Magazine - Year 1987 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
पुरातन और अर्वाचीन दर्शन आदर्शों का समर्थन करें
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
यह भ्रम जितनी निरस्त हो सके उतना ही अच्छा है कि थोपी हुई सम्पन्नता के आधार पर किन्हीं को समृद्ध बनाया जा सकता है। दूसरों की ख्याति में बिना हाथ बटाये ही भागीदार बन सकता है। यह समझा और समझाया जाना चाहिए कि मनुष्य की विचारणा, भावना, मान्यता, अभिरुचिता, तत्परता और तन्मयता ऐसी है जो जिस भी दिशा में जुट पड़े उसी में चमत्कारी परिणाम प्रस्तुत कर सकती है। इसलिए यदि वस्तुतः बहुमुखी संकटों एवं अनर्थों की जड़ें काटनी हो तो उसका एक उपाय है कि मनुष्य के अन्तःकरण को स्पर्श करने एवं औचित्य का पक्षधर बनाने के लिए प्रबल प्रयत्न किया जाय।
इस संबंध में लेखनी और वाणी का भी प्रभाव हो सकता है। कुछ न कुछ उनका भी प्रभाव पड़ता है, पर कठिनाई यह यह है कि वे भी पशुवृत्तियों को भड़काने में जितनी तेजी से सफलता होती हैं, उतनी गति उत्कृष्टता, अभिवर्धन के मित्त नहीं कर पाती हैं, उतनी गति उत्कृष्टता, अभिवर्धन के निमित्त नहीं कर पाती हैं। धर्म शास्त्रों का अस्तित्व मौजूद है। उनमें अधिकतर सद्विचार ही भरे पड़े हैं और नीति निष्ठा का ही समर्थन है। ऋषि पहले भी थे ओर अब भी। धर्मोपदेशकोँ की कमी नहीं। इतने प भी अवाँछनीयता, अनीति, असंबद्धता घटती नहीं दीखती, वह बढ़ ही रही है। प्रचार प्रयोजन अपने उच्चस्तरीय लक्ष्य की प्राप्ति नहीं कर पा रहा है। सन्मार्ग पर बढ़ाने का प्रयोजन पूरा हो नहीं रहा है। प्रयासों को देखते हुए प्रगति यत्किंचित् ही होती दिखाई दे रही है। मंदिर मस्जिद गिरजे, गुरुद्वारे जैसे धर्म संस्थानों की संख्या कम नहीं है उनकी भव्यता और बहुमूल्यता, ऐतिहासिकता भी उत्साहवर्धक भी है किन्तु जहाँ तक धर्म धारण के संबंध में उसे उभारने में वे यत्किंचित् ही समाि हो पा रहे हैं। प्रथा परम्परा के प्रति कट्टरता और कर्मकाण्डों के प्रति उत्साह जगाने में वे किसी सीमा तक सफल भी हुए हैं किन्तु मानवी अन्त चेतना में उत्कृष्ट आदर्शवादिता जगाने, उभारने और गतिशील करने में वे बहुत दोअी सीमा में ही सफल हुए हैं। जिस प्रकार अस्पतालों की वृद्धि के साथ-साथ रोगियों की संख्या में भी बढ़ोत्तरी दीख रही है, उसी प्रकार देवालयों और पुजारियों की संख्या में अभिवृद्धि होने के साथ लोगों की अनास्था भी बढ़ रही है। लोग कर्त्तव्यों की प्रेरणा पाने की अपेक्षा यह सोचने लगे हैं कि देव दर्शन का कर्मकाण्ड करने भर से ईश्वर को रिझाया जा सकेगा और उतने भर से दुष्कर्मों के पाप पर्वत का प्रतिफल प्राप्त करने से बचा जा सकेगा। इस आधार पर मनुष्य अधिक निर्भय होकर अनौचित्य की दिशा में अग्रसर होते हैं। यह मानने में अत्युक्ति न होगी कि धर्म का ढोल पीटने वालों के अपेक्षा वे लोग अधिक शालीन पाये जाते हैं, जो नागरिकता एवं सामाजिकता के प्रति अधिक निष्ठावान हैं। जो कर्म के साथ आदर्शों को जोड़ना आवश्यक मानते हैं। जिन्हें मानवी गरिमा का ज्ञान है वे अचिन्तय चिन्तन से बचते हैं और कुकर्म करने के लिए कदम नहीं