Magazine - Year 1987 - Version 2
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Language: HINDI
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कुविचार अपनाने से ही विपत्तियाँ बढ़ी हैं
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अन्ध-विश्वासों से मनुष्य इस कदर जकड़ा हुआ है कि आँखों के अतिरिक्त और किसी पर भी विश्वास नहीं करता। बुद्धि का भोंतरापन इतना बढ़ गया है कि पर्दे के पीछे रखे हुए प्रत्यक्ष पदार्थ को देख समझ पाने में भी कठिनाई होती है।
प्रकाश का अभाव ही अंधकार है। वैसे अंधकार की कोई सत्ता नहीं। उसे नापा नहीं जा सकता। फिर भी अन्धकार की सत्ता प्रायः सर्वमान्य दीख पड़ती है। पृथ्वी घूमती है; पर आम आदमी उसे स्थिर ही मानता है। हर व्यक्ति अपने आप को शरीर ही मानता है और उसी सुख सुविधा जुटाने में लगा रहता है। प्राण को जीवन तथ्य मानने और उसे परिपुष्ट बनाने में-कोई उतना प्रयत्न करने को तैयार नहीं जितना कि शारीरिक सुविधा के लिए किया जाता है। कर्मफल की सुनिश्चितता परयदि विश्वास जम सका हाता तो कुकर्म करने से भी लोग उतना ही डरते जितना कि आग छूने से। कुप्रचलन में नशेबाजी ऐसा दुर्व्यसन है कि उसके समर्थन में कुछ कहा नहीं जा सकता फिर भी अरबों खरबों का नशा पिया जाता है। लगता है कि जो ततकल सातने है, प्रत्यक्ष प्रतीत होता है, उससे आगे देख समझ सकने की क्षमता रह ही न गई हो। कुरीतियाँ और अवाँछनीयताओं के दुष्परिणामों को लोग आधे मन से ही अनुपयुक्तता समझते हैं अन्यथा उन्हें अपनाये क्यों रहते? अन्ध मान्यताओं की एक अनोखी दुनिया है और वह ऐसी है जो अधिकाँश लोगों को अपने चंगुल में जकड़े रहती हैं ईश्वर और देवताओं के सम्बन्ध में भी ऐसी ही चित्र विचित्र मान्यताएँ हैं जिन्हें देखते हुए उन्हें जो कुछ जैसा कुछ रुचता है इसी के लिए मचल पड़ते हैं। यथार्थता को ढूँढ़ने और पाने का का प्रयास न जाने कब से आरम्भ किया जायेगा। लोगों की तथ्यान्वेषी दार्शनिक दृष्टि न जाने किस मुहूर्त से विकसित होना आरम्भ करेगी?
अंध विश्वासों में एक बड़ी कड़ी यह भी जुड़ी हुई है कि परिस्थितियाँ किसी अविज्ञात कारण से उतरती हैं। संकट किसी सुदूर क्षेत्र में उड़-उड़ कर आते हैं। वैभव का बाहुल्य ही मनुष्य को सुखी बनता है। पदार्थों की अनुकूलता ही प्रसन्नता को निमित्त कारण होती है।
अच्छा हो कि इतना प्रत्यक्षवादी न बना जाय कि कार्य कारण की संगति ही न सूझ पड़े। तथ्य यह है कि मनुष्य अपने भाग्य का स्वामी आप है। उसका पास विचार शक्ति का ऐसा चुम्बक है कि अपने मान्य स्तर के सहयोगियों को ढूँढ़ निकालता है और साधनों को उसी आकर्षण के बलबूते खींच बुलाता है। प्रगतिशील और अनगढ़ों के बीच जो जमीन आसमान जैसा अंतर दीख पड़ता है उसका एक ही कारण है विचार तंत्र का सुव्यवस्थित अथवा अस्त−व्यस्त होना। देखा गया है कि हेय और हीन परिस्थितियों में जन्में मनुष्य भी संसार के मुकुटमणि बने हैं ऐसे भी अगणित उदाहरण हैं कि पूर्वजों की