Magazine - Year 1987 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
अन्तरंग को सुधरें, बहिरंग सुविकसित होगा
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
सम्पदा सम्पादित करना अपने हाथ के सर्वथा बस बूते की बात नहीं है। परिस्थितियों की प्रतिकूलता उसमें बाधक भी हो सकती हैं। प्रकृति प्रकोपों के कारण कई बार ऐसी विपन्नता उत्पन्न हो जाती है कि कराधरा पुरुषार्थ मटियामेट हो जाता है।
खेत में अच्छा बीज डालने और खाद पानी का समुचित प्रबन्ध करने से भी यह निश्चित नहीं है कि इच्छित उत्पादन होकर ही रहेगा। अतिवृष्टि, अनावृष्टि, आले, कीड़े टिड्डी जैसे कई उत्पात खड़े हो सकते हैं। दांव लगे तो वन्य पशु और पक्षी भी उसके अधिकाँश भाग को हड़प सकते हैं। चोर उपज को ही नहीं खड़ी फसल को भी काट सकते हैं। आँधी तूफान से भारी क्षति हो सकती है। सहायता के लिए मजदूर न मिलें, बैल बीमारी से चल बसें,तो सम्पन्न बनने की योजना में प्रकृतिगत या मानवी कारणों से ऐसा कुछ हो सकता है, सिसे मनसूबे धरे के धरे ही रह जायँ। प्रयास के साथ परिस्थिति की अनुकूलता और साधन सहयोग की विपुलता ही भौतिक प्रगति का पथ प्रशस्त करती है, अन्यथा मनसूबे धरे के धरे रह जाते हैं।
उच्च शिक्षा की प्राप्ति, ऊँचे पद पर आरुढ़ होना, प्रतियोगिताओं में सफल होना, उन्नतिशील बनने के लिए आवश्यक है। इनके लिए पूरी तैयारी करने पर भी आकस्मिक रुग्णता, दुर्घटना, आवेश भरी योजना कुछ से कुछ कर सकती है। जो ऐसा सँजोया गया था वह उलट हो सकता है। यह भी संभव है कि उच्चशिक्षा प्राप्त कर लेने पर अनुरूप पद न मिले और किसी छोटी आजीविका से सन्तोश करना पड़े। पहलवान भी दंगल में मात खा जाते हैं। अफसर भी पदावनत और निलंबित होते देखे गए हैं। जीवन भर की कमाई को चोर चुरा सकते हैं। कपटी....... ठग. विश्वासघात की चोट मार सकते हैं। घर के कुपात्र सदस्य ही कुसंग में पड़कर दुर्व्यसनों के शिकार बनकर उस सम्पदा को स्वाहा कर सकते हैं। घर के कुपात्र सदस्य ही कुसंग में पड़कर दुर्व्यसनों के शिकार बनकर उस सम्पदा को स्वाहा कर सकते हैं, जिसके बारे में सोचा गया था कि जिन्दगी का सहारा बनेगी और सुख सुविधाओं में कोई कमी न पड़ेगी। सम्पन्नता अभीष्ट तो है, पर प्रयत्न रत व्यक्ति उसका समुचित लाभ उठा सकेंगे इसकी कोई गारंटी नहीं।
इसकी तुलना में सुसंस्कारिता की फसल ऐसी है जो मात्र अपने संकल्प के बलबूते उगाई और पकाई जा सकती है। मन अपना है। शरीर भी अपना है। उन दानोँ पर पूरी तरह अपना स्वामित्व है। इच्छानुसार उन्हें सिखाया, समझाया, बदला सुधारा और मोड़ा मरोड़ा जा सकता है। इस क्षेत्र में किसी दूसरे का कोई हस्तक्षेप नहीं। यदि प्रण कर लिया जाय कि सुसंस्कारी बन कर रहेंगे तो यह प्रतिभा अपने बलबूते पूरी की जा सकती है। दूसरोँ की सहायता इसके लिए आवश्यक नहीं। प्रतिकूलताओं की स्थिति में थोड़ी कठिनाई तो हो सकती है पर इतनी शक्ति किसी में नहीं जो आदर्शों के प्रति निष्ठावान को पतित पराभूत कर सके। शरीर पर आघात हो सकते हैं। साधनों को नष्ट किया जा सकता है; किन्तु यह संभव नहीं कि व्रतशीलों को नष्ट किया जा सकता है; किन्तु यह संभव नहीं कि व्रतशीलों को उत्कृष्टता अपनाये रहन से विरत कर सकें। देव मानवों की कथ गाथायें इसकी साक्षी हैं कि उनने कठिन समय में भी महानता अपनाये रखी। व्यवधानों को सहते या विकट संघर्ष करके उन्हें निरस्त करते