Magazine - Year 1987 - Version 2
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Language: HINDI
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प्रतिभाएँ अग्रिम पंक्ति में आये
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इक्कीसवीं शताब्दी के आरंभ होने में अब 13 वर्ष शेष हैं। इस अवधि में पिछले पापों का प्रायश्चित हमें करना होगा। इस संदर्भ में होना तो वह चाहिए था, जिसकी कि भविष्यवाणी इन दिनों सर्वनाश के रूप में प्रमाणिक क्षेत्रों से की जाती रही हैं। उनमें प्रकृति प्रकोपों का विशेषतया वर्ण है। वातावरण में तापमान की वृद्धि, ध्रुवों का पिघलना, समुद्री उफान आना, हिमयुग, भूकंप, ज्वालामुखी, बाढ़, सूखा दुर्घटनाएँ, महामारी आदि को प्रकृति प्रकोपों में गिना जा सकता है। युद्ध विग्रह आतंकवाद, हत्याएँ, अपराध, अनाचार, बलात्कार, अपहरण, छल नशा, विनाश आदि को मनुष्यकृत अनाचार कह सकते हैं। यह दोनों ही मिलकर व्यक्ति और समाज के लिए अनेकानेक संकट उत्पन्न करें, तो समझना चाहिए कि यह पिछले दिनों किये गये मानवी अनाचार का दण्ड प्रायश्चित है। प्रदूषण, विकिरण को भी इसी वर्ग में गिना जा सकता है। ज्योतिषी इसे ग्रहाचर का कारण बताते हैं। द्वितीय विश्व युद्ध में अणु आयुधों का प्रयोग होना औ रउसे सर्वनाश की स्थिति बनना जन जन के मुख पर चढ़ी रहने वाली चर्चा का विषय है।
यह संभावनाएं जिन लोगों ने बताई हैं उनने किसी बहकाया नहीं है और न अपनी मान्यताओं के प्रति दुराव किया है। पिछले दिनों समर्थ वर्गों द्वारा दुर्बलों के साथ जो बर्ताव किये जाते रहे हैं,उनका सामूहिक परिणाम समूची मानव जाति को भुगतना पड़े तो इसमें कुछ आश्चर्य की बात नहीं है।
किन्तु प्रज्ञा अभियान के मंच से उन अनिष्टकर सींवनाओ को चुनौती देने के लिए जो प्रचण्ड तप सामूहिक एवं वैयक्तिक रूप से किया जाता है, उसकी शक्ति भी कम नहीं आँकी जानी चाहिए। घनघोर घटाओं की जल प्लावन संभावना को तेज आँधी उड़ा ले जाती है और छुट पुट बूँद बरस कर आसमान साफ हो जाता है।अगले 13 वर्षों में ऐसे ही उत्पात होते रहेंगे। जिन्हें एक शब्द में चैन सेन बैठ पाना, न बैठने देना कह सकते हैं। ऐसे घटनाक्रम इन वर्षों में जहाँ-तहाँ देश विदेश में होते रहेंगे; किन्तु वे इस सीमा तक न बढ़ पावेंगे कि महाविनाश कीप रिधि छूने लगें और काबू से बारह निकल जायँ।
बीज के गलने के साथ अंकुर भी फूटते हैं और वे खाद पानी पाने पर क्रमशः बढ़ते हुए पौधे से वृक्ष बनते हैं। यह विकास उन प्रतिभाओं का होगा जिन्हें सर्माि मूर्धन्य एवं भावनाशी कहा जा सकता है। उपदेशक नोता कलाकार मनीषी, लेखक, धनवान वैज्ञानिक इसी श्रेणी में आते हैं। अब तक यह वर्ग निजी स्वार्थ सिद्धि के लिए तरह-तरह के शितून खेड़े करता रहा है। जिस तरह अधिक लाभ मिले, बड़ा ठाट बने और अधिक ख्याति चमके। यह उद्देश्य लेकर उपरोक्त वर्गों ने चित्र विचित्र कार्य किये हैं। उससे जनता का मनोबल और भावना स्तर गिरा है बड़ों को कहते और करते देखकर समान्यजनों की समझ और चेष्टा भी उसी दिशा में बहने लगती है। नदी के प्रवाह में तत् अनायास ही बते चले जाते हैं। मूर्धन्यों का अनुगमन सामान्यजन सहज ही करते देखे जाते हैं। ऊँचे चढ़ना तो कठिन है, पर नीचे गिरने में कोई विशेष प्रयत्न नहीं करना पड़ता और न किसी की सहायता लेनी पड़ती है मूर्धन्यजन जो स्तर अपनाते हैं,सर्वसाधारण की इच्छा उसी के अनुकरण की होती है। धनवानों, प्रबुद्धजनों, साहित्यकारों, कलाकारों ने प्रायः पशु प्रवृत्तियों का भड़काने का व्यवसाय अपनाया है।उनका चुम्बक मध्यवृत्ति के लोगों तथा नवयुवकों को अपनी और खींचता सचला गया है। सभी जानते हैं कि सिनेमा ने कामुकता को फैशनपरस्ती को कितना प्रोत्साहन दिया है ओर उस उत्तेजना से प्रभावित होकर कितनों ने अपना कदम अधः पतन की ओर बढ़ाया है। यही बात अन्य मूर्धन्य वर्गों के संबंध में भी कही जा सकती है। नशा व्यवसाय को अत्यधिक आगे बढ़ाने में धनवानों का ही प्रमुख हाथ रहा है। गरीब तो उसे खरीद कर पीते और मरते भर हैं।