छोड़ी सम्पदा ओर प्रतिष्ठा को मटियामेट करके अगली पीढ़ी वाले दुर्दशाग्रस्त परिस्थितियों में भटक गये। असुविधाओं भरे दलदल में बुरी तरह फँस गये। मानवी सत्ता में उसके पास अपने अस्तित्व के उपरान्त उसके विचारों में वैभव ही है। इसी के आधार पर वह उन्नति उसके विचारों में वैभव ही है। इसी के आधार पर वह उन्नति उसके विचारों में वैभव ही है। इसी के आधार पर वह उन्नति के शिखर पर पहुँचता है। और इसी क्षेत्र के भटकाव से विपत्तियों के जाल जंजाल में अपने आपको फँसाता है।
इन दिनों हर क्षेत्र में विपन्नता और विद्रूपता दीख पड़ती है। कारणों का निदान तलाशने वाले लोग अपने अपने रुझान के अनुरूप निमित्त को खोजते और निराकरण संबंधी उपायों पर विचार करते हैं। विचार ही नहीं करते वरन् समाधान के लिए बड़ी-बड़ी योजनाएँ भी बनाते और खर्चीले उपाय भी करते हैं। पर देखा गया है कि प्रयत्नों के बावजूद सफलता कोसों दूर ही बनी रहती है।
एक बड़ा अनुमान यह है कि धन बढ़े तो विपत्ति टले। यह मान्यता अधूरी है क्योंकि जिनके पास धन है, वे भी उसका सही सदुपयोग कहाँ कर पाते है? अपव्यय के दुष्परिणाम भुगतते हैं और दूसरों को ललचा कर उन्हें भी ऐसी ऐसी राह पर घसीटते हैं कि भ्रमित वे भी भटकाव में पड़ें और दुख भोगें।
धन की निन्दा कोई नहीं करता, उसकी उपयोगिता से भी इनकार नहीं किया जाता, पर कठिनाई यह है कि उसे सही तरीके से कमाने और सही दिशा में खर्च करने की आदत न हो तो उसका परिणाम ऐसा ही होगा जैसा साँप को में धातु खंड या कागज के टुकड़ों से बढ़कर कुछ भी नहीं है। उसकी उपयोगिता तब निखरती है, जब चिन्तन की गरिमा भी साथ दे। यदि वह भटकती रही तो मात्र धन से फुलझड़ी जलाने का तमाशा भर देखा जा सकता है। कोई उपयोगी प्रयोजन सिद्ध नहीं किया जा सकता। इतना ही नहीं, दूरदर्शिता के अभाव में उसकी सुरक्षा तक कठिन है। चारे मसखरे उसका अपहरण करेंगे या ऐसे ठाट बाट का सुझाव सुझायेंगे जिसे अपनाते ही अपकीर्ति मिले ओर कंगाली चढ़ दौड़े।
धनी देशों में अमेरिका अग्रणी है। उसका पास संसार की आधी दौलत बताई जाती है। इस उपलब्धि के बल पर वहाँ विलास का ही दौर बढ़ा है। अपराधों की संख्या चरम सीमा तक पहुँची है। व्यसनों ने मैत्री और पारिवारिकता को छिन्न-भिन्न कर दिया। कामुकता का तूफान उठा और दुनिया का सर्वनाश कर गुजरने वाले अणु आयुधों का भण्डार भरा अर्थ परायण बुद्धिमत्ता ने इतना ही सुझाया कि अधिक सम्पदा कैसे जमा की जा सकती हैं और अधिक भयंकर लड़ाई-लड़ने के लिए अंतरिक्ष में नया मोर्चा कैसे खोला जा सकता है।
यदि धन के स्थान पर विवेकशीलता का बाहुल्य रहा होता तो उस देश ने अपने वैभव के वरण की योजना बनाई होती और संसार की आधी जनसंख्या को गरीबी रेखा से ऊँचा उठकर हँसता-हँसता जीवन जीने की सुविधा मिली होती, पर हुआ ठीक उलटा है। समृद्धि ने शोषण और विनाश के नये द्वार खोले हैं।
इसकी अपेक्षा तो अपने काम से काम रखने वाले और मेहनत के लिए कमर कसे रहने वाले जापान जैसे देशों के लोग भले, जो प्रगति की बात तो सोचते हैं। बाँटते नहीं तो किसी का हड़पते नहीं।