रहे। उत्कृष्टता ऐसा सम्बल है कि यदि उसे एक बार दृढ़तापूर्वक पकड़ लिया जाय तो फिर उससे डिगा सकने की सामर्थ्य किसी में नहीं है। दधिचि, भागीरथ, हरिश्चंद्र मोरध्वज कर्ण आदि ने महानता को अक्षुण्ण रखने का निश्चय किया था। कठिनाईयाँ आती रहीं और वे उन्हें दुलराते रहे। ध्रुव प्रह्लाद जैसे बालकों के साहस भी कठिन प्रसंगों में न टूटे। दमयन्ती, सीता, सावित्री, सुकन्या, शैव्या अरुन्धती, इला, अपाला एवं मीरा जैसी महिलायें जब अपनी उत्कृष्टता को अक्षुण्ण बनाये रहने के लिए कटिबद्ध हो गई तो उनकी गरिमा पर उँगली उठाने की किसी में भी हिम्मत न हुई। विपत्तियों के तूफान उनसे टकराकर वापस लौट गए।
भौतिक सम्पदाओं को उन्नति का आधार तो माना जा सकता है, पर कोई दावे के साथ यह नहीं कह सकता है। कि वह उस आकाँक्षा को पूरा करके ही रहेगी। उस निमित्त पोषण ही पर्याप्त नहीं। परिस्थितियों की अनुकूलता भी चाहिए। प्रतिकूलता के अड़ जोन पर तो सारा गुड़ गोबर हो जाता है।
सुसंस्कारिता सम्पादन के संबंध में ऐसी बात नहीं है। उसे स्वावलम्बनपूर्वक कमाया और बढ़ाया जा सकता है। सद्गुणों का अभ्यास अपने बलबूते हो सकता हैं। दुर्बल मन वाले ही कुसंग से प्रभावित होते है। मनस्वी के लिए आत्मा का संकल्प और परमात्मा का विश्वास इन दोनों के सुदृढ़ बने रहने पर ही काम चल जाता है। बुरी आदतें डाली जा सकती हैं, पर यह नहीं समझना चाहिए कि अच्छी आदतें डालना उससे कठिन है। कुम्हार अपनी मर्जी के अनुरूप चाक पर चित्र विचित्र आकृतियों के बर्तन बनाता रहता है मनुष्य की अन्तरात्मा यदि समर्थ सतेज बनी रहे तो वह भी अपने आप को जैसा भी चाहे भला या बुरा गढ़ सकता है। यह कार्य कठिन नहीं सरल है। समृद्धि अर्जित करने की तुलना में प्रतिभा का उपार्जन सरल है।
एक गान्धी पर करोड़ करोड़पतियों को निछावर किया जा सकता है। एक महामानव लाख पहलवानों से बढ़कर है। इस तथ्य को यदि समझा जा सके तो व्यक्ति समृद्ध बनने के लिए कितना प्रयत्न करता है, उससे हजार गुना अधिक प्रबुद्ध बनने के लिए करें।
मूर्धन्य कर्णधारों को यदि यह सूझ पड़े कि प्रजाजनों की शारीरिक आवश्यकताओं की तरह अन्तरात्मा की भावनाओं को विकसित करना भी आवश्यक है, तो वे दूसरी तरह से सोचें और अपनी प्रयास योजनाओं का कम से कम आधा भाग सद्भाव सम्वर्धन के लिए निश्चय ही सुरक्षित रखें। विचारशील व्यक्ति आलस्य प्रमाद से छूट सकता है अवगति के गड्ढ से उछलकर प्रगति की मुंडेर पर आ सकता है। और उस राजमार्ग को पकड़ सकता है, जिस पर चलते हुए अपनी ही नहीं प्रभाव क्षेत्र की भी दरिद्रता को मार भगा सकता है सम्पत्ति पुरुषार्थ को उत्पन्न नहीं करती। पुरुषार्थ सम्पत्ति को उत्पन्न करता हैं संपदा से मनुष्य पैदा नहीं होता। मनुष्य के पसीने से दौलत पैदा होती है। यह समझ जा सके तो मनुष्य को समृद्ध, शिक्षित, बलिष्ठ, चतुर, बनाने की अपेक्षा ऐसा शिल्पी बनाया जाय जो अपने आपे को भी ढाल सके और समीपवर्ती मिट्टी खोद कर उसे देव प्रतिमा के रूप में सुसज्जित करदे। आवश्यकता इसी कौशल को सीखने और सिखाने की है। यदि ऐसा एक व्यक्ति ढल सके, तो उस पर स्नातक प्रमाण पत्रों के गाड़ी भरे कागज तोरणों की तरह स्वागत पथ पर लटकाये जा सकते हैं।
