Magazine - Year 1988 - Version 2
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Language: HINDI
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अहं का विसर्जन अर्थात् पूर्णता की प्राप्ति
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मानवी गतिविधियाँ एवं क्रिया–कलापों को ध्यान से देखने पर उसके जीवन के तीन स्तर स्पष्ट होते हैं। स्वर्णिम नियमों के उद्घोषक कन्फ्यूशियस ने इन्हें पशु, मनुष्य एवं देवता के रूप में समझाया है। इसी तथ्य को दार्शनिक शैली में अविकसित, विकासशील एवं विकसित कहा जाता रहा है।
अंतराल की संरचना के अनुरूप ही मनुष्य का चिंतन बन पड़ता है। तदनुसार चरित्र गठित होता है, जिसकी अभिव्यक्ति व्यवहार में बन पड़ती हैं। इस तरह चिंतन, चरित्र व्यवहार तीनों को संचालित करने वाला मनुष्य का अपना अंतराल है। इसकी विकसित, विकासशील एवं विकसित स्थितियों के अनुरूप इन तीनों के स्वरूप भी दृश्यमान होते हैं।
व्यवहार विज्ञानियों व मनःशास्त्रियों ने मानवीय व्यवहार को उत्कृष्ट, चरित्र को उन्नत एवं चिंतन को परिष्कृत करने के लिए काफी सोच विचार किया है। उन्होंने अपने निष्कर्ष में यही स्पष्ट किया है कि अंतराल के दोषमुक्त होते ही चिंतन चरित्र व्यवहार भी सहज दोष मुक्त हो सकेंगे। जे.एम.आर. डिलागो ने अपनी कृति “फ्री बिहेवियर एण्ड स्टीमुलेशन” में तुलनात्मक अध्ययन करते हुए बतलाया है कि क्रूरता, बर्बरता, आक्रामक प्रवृत्ति पशुओं में थोड़े से उद्दीपन से सहज संभाव्य बन जाती है। पशु व्यवहार और मानवीय व्यवहार को विभाजन करने वाली रेखा मनुष्य की विनम्रता है। यही तथ्य अमेरिका के जे.पी. स्कॉट ने अपनी रचना एनीमल बिहेवियर में प्रमाणित करते हुए कहा है कि पशुओं में जहाँ स्गसटिक बिहेवियर सहज बन पड़ता है ही उन्नत श्रेणी के मनुष्यों में नम्रता सहज दृश्यमान होती हैं।
भारतीय तत्वविदों ने भी विनम्रता को गुणोत्पादक रूप में स्वीकारा है अर्थात् यह गुणों की जननी हैं। इसके पनपते ही अन्य गुण सहज विकसित होने लगते हैं। श्री अरविन्द इसे सर्वांगीण साधना पद्धति के रूप में उपदिष्ट करते हैं। उन्होंने आत्म-विकास की साधना को तीव्र अभीप्सा, सतत् समर्पण, पूर्ण निवेदन के तीन चरणों के रूप में बताते हुए कहा कि तीव्र अभीप्सा से तात्पर्य हैं “अहं” विसर्जन की लालसा किन्तु अहं विसर्जन तुरंत एकदम नहीं बन पड़ता है। इस प्रक्रिया में सातत्य की आवश्यकता है, जो सतत् समर्पण के द्वारा पूर्ण होती है। इस क्षुद्र अहं पूर्णतया विसर्जित हो जाना ही पूर्ण निवेदन है। यह विसर्जन “स्व” का विराट” में, क्षुद्रता का महानता में हैं।
महर्षि आगे कहते हैं कि विनम्रता का तात्पर्य हैं- अहं का विसर्जन इसकी विनम्रता का तात्पर्य हैं- अहं का विसर्जन। इसकी सततता ही पूर्णता की ओर से जाने वाली होती है। यह दीनता नहीं है, जैसा कि अक्सर समझ लिया जाता है। यह इस बात का उद्घोष है कि हम जैसे है, वैसे है। हमें बिना किसी से प्रतिस्पर्धा और ईर्ष्या किये विकास करना है एवं यह प्रक्रिया बिना किसी से तुलना किये सम्पन्न होगी।
बहिरंग दृष्टि से दब्बूपन और चापलूसी भी विनम्रता के सदृश प्रतीत होते हैं, किन्तु यह प्रतीत होना प्रतीत भर है। वास्तविकता इससे विपरीत है। विनम्र व्यक्ति “अहं विसर्जन” साधक है। जबकि दब्बू और चापलूस व्यक्ति अहं से प्रेरित एक दीनहीन व्यक्ति मात्र है। अहं विसर्जन के चिन्तन में उसके विराट् में समाहित होने की प्रक्रिया के कारण संकीर्ण स्वार्थ बुद्धि लुप्त होती जाती है। उसका चिन्तन संकीर्णता से उभर कर सदाशयता के लिए नियोजित होने लगता है। तद्नुरूप उसके व्यावहारिक क्रिया-कलापों में परमार्थ परायणता भी स्पष्ट होती है। जबकि चापलूस दब्बू अपनी संकीर्ण स्वार्थपरता की श्रृंखलाओं में आबद्ध हो अपने चिन्तन, चरित्र, व्यवहार को क्षुद्रता में ही समेटे रहता है, जैसे रेशम का कीड़ा अपने ककून में ही बँधा जाल बुनता रहता है।