बढ़ाते। हमें उस समस्त प्रचार तंत्र को एक दिशा अपनाने के लिए सहमत करना होगा, जिससे कि सभी एक स्वर वाद्य यंत्र एक लय-ताल में जबते है, जब सभी वाद्य यंत्र एक लय-ताल में रस तभी बरसता है, जब सभी वाद्य यंत्र एक लय-ताल में बजते हैं। जब सभी कंठ एक साथ उभरते है तो संगीत की सरसता बनती है। धर्म सम्प्रदाय अपने-अपने पुरातन दर्शन एवं कर्मकाण्ड अपनाये रहें पर उनमें पारस्परिक सम्मान और सद्भाव की कमी नहीं पड़नी चाहिए। उनमें से कोई न तो ईश्वर का ठेकेदार बने और न अपनी मान्यताओं को ही सच मानने का आग्रह करे। सर्व धर्म समभाव का तात्पर्य यह है कि प्रचलनों और मान्यताओं की दृष्टि से सबको छूट रहनी चाहिए वह अपनी मान्यताओं को जिस प्रकार सही मानता हैं उसी प्रकार दूसरे के इस अधिकार को आघात न पहुँचाये कि वह भी पूर्वजों के निर्धारणों के प्रतीक आस्थावान हो सकते है अपने मान्यताओं और भावनाओं को सच्च मान सकते हैं इसी प्रकार टकराव की आग्रह कि गुंजाइश न रहेगी अपने-अपने पसंद के वस्त्र आभूषण पहनने और इच्छित भोजन पकाने व खाने में स्वतंत्र हैं तो धर्म पराम्राओ को मानने अपनाने में वैसी ही स्वतंत्रता का उपयोग स्वयं करने और दूसरों को करने देने की नीति क्यों न अपनाए एक बगीचे में अनेक रूप रंग के फल लग सकते हैं, तो विश्व उद्यान में साम्प्रदायिक भिन्नता क्यों नहीं रह सकती? सभी को सम्मान क्यों नहीं मिल सकता सभी को संरक्षण देते हुए अनेकता में एकता का सिद्धान्त क्यों व्यवहृत नहीं हो सकता?
मानवी आदर्शवादिता का अधिक संबंध उत्कृष्टता का समर्थन करने वाले दर्शन से है वस्तुतः वही धर्म वास्तविक स्वरूप है। प्रकारान्तर से मानवी आचार संहिता को उच्चस्तरीय बनाये रहने का दायित्व धर्म का है और उसी को अपनी गरिमा के अनुरूप भूमिका निभाने में अग्रणी रहना चाहिए अन्य प्रसंग जो भी प्रस्तुत किये जावे पर इस केन्द्र बिन्दु को उसे अपनाये ही रहना चाहिए कि अपने साथ जुड़े हुए श्रद्धावानों को अनुयायियों को यह बतायें कि सद्भावना उदार-सेवा सहकारिता ही लोक परलोक में मनुष्य को ऊंचा उठा सकते हैं। गौरव गरिमा और प्रगति शान्ति का पथ प्रशस्त कर सकते है। यही ईश्वर को प्रिय हैं यी सद्गति का मार्ग है राह पर चलते हुए उस लक्ष्य तक पहुँचा जा सकता हैं जिसे महानता के नाम से जाना माना जा सकता है।
धर्म अपनी गरिमा और महानता तभी स्थिर रख सकता है जब वह लोगों के बीच एकता समता, सद्भावना सहिष्णुता बनाये रहे। उन्हें दुर्गुणों ओर दुष्प्रवृत्तियों से बचाए। धर्म संप्रदाय को सज्जनता और शालीनता का पर्यायवाची बन कर रहना चाहिए। सभ्य शिष्टाचार की रीति-नीति सर्व साधारण को सिखाने समझाने और अभ्यास में उतारने के लिए उसे प्रबल प्रयत्न करना चाहिए। गुण कर्म स्वभाव में सुसंस्कारिता का समावेश करने के लिए धर्म को अपनी प्रभाव शक्ति का परिचय देना चाहिए।
