ति वर्जनाओं को तोड़ता-मरोड़ता वह करने पर उतारू होता है जिससे उसकी गरिमा और महिमा का दिवाला ही निकल जाय।
माना कि विज्ञान के पदार्थ शक्ति और प्रकृति गरिमा का बहुत बड़ा अंश अपने काबू में कर लिया है। जलचरों की तरह जलाशयों में- नभचरों की तरह आकाश में उसने प्रवेश पा लिया है। भूमि का गहरा उत्खनन करके उसकी खनिज सम्पदा को खुले हाथों से बटोरा है। जन संहार के ऐसे विचित्र आयुध विनिर्मित कर लिये हैं जो समूचे भू-मण्डल को भस्मसात् कर सके। किन्तु देखना यह भी होगा कि इन उपलब्धियों में मनुष्य की गरिमा और सुसम्पन्नता में प्रगति में कुछ वास्तविक योगदान मिला या नहीं। विचारने पर नकारात्मक और निराशाजनक उत्तर ही हाथ लगते हैं।
विज्ञान ने पदार्थ का- प्रकृति का स्वेच्छाचारी उपयोग किया है। इसलिए निस्सन्देह शक्ति और सामर्थ्य के अद्भुत स्रोत उसके हाथ आये हैं, पर उससे उसका लालच विलास और स्वार्थ ही उद्धत हुआ है। धनाढ्यों ने उन विलक्षणों को हस्तगत कर लिया है। कल-कारखाने उन्हीं के हाथ हैं। वे सोना उगलते हैं सम्पन्नों को कुबेर की पदवी तक पहुंचाने का प्रयत्न करते हैं। पर इसका दूसरा काला पहलू भी है। कारखाने विष उगलते हैं वे वायु, जल और भूमि की जीवनी शक्ति का नष्ट करते हैं और प्रयोक्ताओं को जर्जर बनाते हैं। बेकारी के साथ जुड़ी हुई व्यापक गरीबी भी इन्हीं कारखानों की देन है। मुट्ठी भर लोग उनमें काम तो प्राप्त करते हैं और वेतन भी अच्छा पाते हैं। किन्तु इस कारण जितने लोगों को बेकारी और गरीबी का अभिशाप सहना पड़ता है वह दर्द भरी कहानी है। औद्योगीकरण आकर्षण और चमकदार तो लगता है। उसके कारण बहुमंजिले भवन और होटल भी खड़े होते हैं पर इस तथ्य से भी इन्कार नहीं किया जा सकता है कि यह सम्पदा के झोपड़ों की तरी खींच कर ही सम्भव होता है। यह प्रत्यक्ष देखा जा सकता है कि गरीब दिनोंदिन अधिक गरीब बन रहे हैं और अमीर अधिक अमीर। इसमें विज्ञान का प्रमुख योगदान है। ऐसी दशा में उसे श्रेयाधिकारी नहीं ठहराया जा सकता। भले ही उसने चमत्कार कितने ही बड़े क्यों न एकत्रित कर लिये हों।
कभी शरीर बल और बुद्धि बल का महत्व था। लोग उसे अर्जित करने के लिए श्रम एवं प्रयास करते थे पर अब मशीनगनों और कम्प्यूटरों के युग में इस प्रकार के प्रयत्नों की कोई आवश्यकता रह नहीं गई है। शक्ति का केन्द्रीकरण करने में विज्ञान की महती भूमिका है। उसमें सम्पदा सुविधा को जन-साधारण तक पहुँचने का मार्ग अवरुद्ध कर दिया है। वह चतुरों और सम्पन्नों तक ही सीमित बनकर रह गई है। कृत्रिम उत्पादनों ने सौम्य सुखद और सरल उर्वरता को निरर्थक बना दिया है। मानवी श्रम और कौशल धीरे-धीरे अधोगति की ओर चल रहा है। मानवी प्रतिभा अनावश्यक और निरुपयोगी बनकर रह गई है। कष्टसाध्य उपार्जन में कोई क्यों रुचि ले?
