Magazine - Year 1987 - Version 2
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Language: HINDI
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अवरोधों से जूझने की सूझ बूझ जगे
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व्यक्ति और समाज के सम्मुख उपस्थित अगणित कठिनाइयों, अभावों और संकटों के समाधान किस प्रकार किए जाँय? इस संदर्भ में दो प्रकार के चिन्तन हैं। एक ऊपर से थोपने के दूसरे भीतर से उगाने के। दोनों में से पहला बे जड़ का है और दूसरा चिर-स्थायी।
नाटक के पात्रों के ऊपर आवरण पहना कर इस प्रकार सजा दिया जाता है मानों वे जो कुछ दीखते हैं, वही हों। राजा, मंत्री, सेनापति, संत, सेठ आदि के अलग-अलग परिधान होते हैं। उनसे सजा देने पर वे वस्तुतः वैसे ही लगते हैं, जैसा कि सजाने वालों ने उन्हें दिखाने का प्रयत्न किया है। रामलीला में विभिन्न पात्रों के नकली मुखौटे उतार लिये जाँय, परिधान हटा दिए जाँय, तो सामान्य व्यक्ति जैसा असली रूप प्रकट हो जाता है तब उस कौतुक कौतूहल की भी समाप्ति हो जाती है।
समाधान भी वास्तविक हो सकता है और अवास्तविक भी। अवास्तविक वे हैं जो बाहर से थोपे जाते हैं। वास्तविक वे हैं जो बाहर से थोपे जाते हैं। वास्तविक वे हैं जो व्यक्तित्व में से उभर और जीवन के साथ जुड़े हैं। कोई देश उधार के शस्त्र और सैनिक लेकर समर्थ नहीं हो सकता। भीतर से यदि देश पोला है तो बाहर की छत्र-छाया कितने समय तक टिकेगी। कलई बहुत दिन नहीं चलती। बालू की दीवार अधिक देर नहीं खड़ी रहती। काठ की हाँड़ी बार-बार नहीं चढ़ती। दूसरे के कंधों पर लदकर न तो लम्बी यात्रा की जा सकती है और न जिन्दगी कट सकती है। बल तो वही काम देता है जो अपनी छाती और भुजाओं से उभरा हो। समाधान भी ऐसे ही ढूँढ़े जाने चाहिए। किसी को भिक्षा देकर न तो सम्पन्न बनाया जा सकता है न स्वावलम्बी। मनुष्य अपनी ही कमाई से सम्मानपूर्वक जिन्दगी काट सकता है।
दरिद्रता मिटाने के लिए मनुष्य का आलस्य, प्रमाद छूटना चाहिए और उसमें तत्परता तन्यता के साथ उपार्जन करने की ललक उत्पन्न की जानी चाहिए। इसके अभाव में दूसरों की दी हुई भिक्षा या सहायता से टिकाऊ हल नहीं निकल सकता। जो मेहनत से कमाता है, वह समझ से खर्च भी करता है। जिसे मुफ्त में सम्पदा हाथ लगी है, वह उसका न तो महत्व समझ सकेगा और न उसका सदुपयोग कर सकेगा। अपव्यय दुर्व्यसन उसकी पोटी जल्दी ही खाली कर देंगे इसलिए अच्छा हो कि मनुष्य, स्वावलंबी सुसंस्कारी बने और किसी की ओर सहायता पाने की दृष्टि से न तकें।
उपार्जन कला में प्रवीण मारवाड़ी, पंजाबी कहीं हाथ पसारते नहीं देखे गए। इसके विपरीत भिक्षुकों के समुदाय आए दिन जिस-तिस प्रकार जहाँ-तहाँ से भटकते रहने पर भी मन से हीन परिस्थिति से दीन बने रहते हैं। समाधान वहीं कारगर होते हैं, जिनकी निजी जड़ें होती हैं अमर बेल जिस पेड़ पर छाई होती है, उसे चूसने के उपरान्त स्वयं भी सूख जाती है।