धन के बाद शिक्षा नम्बर आता है। बुद्धि कौशल के गुण जाते हैं और अधिक चतुर लोग तैयार करने कारखाने खोले जाते हैं। देखा गया है कि आदर्शवादी विचारशीलता के अभाव में उस प्रगति से भी संसार का कोई हित साधन नहीं हुआ है। कॉलेजों ने स्नातक उगले हैं और प्रेस ने प्रकाशन की सुविधा उत्पन्न की है। फलस्वरूप साहित्य सृजा गया है। बुकसेलरों का व्यवसाय अच्छा खासा फला फूला है, पर संसार भर की किताबें ओर पत्रिकाओं का ढेर जमा करके उसकी ऐसी छाँट की जाय कि इस प्रकाशन में से मनुष्य को अपनी गरिमा की ओर चलने की प्रेरणा देने वाला साहित्य कितना है, तो वह नगण्य मात्रा में ही उपलब्ध होगा। अधिकाँश तो उसका है जो पशुता और पैशाचिकता को भड़काता है। ज्ञान के स्थान पर अज्ञान थोपता है और छद्म प्रपंचों को सहारा लेने के लिए प्रोत्साहित करता है। यदि साहित्य सृजन में लगी हुई प्रतिभा ओर सम्पदा आदर्शवाद के समर्थन में जुटी होती तो जनमानस में इतनी सड़ाँध न दीखती जितनी कि आज है।
शिक्षण संस्थाओं ने छात्रों पर अधिक प्रकार की अधिक मात्रा में जानकारियाँ लादने की अपेक्षा यदि जीवन कला ओर समाज संरचना के लिए कार्यान्वित हो सकने वाले प्रसंगों को पढ़ाया होता तो असुविधा भरो प्राचीन गुरुकुलों की तुलना में आज के साधन सम्पन्न विद्यालय नर रत्नों की एक नयी पीढ़ी प्रस्तुत कर सकने में समर्थ रहे होते।
साहित्य से कम नहीं वरन् कला और भी दो कदम आगे। गायन वादन अभिनय आदि उसी के अंतर्गत आते हैं। व्यक्तिगत क्षेत्र में फिल्म नाटक आदि चलते हैं और सरकारी तंत्र रेडियो, टेलीविजन चलाता है। यह समूचा कलामंच यदि लोक रंजन के लिए कम ओर लोक मंगल के लिए अधिक प्रयास करता तो जनजीवन की लोकमानस की स्थिति अपेक्षाकृत कहीं अधिक अच्छी रही होती और अनैतिकताओं अवाँछनीयताओं, अन्धविश्वासों, कुप्रचलनों, दुर्व्यसनोँ के जंजाल से अपनी दुनिया को कब की मुक्ति मिल गई होती। किन्तु इस दुर्भाग्य ही कहना चाहिए किस सम्पदा शिक्षा की तरह कला का कलेवर तो फूल रहा है, पर उसके भीतर विजातीय द्रव्य की ही भरमार पाई जाती है।
व्यवसाय, उत्पादन क्षेत्र में कल कारखानों की भरमार होती जा रही है। स्वसंचालित मशीनें लग रही हैं। विशालकाय उद्योग खड़े हो रहे हैं, पर इससे मुट्ठी भर लोगों की ही अमीरी बढ़ती है। गृह उद्योगों के अभाव में देहाती श्रमिकों की खुशहाली छिनती चली जा रही है। विज्ञान का शोधकार्य तेजी से चल रहा है, पर वह मारक अस्त्रों और रसायनों को विनिर्मित करते रहने के अतिरिक्त ऐसा कुछ नहीं कर पाता कि प्रकृति सम्पदा का अधिकाधिक सदुपयोग करके मनुष्य खुशहाली की स्थिति उपलब्ध कर सके।
गरीबी बीमारी, अशिक्षा, नशेबाजी, बेईमानी जैसी अनेकों विभीषिकाओं का दोष परिस्थितियों या साधनों की कमी को देना उचित नहीं होगा। यह संकटों का पहाड़ दुर्बुद्धि ने पटका है। कुविचार अपना कर ही हम अनेकों संकट झेलते और रोते कलपते दिन बिता रहे हैं।