सद्गुणी स्वल्प साधनों में भी उसका सदुपयोग करते हुए अमीरों से अधिक प्रसन्न रह सकता है। और निबाह के अतिरिक्त उतनी पूँजी से प्रगति से साधन भी जुटा सकता है। किन्तु यदि दुर्गुणों की, दुर्व्यसनों की भरमार हुई महत्वाकाँक्षाओं की मदिरा जैसी खुमारी चढ़ी रही तो फिर समझना चाहिए, कि कुबेर का कोश या कारुँ का खजाना भी कम पड़ेगा। सम्पत्ति को दुर्व्यसन के समीप ले जाते ही वह इस प्रकार जल कर खाक हो जाती है मानो पुआल के ऐर में किसी ने जलती लकड़ी डाल दी हो।
परिश्रमी पसीने की बूँदों से खेती उगाते हैं। सज्जन अपने अनेकों सहयोगी और प्रशंसक बुला लेते हैं। जिज्ञासा उभरे तो समाधान बताने वाले किसी भी कोने से निकल आते हैं। पढ़ने में रुचि हो तो जेल के कैदी लोहे के तसले पर कंकड़ों की कलम बनाकर एक दूसरे से पूछते हुए विद्यावान् बने दीखते हैं। इसी प्रगतिशीलता को बोते, उगाते, सींचते, बढ़ाते ओर रखवाली करते हुए वैभव भरी उपज के स्तर तक पहुँचाया जाना चाहिए। यदि यह लगन लग पड़े तो अकबर जैसे निरक्षर तने प्रवीण हो सकते हैं कि बचपन से ही काम काज संभाल लें और सभा के नवरत्नों का मार्ग दर्शन करें।
शिक्षा का अपना महत्व है। साक्षरता संवर्धन के लिए सरकारी ओर गैर सरकारी प्रयत्न चलते ही रहने चाहिए। पैसे की अपनी आवश्यकता है। गरीबी भगाओ आन्दोलन के अंतर्गत हर व्यक्ति को गरीबी की रेखा से ऊपर उठाया जाना चाहिए। इन प्रयत्नों को रोकने की आवश्यकता नहीं है। उन्हें तो बढ़ावा ही मिलना चाहिए। कहा यह जा रहा है कि उस प्रज्ञा उन्नयन की उपेक्षा नहीं होनी चाहिए जिसके आधार पर मनुष्य अपनी गरिमा को पहचानता है जिम्मेदारी को समझता है ओर साहस भरे पराक्रम के आधार पर जो हस्तगत हो सकता है, उसकी अनुभूति कर सके।
इसके लिए अलग से कोई विभाग खोलने की जरूरत नहीं है। जो भी वर्ग, क्षेत्र, उपक्रम है, उन्हीं के साथ यह सरसता घुलती रहनी चाहिए कि हर मनुष्य समझदारी ईमानदारी और बहादुरी का महत्व सीखे। हँसती हँसाती जिन्दगी जियें। अपनी खुशी बाँटे ओर दूसरों का दुःख बंटायें। सलाह लें और सम्मान दें। व्यस्त रहें मस्त रहें। कृतज्ञ रहें और सज्जन बनें। इस प्रक्रिया के लिए अलग से विद्यालय खुले तो भी हर्ज नहीं। हर समझदार व्यक्ति अपने आपके सज्जनोचित ढाँचे में ढाले। अपने गुण, कर्म, स्वभाव में शालीनता का समावेश होने दे। इतना करने भर से दूसरों पर उसका प्रभाव पड़ेगा और समीपवर्तियों से लेकर दूरवर्तियों तक उस प्रक्रिया का अनुकरण करने लगेंगे। चोरी लोग इसलिए करते हैं कि उसका लाभ तत्काल और प्रत्यक्ष दीख पड़ता है शालीनता उससे बढ़कर है। उसे अपनाने पर आत्मसंतोष, लोकसम्मान और दैवी अनुग्रह का तिहरा लाभ मिलने जैसी प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती। उसका सत्परिणाम नकद धर्म की तरह सामने आते हैं। दुर्जन अपने ढंग का दर्प अहंकार दिखाते फिरते हैं पर यह नहीं समझा जाना चाहिए कि सज्जनों के पास ऐसा कुछ नहीं होता जिसके कारण अपने को आनन्द और दूसरों को उल्लास दिया जा सके।
शुरुआत अपने से की जा सकती है। शुभारंभ के लिए आज का दिन ही परम श्रेष्ठ माना जा सकता है। प्रयोगशाला नई बनाने की जरूरत नहीं है। अपने मस्तिष्क एवं चिन्तन का उद्यान उगाया जा सकता है और शरीर द्वारा ऐसी जीवनचर्या का निर्धारण किया जा सकता है। जिसमें गुण कर्म, स्वभाव की आदर्शवादिता पग-पग पर दृष्टिगोचर होने लगे। गुलाब खिलता है तो उसकी महक चारों और फैलती है। चन्दन अपने समीपवर्ती झाड़-झंखाड़ को भी सुगंधित बना लेता है। इन तथ्यों को जो भी समझ सके वह अपने को सुधारे-समीपवर्ती तो अनायास ही सुधरता चला जाएगा।