कानूनों के द्वारा सामाजिक बुराइयों को दूर करने के लिए प्रयत्न करना अच्छी बात है। पर वह ऊपर से थोपी होने के कारण सफल नहीं हो पा रही है। न तो बाल-विवाह बन्द होते दीख रहे हैं और न दहेज की माँग बन्द हो रही है। रिश्वत और व्यभिचार दोनों के विरुद्ध कड़े कानून हैं, पर दोनों पक्ष अपनी पटरी निकाल लेते हैं और सहयोगपूर्वक वे कुकर्म यथावत् रहते हैं। कानून अपना काम पूरा तब करे जब इन अनाचारों के विरुद्ध लोक मानस विनिर्मित हो और घृणा उभरे।
जाति पाँति के आधार पर ऊँच-नीच मानने का संविधान में विरोध है। पर ब्राह्मणों में कायस्थ कायस्थों में अछूत अछूतों में जो आपसी ऊँच नीच की मान्यता है- उसका क्या किया जाय? सवर्ण और अस्वर्णों के बीच पाये जाने वाले भेद भाव पर तो मुकदमा भी चल सकता है पर एक ही जाति की उपजातियों में जो भेद भाव है। एक जाति का अछूत दूसरे जाति के अछूत से रोटी बेटी व्यवहार नहीं करना चाहता। उसका क्या उपाय किया जाय? ऐसा ही भेद भाव गरीब अमीर और शिक्षित अशिक्षित के बीच भी देखा जाता है। अपने घरों की महिलाओं तक को लोग गई गुजरी ठहराते हैं, उनसे अपमानजनक व्यवहार करत हैं तो उसके लिए क्या किया जाय?
कानून का भय दिखाना आवश्यक है। राष्ट्रीय मान्यता के रूप में संविधान में भी सभ्यता सूचक निर्धारणों का उल्लेख होना चाहिए, सो है भी, पर इतने से भी हमारा उत्तरदायित्व पूरा नहीं हो जाता। करना कुछ और भी पड़ेगा और वह है आस्थाओं को झकझोरना विचारों की अवाँछनीयता में आमूल-चूल परिवर्तन करना। औचित्य का पक्ष समर्थन करने वाली विवेक-बुद्धि को उभारना। न्याय के प्रति आस्थावान् होना। यह मान्यता भीतर से जागेगी, तो वह जो जाति पाँति तक वेश वंश तक सीमित न रहेगी, वरन् विषमता के हर पक्ष की काट छाँट करेगी।
मनुष्य की अक्लमंदी में घुसी हुई धूर्तता का कोई अन्त नहीं। वह शासन की पकड़ से बच सकता है। कानून को अपने समर्थक के रूप में प्रस्तुत कर सकता है। प्रलोभन और दबाव से गवाहियाँ जुटा सकता है। सबूत इकट्ठे कर सकता है और राजदण्ड की पकड़ से सहज ही बच सकता है। इसी प्रकार समाज को बहकाना भी कुछ कठिन हैं। इसी प्रकार समाज को बहकाना भी कुछ कठिन नहीं है। देशभक्त नेता और धर्मोपदेशक बनने में थोड़े से कला कौशल की आवश्यक है जिसे किसी भी सहकर्मी के रंग ढंग देखकर उसकी अनुकृति अपनाई जा सकती है। थोड़ा-सा दान पुण्य कर पूजा पाठ के कर्मकाण्डों को निबाहते रहने पर संपर्क क्षेत्र में अपने धर्मात्मा होने की ख्याति फैलाई जा सकती है और पर्दे के पीछे अनेक अनाचार इस प्रकार करते रहा जा सकता है, कि उनके सम्बन्ध में किसी को गंध भी न लगे। इसी चतुरता के बलबूते शोषितों के मुँह से जय-जयकार कराने के लिए मजबूरी उपस्थित की जा सकती है। इतने हथकण्डों को रोक पाना कठिन है। यही कारण है कि प्रत्येक अनाचार के सम्बन्ध में कानूनी प्रतिबन्ध होने, शास्त्रों द्वारा पाप घोषित किए जाने-उपदेशकों द्वारा दुष्कर्मों का हेय ठहराये जाने के धुंआधार प्रचार होते रहने पर भी लोग टस–मस नहीं होते, अपनी बेढंगी चाल में जरा भी परिवर्तन नहीं करते। चिकने घड़े की तरह अपने ऊपर उपदेशों के पानी की एक बूँद नहीं ठहरने देते।