मूल प्रयोजन से पीछे हट जाने ओर भटकावों में उलझने कारण धार्मिक आस्था का ह्रास हुआ है। यह दुर्भाग्य की बात है साबुन जब स्वयं स्वच्छ रहने और स्वच्छ बनाने की विशेषता गवाँ बैठेगा तो फिर उसका उचित मूल्याँकन न हो सकेगा कर्मकाण्डों और प्रथा प्रचलनों का प्रशिक्षण कैसा है? व ऐच्छिक भी है। उसमें भिन्नता भी हो सकती है। और समीक्षा की दृष्टि से अप्रामाणिकता एवं अनुपयोगिता भी। किंतु चिन्तन, चरित्र और व्यवहार की उत्कृष्टता का जहाँ तक संबंध है वहाँ तक वह एकता, एकरूपता, समता और सद्भावना का प्रतीक प्रतिनिधि ही होना चाहिए।
जन साधारण का चिन्तन बहुत करके धर्म सम्प्रदाय से प्रभावित पाया जाता है। इसलिए उस उद्गम को सही और स्वच्छ ही रखा जाना चाहिए। जिससे कि प्यास बुझाने वाले निर्झर निसृत होते हैं। उद्गम में कहीं से विषैलापन घुस पड़े तो समूची जल धारा दूषित पड़ने लगेगी उसका उपयोग करने वाले गंदगी एवं रुग्णता से घिरेंगे। धर्मों के बीच खाई नहीं पड़नी चाहिए उन्हें अपने पृथक् पहचान बनाये हरते हुए भी इस संदर्भ में एक ही रीति - नीति अपनानी चाहिए कि वे अपने प्रभाव क्षेत्र में उन सिद्धान्तों को सर्वोपरि स्थान देंगे जो मानवी मर्यादाओं के अनुरूप है उसे चरित्रवान एवं समाजनिष्ठ बनाने की दृष्टि से कारगर सिद्ध होते हैं।
अर्वाचीन दर्शन ने व्यापक तथ्यों और तत्वों पर विस्तृत प्रकाश डाला हैं खोजपूर्ण निष्कर्ष भी निकाला है पर ध्यान नहीं रखा कि उन प्रतिपादनों की प्रतिक्रिया क्या होगी फ्रायड का मनोविज्ञान और डार्विन का विकासवाद दोनों ही मिलते-जुलते प्रतिपादन प्रस्तुत करते हैं डार्विन ने मानवी सत्ता को अमीबा कृमि से विकसित हुआ बन्द की औलाद बताया है। फ्रायड का मनोविज्ञान कहता है कि मनुष्य भी एक प्रकार का पशु है उससे भी प्रकृति प्रेरणाएँ अन्य पशुओं की भाँति ही आचरण करने के लिए बाधित करती हैं। आधुनिक मनोविज्ञान दबी हुई पशु प्रवृत्तियों को खुला खेलने की छुट देता है और कहाता है सभ्यता के पक्षधर जिस संयम का अनुबंध लगाता है वह अनुचित है। यौनाचार जैसी उत्तेजनाओं का दमन न करके उनकी पूर्ति के प्रयास करने चाहिए। यौनाचार की तरह ही अन्य आत्म रक्षा स्वार्थपरता, छीन झपट की आपाधापी को भी उस दर्शन में प्रोत्साहन दिया है। इस वर्ग के दार्शनिक इच्छाओँ को भड़काते हैं और असंतोष को उभारते हैं। कहते हैं इस आधार पर अभ्युदय उत्कर्ष का सुयोग बन सकता है। प्रगति का द्वारा खुला सकता है। प्रगति का द्वारा खुल सकता है। वैभव को वे शक्ति मानते हैं और उसे संपादित करने में नीति अनीति के असमंजस को आड़े आने देने का विरोध करते हैं।
यही दर्शन हमें स्कूलों की पाठ्य पुस्तकों में पढ़ाया जाता है। विज्ञानवर्ग में उसका ऊहापोह और समर्थन होता है। आधुनिकता को अनैतिकता का रूप देने में अर्वाचीन दर्शन ने अपने समर्थन में अनेकों तर्क, तथ्य और प्रमाण उपस्थिति किये हैं। तर्कों से काटने की क्षमता जिनमें नहीं है, उनके लिए थाली में परोसी गई रसोई से ही पेट भरने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं है। आवश्यक है कि इस दिग्भ्रान्त दर्शन के कान में कहा जाय कि वे जो सिद्ध करना चाहते हैं वह सही हो या न हो, पर उसका प्रभाव लोक मानस पर इस स्तर का पड़ेगा जिससे मानवी गरिमा को अपनाने के लिए जन साधारण का विश्वास समाप्त हो जाय। कलहकारी सम्प्रदायों की तरह यह अर्वाचीन तत्व दर्शन भी गरिमा को उच्चस्तरीय बनाने में बाधक ही हैं।