Magazine - Year 1986 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
प्रेम एक - रूप अनेक
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
प्रेम शब्द इतना ऊँचा है कि उसे ईश्वर के समतुल्य ही कह सकते हैं। श्रुति वचन है- “रसौ वैसः” अर्थात् वह परमपिता प्रेम रूप ही है। जिसके अन्तराल में प्रेम की स्थापना एवं स्फुरणा विद्यमान है, समझना चाहिए कि उसके अन्तराल में ईश्वर का ही निवास है। ईश्वर भावमय है। उसकी छवि यह सारा ब्रह्मांड है। प्रतिमाएँ प्राणियों एवं पदार्थ की होती हैं। ईश्वर न पदार्थ है, न प्राणी। वह व्यापक और उत्कृष्टता सम्पन्न है। उसकी महत्ता की अनुभूति भाव-सम्वेदनाओं में ही अवतरित होती है। इसी से ईश्वर प्राप्ति का उपाय भक्ति मार्ग बताया गया है। भक्ति का अर्थ है- प्रेम, आत्मभाव- सेवा साधना।
भक्ति का आरम्भिक अभ्यास भले ही साकार या निराकार रूप में किया जाय पर उसका व्यावहारिक स्वरूप आत्मभाव ही है। हम अपने को सबसे अधिक प्यार करते हैं। अपने सुख साधनों के लिए कर्म-कुकर्म कुछ भी करते रहते हैं। अपने दुःख निवारण के लिए जो बन पड़ता है, उसे उठा नहीं रखते। यही आत्मभाव अपने तक सीमित न रहकर दूसरों में बिखर जाता है तो उसे प्रेम योग कहते हैं। उच्चस्तरीय स्वार्थ को ही परमार्थ कहते हैं। आत्मकल्याण के लिए जो आदर्शवादी प्रेरणाप्रद कार्य किये जाते हैं, उन्हें भी आत्मप्रेम कहा जाता है। वह जब ‘स्व’ की सीमित परिधि को लांघकर व्यापक बन जाता है, स्व के प्रति आत्मीयता उभरती है तो वे भी प्रेमी या प्रेम पात्र बन जाते हैं। जब अपने अन्तःकरण में संव्याप्त ईश्वर सीमित न रहकर असीम बन जाता है और उसका आनन्द एवं प्रतिफल भी उसी अनुपात में बढ़ता जाता है।
प्रेम शब्द प्रचलित अर्थ में लगभग महाशक्ति के रूप में परिणत हो गया है। किसी सुन्दर नर-नारी को देखकर वासनात्मक आकुलता उठती है और उसे सहमत करने के लिए जो प्रपंच रचा जाता है उसे भी प्रेम नाम की लपेट में ले लिया जाता है। यद्यपि वह है विशुद्ध व्यभिचार। अपने को व दूसरों को पतन के गर्त में गिराने के समान है। इसे लिप्सा भर कहा जा सकता है या विकृत कामुकता नाम दिया जा सकता है।
नर और नारी के मध्य प्रेम हो तो वह कोई बुरी बात नहीं है। पर वह आयु के हिसाब से माता, भगिनी, पुत्री के स्तर का होना चाहिए। पत्नी के प्रति भी रमणी कामिनी एवं भोग्या का रूप नहीं होना चाहिए। उसे भी मित्र, साथी, सहयोगी के स्वरूप में ही अंगीकार किया जाना चाहिए और दोनों को मिलजुलकर एक दूसरे के जीवन क्रम में उत्कृष्ट प्रगतिशीलता भरते हुए सहायक होना चाहिए। नारी निन्दा का शास्त्रों में कई जगह उल्लेख आता है। उसका तात्पर्य मात्र इतना ही समझा जाय कि जब कामुकता के नाग पाश में दोनों पक्ष बंधते हैं तो क्षणिक लिप्सा के निमित्त एक-दूसरे का शोषण ही करते हैं। उनको उत्थान से विरत करके शारीरिक और मानसिक दृष्टि से दुर्बल या हेय ही बनाते हैं। दांपत्ति जीवन स्नेह सद्भाव गहरे से गहरा हो किन्तु उसका प्रयोजन मात्र आत्मीयता को द्विगुणित करना और उस घनिष्ठता के माध्यम से संयुक्त जीवन को सुखद, समुन्नत एवं सरस बनाना होना चाहिए। पुरुष के लिए अन्य नारियाँ देवी तुल्य और नारी के लिए नर समुदाय भाई जैसी पवित्रता से बँधा होना चाहिए। रमणी की उत्तेजक मुद्रा ही ऐसी है, जिसे पतन के गर्त में गिरने वाली हेय स्तर की कहा गया है।
प्रेम का बखान इन दिनों नर-नारी के बीच उत्तेजक आकर्षण के रूप में सौंदर्य यौवन के रूप में ही किया जाता है। वृद्ध माता, दादी अथवा स्नेह सिक्त बालिका को प्रेम व श्रद्धा का भाजन बनाने में अभिरुचि नहीं होती। इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए।