स्थिति यही बनी रही तो समझना चाहिए कि दुर्भाग्य का काल राहु पीछे ही पड़ा रहेगा और उन स्वर्णिम स्वप्नों के साकार होने का कभी अवसर न मिलेगा, जिसमें मनुष्य सतयुगी सुख सुविधाओं से भरी पूरी जिन्दगी जी सकने की आशा अपेक्षा की जाती है। मात्र सम्पदा, शिक्षा, बलिष्ठता के बलबूते मनुष्य दूसरों को डरा-धमका कर, फुसलाकर अपना उल्लू सीधा तो कर सकता है, पर उसे औचित्य के प्रति आस्थावान होने के लिए प्रभावित, अनुप्राणित नहीं कर सकता।
इस दिशा में गंभीरता से सोचना और ठोस प्रयास करना होगा, अन्यथा जिस सर्वनाशी कुचक्र में हम फँस गए हैं, उसमें से निकला सहज ही संभव न होगा। जोल जाकर वहाँ रहने वाले वरिष्ठों से शिक्षा का पाकर जो निकलता है वह अपराधों के क्षेत्र में ट्रेन्ड, प्रवीण-पारंगत होता है। सामाजिक भर्त्सना सुनते रहने पर मनुष्य ढीठ हो जाता है और किसी की परवाह न करने की बात कहकर अपने आपको शूरवीर सिद्ध करता है। वैसा ही ढीठ मन बार-बार करने की चुनौती देता है। अनाचार इन्हीं कारणों से बढ़ रहा है। प्रतिरोध को प्रलोभन या धमकी के सहारे कुँठित कर देने पर उसे आधी सफलता मिल जाती है। जिस पर अनाचरण के लिए छूट मिली अनुभव करता है। ना समझ पशुओं के बलिष्ठ होने पर भी उन्हें लाठी या लगाम लगाकर इच्छित मार्ग पर चलाया जा सकता है। पर मनुष्य के लिए क्या किया जाय जो अपनी चतुरता और ढीठता के बल पर आदर्शों का उपहास करते हुए मनमानी बरतता है। उसे साथी भी आसानी से मिल जाते हैं। मिल जुलकर अनाचार करने और लाभाँश करने की विद्या अब अनेक लोगों द्वारा सीख ली गई हैं। वे उसे निधड़क कार्यान्वित भी करते हैं। सज्जनों के बीच ऐसी घनिष्ठ सहायता कदाचित ही हो पाती है कि वे अनीति से जूझे और सत्प्रयोजनों के लिए एकजुट होकर काम करें; किन्तु उलटी दिशा में चलने वाले कुमार्गगामी, कुकर्मी अपने अपने गिरोह और षडयन्त्र आसानी से बना लेते हैं ओर समर्थ विरोध के अभाव में अपनी मनमानी व्यापक क्षेत्र में बढ़-चढ़ कर करते रहते है।
पृथ्वी की आकर्षण शक्ति हर वस्तु को को ऊपर से नीचे की ओर खींचती है। पानी ढलान ओर खींचती है। पानी ढलान की और बहता है। मनुष्य के भीतर बैठी हुई जन्म जन्मांतरों की संचित दुष्प्रवृत्तियां भी उसे अनाचार की प्रेरणा देती रहती हैं। वह उसी प्रवाह में बहता और खाई खड्ड में गिरता भी रहता है। इस सरलता को तोड़कर, करना यह होगा कि मनुष्य आदर्शवादी उत्कृष्टता अपनाये, ऊँचा उठे और ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न करे जिनसे स्नेह सद्भाव भरे -राजमार्ग पर चलते हुए तुष्टि, तृप्ति एवं शान्ति का वातावरण बने।