अब नयी उलट-पलट में यह होने जा रहा है कि मूर्धन्य वर्ग का बहुत बड़ा भाग युग चेतना से प्रभावित होगा और अपनी दिशा धारा को उलट कर उस दिशा को अपनायेगा, जिसके लिए युग धर्म ने समझाया पुचकारा और ललकारा है। शक्ति की महिमा महत्ता सभी जानते हैं, व हजिस भी दिशा में कटिबद्ध होती है उसी में सफलताओं के अम्बार लगा देती है। अब तक बिगाड़ की दिशा अपनाई तो उसमें भी चमत्कार कर दिया। अब यदि उनका मानस बदलता है ततो समझना चाहिए कि उस बदलाव का प्रभाव भी कम न पड़ेगा। वे ऐसी गतिविधियां भी अपना सकते हैं,जो उनके स्वयं के लिए तो श्रेयस्कर होती है अगणित लोगों को भी अपने प्रभाव से प्रकाशित करेंगी।
साहित्यकार, प्रकाशक, मुद्रक, बुकसेलर एक संयुक्त वर्ग है। यह मिल-जुल कर ऐसे साहित्य का सृजन प्रकाशन और वितरण करे जो युग धर्म के अनुरूप हो तो उसका प्रभाव भी शिक्षित वर्ग पर कम न पड़ेगा। अब तक इस वर्ग में से अधिकाँश ने ऐसा मसाला प्रस्तुत किया है,जो पाठकों को अंधविश्वासों और दुश्चिंतनों की ओर धकेलता रहा है। उस प्रभाव से अगणित प्रभावित हुये हैं और बड़ा सा लोक मानस उसी ढाँचे में ढला है। अब जब सांचा बदलेगा तो उसमें ढलने वाले पुर्जे दूसरे रंग ढंग के होंगे। सत्साहित्य कितना प्रेरक होता है। इसके साक्षी ईसाइयों, कम्युनिस्टोँ और क्राँतियाँ प्रस्तुत करते रहने वालों से पूछकर कारगर निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है।
गायकों, वादकों, अभिनेताओं, फिल्म निर्माताओं ने मिल−जुलकर जो माहौल रचा है उस पर अगणित लोग झूमने लगे हैं। फिल्म दर्शकों की संख्या अखबार पाठकों से भी अधिक है। रिकार्डों को सुनने वाली संख्या भी कम नहीं है, उन्हें तो जहाँ-तहाँ मुफ्त में ही सुना जाता हैं। साँप बीन पर लहराते हैं और सुनने वाले गीतों का रसास्वादन करते हैं। सभा सम्मेलनों समारोहों में गीतवाद्य सुनने को मिलते हैं। फिल्म देखने तो लोग पैसा देकर जाते हैं और लौटते समय उसी रंग में रंगे हुये होते हैं जो दिखाया गया है। मस्तिष्क को बदलने में गायन वदन अभिनय का बड़ा हाथ है। वहां अपना लक्ष्य बदले तो सुनने वालों का मनःक्षेत्र बदले बिना रह नहीं सकेगा।
वक्ताओं ने बड़ी-बड़ी क्रान्तियाँ की हैं। उन्होंने लोक शिक्षण दिया और जन मानस को उठाकर खड़ा किया है। प्रभावित लोगों ने वह किया है, जिसे करने में आम आदमी चकराता है। कृष्ण की गति ने अर्जुन में नव जीवन भरा था। शुकदेव की कथा से परीक्षित का उद्धार हुआ हैं। सूत सौन के कथानकों ने सामयिक समस्याओं का उपयोगी समाधान किया थ। लेनिन की वाणी ने रूस को हिलाकर रख दिया था। बुद्ध, गाँधी आदि की वाणी समय को उलटने में समर्थ हुई। मनीषियों के उद्बोधन व्यक्ति को नये सिरे से सोचने और नयी दिशा अपनाने के लिए बाधित कर सकते हैं।
जो वैज्ञानिक अणुबम जैसे मारक अस्त्र बना सकते हैं, वे चाहें तो सुविधा संवर्धन से लेकर ब्रेन वाशिंग तक की अनेकों क्रिया प्रक्रिया सम्पन्न कर सकते हैं। मारको को निरस्त करने वाला विष विरोधी अमृत भी खोज सकते हैं।