विनम्रता का साधन ऊर्ध्वमुखी प्रगति करता है। पूर्णता में प्रतिष्ठित होने पर वह ईश्वर से एकत्व प्राप्त करता है। इसी कारण महात्मा गाँधी ने अपने एकादश व्रतों में इसे महत्वपूर्ण स्थान दिया था। साथ ही ईश्वर में विनम्रता का पूर्ण अधिष्ठान होने के कारण ईश्वर को विनम्रता के अधिदेव, अधिपति कहकर सम्बोधित किया है।
हमारा सामान्य जीवन अहं से ही परिचालित होता है। यही कारण है कि हमारी विनम्रता मात्र एक प्रदर्शन या चापलूसी का स्वरूप बनकर रह जाती है। इस अहं में कहीं बाधा पड़ने पर पीड़ा होने लगती है। हिटलर के बारे में उक्ति है कि एक बार उसकी दीवार घड़ी खराब हो गई। उसकी ऊँचाई कम होने के कारण वह इसे उतार न पाया। उसके सात फीट लम्बे अर्दली ने घड़ी उतार कर ठीक कर दी, एवं यथा स्थान लगा दिया। इस घटना का वर्णन करते हुए वह लिखता हैं- “आज मुझे ऐसी पीड़ा हुई, जैसे मैं संसार हार गया।” उसकी यह पीड़ा मात्र हीनता के कारण है। उसे यह दुख मात्र इस कारण हुआ कि जो काम वह न कर सका वह उसके मातहत अर्दली ने कर दिखाया। छोटी-सी बात पर उसके अहं को इससे चोट पहुँची व उसने उसे बाकायदा अपनी डायरी में लिखा।
विनम्रता, हीनता के विपरीत है क्योंकि इसके उपजते ही अहंकार जाने लगता है, विसर्जित हो जाता है। साथ ही दीन हीनता भी समाप्त हो जाती है। विनम्र व्यक्ति को कभी भी दीन-हीन नहीं कहा जा सकता। ताओ धर्म के प्रवर्तक लाओत्से ने एक स्थान पर कहा है- “मुझे कोई हरा नहीं पाया, क्योंकि मैंने कभी जीत की आकाँक्षा नहीं की। मेरा कोई अपमान नहीं कर सका क्योंकि मैंने कभी सम्मान नहीं चाहा।”
उनके बारे में कहा जाता है कि किसी सभा में वे सबसे अंत में बैठते थे। इस पर उन्हें दीन, हीन भाव से ग्रस्त नहीं माना जा सकता। क्योंकि वे अपनी आत्म सत्ता के बारे में पूर्णरूपेण आश्वस्त थे। उनका व्यक्तित्व अहं से परिचालित नहीं, बल्कि “अहं ब्रह्मास्मि” वाली उक्ति के अनुसार उस जीव सत्ता का विकसित रूप था, जो कि विराट् का लघु संस्करण है।
लाओत्से विनम्रता अर्थात् अहं विसर्जन की साधना को विकास के लिए उपयुक्त पाथेय बताते हैं। भारतीय मनीषी भी “विद्या ददाति विनयं” अर्थात् विनयशीलता को विद्या की ही देन एवं परिणति मानते हैं। जो विनयशील नहीं वह अभी भी “अविद्या” अर्थात् बहुसंख्य हैं जो स्वयं को न जाने क्या मान बैठते हैं, परन्तु उपरोक्त कसौटी पर क्षुद्र अहंकारी ही सिद्ध होते हैं।
व्यक्तित्व गठन एवं जीवन विकास की प्रक्रिया का शुभारंभ विनयशीलता की अवधारणा से सहज ही बन पड़ता है। इस सहज संभाव्य आधार को ग्रहण कर प्रत्येक साधक अपनी विकास प्रक्रिया को पूर्ण कर सकता है। साधना क्षेत्र में प्रवेश करने वाले न जोन क्या-क्या कपोलकल्पित मान्यताएँ लेकर आते हैं, साथ ही अपना अहंकार भी। बुद्धि का आवरण भाव सत्ता पर, मन इस तरह छाया होता हैं कि वे कभी “मैं की सीढ़ी को पार ही नहीं कर पाते। भक्त विनयशील होता हैं, समर्पित होता है अतः एक छलाँग में बुद्धि को पार कर जाता है। कोई तर्क नहीं करता। उसका अहं होता ही नहीं क्योंकि मैं की हस्ती मिट जाती है। यही पूर्णता की निशानी है। योग का अर्थ ही होता है आत्म सत्ता व परमात्म सत्ता का मिलन। विनम्रता को अपना कर सफलता पूर्वक यह लक्ष्य सिद्धि की जा सकती है, यह भक्ति योग का संदेश हैं।