प्रेम नर और नर तथा नारी और नारी के बीच भी उतनी ही उत्कृष्टता के साथ निभ सकता है। परिवार की सीमा में भाई, भतीजे, पिता, चाचा, ताऊ के रूप में और नारियों में माता, दादी, चाची, भाभी, बुआ आदि के रूप में उतनी ही श्रद्धासिक्त घनिष्ठता को देखा जा सकता है। प्रेम बड़ों के साथ श्रद्धा के रूप में और छोटों के साथ वात्सल्य के रूप में प्रकट होता है। सज्जन, सद्गुणी, सेवाभावी लोगों के बीच वह ऐसी ही सम्मानास्पद भावना के साथ देखा जा सकता है।
परिवार की सीमा से आगे बढ़कर समाज का वह भाग आता है जो अपने संपर्क का है। इसमें पड़ौसी, परिचित, मित्र सम्बन्धी, कुटुम्बी आदि आते हैं। इनमें से प्रत्येक को अवसर विशेषों पर मित्र सम्बन्धियों की आवश्यकता पड़ती है। दुख बँटाने और सुख बाँटने की वस्तु है। जिनसे वास्ता पड़ता है, उनके सुख को बढ़ाने में दुःख घटाने में हमें भागीदार रहना चाहिए।
सबसे बड़ी सेवा यह है कि हर व्यक्ति का जीवन स्तर पवित्र ओर प्रखर बनाया जाय। इसके लिए सम्बन्धित समुदाय को सत्साहित्य द्वारा ऐसी सुविधा उपलब्ध करानी चाहिए जिससे वे अपने दुर्गुणों का निराकरण कर सकें और सद्गुणों को बढ़ा सकें। ऐसा सत्संग जहाँ होता है, उन आयोजनों में, सत्साहित्य वाले पुस्तकालयों में उन्हें घसीट कर ले जाना चाहिए। ताकि दोषों के प्रति घृणा और गुणों के प्रति लगाव दिनोंदिन बढ़ता रहे। यह बिना खर्च किए दूसरों का वास्तविक हित साधन करने का सर्वश्रेष्ठ तरीका है।
इसके बाद चहुँ ओर संव्याप्त समाज आता है। वह समाज जिससे हमारा सीधा वास्ता नहीं पड़ता, उन तक हम अपनी सहानुभूति सम्वेदना पहुँचा सकते हैं। आर्थिक सहायता पहुँचा सकते हैं। अनीति की निन्दा करने से वह दुर्बल पड़ती है और नीति को प्रोत्साहन देने से उसको बल मिलता है। संसार में क्या हो रहा है, इस दिशा में हमें निरपेक्ष होकर नहीं बैठ जाना चाहिए। उसमें जितना भी सम्भव हो, उतना समर्थन या विरोध अवश्य करना चाहिए। मनुष्य जाति में फैली अवाँछनीयताओं, मूढ़ मान्यताओं- अन्धविश्वास- अनाचार को मिटाने या घटाने के लिए संघर्ष करना भी उतना ही आवश्यक एवं महत्वपूर्ण है, जितना कि सत्प्रवृत्तियों का सम्वर्धन और दान-पुण्य।
डाक्टर रोगी का आपरेशन करता है। उस शल्य क्रिया में भी चाकू का प्रयोग होता है और रक्त बहता है। इतने पर भी उसे कसाई नहीं कहा जा सकता। क्योंकि उसका उद्देश्य रोग विकृति को हटाना और रोगी को निरोग बनाना है। इसी प्रकार अनीति के विरुद्ध संघर्ष करना भी उतना ही श्रेयस्कर है जितना कि अभाव ग्रस्तों को दान-पुण्य करना या उनकी सेवा सहायता करना।
प्रेम की परिधि मात्र मनुष्य समुदाय तक ही सीमित नहीं रहती। इस धरती पर अन्य प्राणी भी रहते हैं। पशु पक्षियों का तो विशेष रूप से संपर्क रहता है। कुछ तो उनमें से पालतू भी रहते हैं। इन सभी के साथ वैसा ही व्यवहार होना चाहिए जैसा कि सृष्टा के सभी पुत्रों के साथ किया जाना चाहिए। क्रूरता, निर्दयता, निष्ठुरता का व्यवहार किसी भी प्राणी के साथ करना मनुष्यता के अनुरूप नहीं है। प्राणियों के अतिरिक्त संसाधनों, पदार्थों की स्थिति है। वे भी सभी प्राणियों की सुविधा तथा सृष्टि का सन्तुलन बनाये रखने के लिए है। अगर उनको अनुचित रूप से बर्बाद किया जाएगा तो उस उद्दंडता का प्रतिफल समस्त सृष्टि को भुगतना पड़ेगा। इसलिये सृष्टि में उपलब्ध सभी पदार्थों को भी अनिवार्य आवश्यकता जितनी मात्रा में ही प्रयुक्त करना चाहिए। प्रेम का इतना विस्तार हो, तभी समझना चाहिए कि हमने भक्ति भाव का महत्व सही अर्थों में समझा और उसे सार्थक रूप में अपनाया।