वैज्ञानिक उपकरण सहज सम्पन्नता बढ़ाते हैं। औसत स्तर से बढ़ी हुई सम्पन्नता उद्धत विलासिता को प्रोत्साहन देती है। उस जलाशय को खाली करने वाली यही एक नाली है जिसमें होकर वह गन्दगी निकलती है। शरीर में बढ़ा हुआ जलाशय मूत्र मार्ग से ही निकलता है। इसी प्रकार अनीति का अथवा जनसाधारण की अपेक्षा अत्यधिक बढ़ी-चढ़ी कमाई- विलास और अहंकार प्रदर्शन में ही खर्च होती है। व्यसन और दुष्प्रवृत्तियाँ ही उन पर झपटती हैं। ऐसी दशा में मनुष्य का अन्तस् पौरुष और वर्चस्व नीचे ही गिरता है। विलासी आधि-व्याधियों से ग्रसित होते, अपयश बटोरते और पाप के भागी बनते हैं, इसे हर कोई जानता है। इतना घाटा उठाकर विलासी सम्पन्नता का क्षणिक लाभ यदि किसी ने किसी मात्रा में उठा भी लिया तो क्या?
यहाँ विज्ञान की निन्दा नहीं की जा रही क्योंकि वह भी एक पौरुष और कौशल है। पर व्यवधान वहाँ अड़ जाता है जहाँ उसकी प्रतिक्रिया उस उद्दण्डता के रूप में उभरती है जो नीति-निष्ठा को भी प्रतिगामिता स्तर भी ठहराकर उसकी उपेक्षा अवज्ञा करती है।
सन्तुलन तब बनता है जब पदार्थ विज्ञान के समकक्ष आत्म विज्ञान का भी विकास विस्तार हो। मनुष्य के चिन्तन में आदर्शों का समुचित समावेश हो। चरित्र में उत्कृष्टता और व्यवहार में शालीनता की अभीष्ट मात्रा बनी रहे। यह एक चेतना की उत्कृष्टता की परिणतियाँ हैं। दया और करुणा का निर्झर इसी स्रोत से बहते हैं। अहंमन्यता पर अंकुश लगने का यही आधार है, सौम्य, सज्जन, सहिष्णुता और मृदुला और उद्धार बना अन्तःकरण की गरिमा में ही असम्भव है। अन्यथा अन्य कला-कौशलों की तरह चाटुकारिता और धूर्तता ही मनुष्य के स्वभाव में सम्मिलित होती है। उससे कोई स्वार्थ कितना ही क्यों न साध ले, पर नीति निष्ठा का निर्वाह बहुत हद तक नहीं कर सकता। यह न बन पड़े तो समझना चाहिए कि मनुष्य वनमानुष और नर पशु की तरह ही जीवन निर्वाह कर रहा है। भले ही वह चतुरता और धूर्तता के क्षेत्र में कितना ही बढ़ा-चढ़ा क्यों न हो।
चेतना का परिष्कार उससे कहीं अधिक श्रेयस्कर है जितना कि पदार्थ विज्ञान का आविष्कार अभ्युदय। उस आधार पर लोग स्वल्प साधनों में भी मिल-बांटकर खा सकते और हँसती-हँसाती जिन्दगी जी सकते हैं। जबकि निष्ठुरों की सम्पन्नता समाज में अनेक विग्रह खड़े करती है। ईर्ष्या, द्वेष और छल कपट के बीज बोती है। विज्ञान के आधार पर हमें शक्ति सम्पन्नता और सुविधा कितनी ही उत्पन्न क्यों न करें पर उसका उपयोग सदुद्देश्यों के लिए श्रेष्ठता और समता के संवर्धन में ही होना चाहिए। यह प्रक्रिया सहज ही नहीं अपनाई जा सकती। क्योंकि प्रचलन स्वार्थपरता और धूर्तता का ही है। अनुकरण भी सामान्यजनों द्वारा उसी का होता है।
चेतना की उत्कृष्टता का नाम ही अध्यात्म है। उस को उपलब्ध करने के लिए स्वाध्याय सत्संग, जप, और पूजा पाठ की प्रक्रिया अपनाई जाती है। अन्यथा वह सारा क्रिया-कृत्य विडंबना मात्र बनकर रह जाता है और मिथ्या भ्रम जंजाल में फंसे रहने की मनःस्थिति बन जाती है। अध्यात्म तत्वज्ञान का सार संक्षेप इतने ही है कि मनुष्य श्रेष्ठ और उदार बने, पवित्र और प्रखर रहे। विज्ञान अपनी जगह प्रशंसनीय है, अध्यात्म के साथ-साथ चलकर ही वह अभिनन्दनीय बनता है।