यों धन की नश्वरता को उसे कमाने में बरती जाने वाली निष्ठुरता को देखते हुए उसका नम्बर पिछली पंक्ति में आता है; पर आज तो वही प्रथम पंक्ति में हैं; पर आज तो वही प्रथम पंक्ति में है। पैसे की कीमत पर सब कुछ खरीदा जा सकता है। सम्मान भी और धर्म समुदाय भी। उसी पूँजी के बल पर अनेकों भले बुरे व्यवसाय चलते हैं। धन मनुष्य को बुद्धिमान और चतुर भी बना देता है। मूर्ख के पास तो पैसा ठहरता ही नहीं।
धनवान चाहे तो कुटीर उद्योगों का ताना-बाना बुन कर लाखों करोड़ों को काम दे सकता। वे शिक्षा संस्थान चला सकते हैं। प्रकाशन हाथ में लेकर वातावरण को बदल सकते हैं। लोक सेवियों को प्रश्रय दे सकते हैं। धनवानों से कहा जाय कि जिस चतुरता से उन्होंने उपार्जन किया है, उसी प्रकार दूरदर्शिता आश्रय लेकर ऐसी सत्प्रवृत्तियों को अग्रगामी बनायें जिन से नई हवा चल सके, नया वातावरण बन सके और नया युग बन सके।
विश्वास किया जाना चाहिए कि यह मूर्धन्य वर्ग इन्हीं दिनों अपने भीतर समुद्र मंथन जैसी हलचलें अनुभव करेंगे, और उस दिशा में कदम बढ़ायेंगे जिन पर चलने से सबका कल्याण ही कल्याण है। इन दिनों विपत्तियों को बरसने की बेला है। उनसे पीड़ितों को सहायता की आवश्यकता पड़ेगी। धनवानों की थैलियाँ उस प्रयोजन के लिए भी काम आ सकती हैं।
इन दिनों विपत्तियों के बरसने की बेला है। उनसे पीड़ितों को सहायता की आवश्यकता पड़ेगी। धनवानों की थैलियाँ उस प्रयोजन के लिए भी काम आ सकती है।
विश्वमित्र नवयुग का सृजन करना चाहते थे। नई दुनिया बनाने का उनका मन था। राजा हरिश्चंद्र ने उस महान प्रयोजन के लिए न केवल अपना सारा राज पाट दे दिया, वरन् अपने पूरे परिवार को बेचकर उस आवश्यकता में कमी न पड़ने दी। सम्राट अशोक ने बुद्ध के धर्मचक्र प्रवर्तन में अपने विशाल साम्राज्य को खपा दिया था। तक्षशिला विश्वविद्यालय के लिए हर्षवर्धन ने और नालंदा के पुनर्निर्माण में चन्द्रगुप्त विपुल धन लगाया था। राणा प्रताप को स्वतंत्रता संग्राम जारी रखने के लिए भामाशाह ने अपना समस्त कोष उड़ेल दिया था। अन्य अनेकों लाभ मोह त्याग कर पुण्य प्रयोजनों के लिए अपने समय और श्रम का सार धन के रूप में लगाते रहे हैं
प्रज्ञा मिशन को सुविस्तृत व्यापक बनाने के लिए अनेकों उपाय हो सकते हैं। कितने ही विद्यालय चल सकते हैं। फिल्में बन सकती हैं। शतकुण्डी यज्ञों की एक बड़ी श्रृंखला चल सकती है। जिस छोटी-सी इमारत में शाँति कुँज चल रहा है उसे दूना भी कर दिया जाय तो युग सृजन के लिए जीवन-दान, समय-दान करने वालों की कमी न पड़ेगी। युग शिल्पी सत्रों में सम्मिलित होने के इच्छुकोँ में से प्रायः आधों को ही स्वीकृति मिल पाती है। शिक्षण और भोजन निवास की सुविधा सर्वसाधारण के लिए घोषित कर देने पर यह स्वाभाविक ही था, कि जो आर्थिक कठिनाई के कारण इन नवजीवन प्रदान करने वाले एक मासीय सत्रों में सम्मिलित होने के इच्छुक रहे हैं, वे अब सुविधाओं का अधिक प्रबंध होने की स्थिति में बड़ी संख्या में सम्मिलित होने के इच्छुक रहे हैं, वे अब सुविधाओं का अधिक प्रबंध होने की स्थिति में बड़ी संख्या में सम्मिलित होना चाहें, पर आर्थिक कठिनाईयाँ आगे बढ़ने के प्रयासों के हाथ पकड़ लेती हैं और पैर भी जकड़ती हैं। सार्वजनिक अपील करने में संकोच करते रहने की अपनी नीति ने काय ्राके उसी सीमा तक फैलने फूलने दिया है जितना कि वह इन दिनोँ है।
आशा की जानी चाहिए कि नव सृजन की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए मनीषी, समयदानी, गायक, वादक, सक्ता धनी आदि प्रतिभावान अपनी अपनी श्रद्धाँजलि लेकर नवयुग के अभिनव सृजन में आगे बढ़ेंगे और कहने लायक योगदान देंगे। इक्कीसवीं सदी का उज्ज्वल भविष्य विनिर्मित करने के लिए इस प्रकार का सहयोग आवश्यक है और अनिवार्य भी।