Magazine - Year 1988 - Version 2
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Language: HINDI
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मंत्रशक्ति की प्रभावोत्पादक सामर्थ्य एवं मर्म
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आज जब विज्ञान की गति पदार्थ की स्कूल सत्ता से जैसे-जैसे उसके सूक्ष्म स्वरूप की ओर बढ़ती जा रही है, वैसे-वैसे भारतीय प्राचीन विद्याओं की अनेक बातें सत्य प्रतीत होने लगी है। इन्हीं में से एक है मंत्र विद्या। प्राचीन समय में युद्ध के मैदान से लेकर रोग निवारण, स्वास्थ्य संवर्धन जैसे अन्याय क्षेत्रों में इसका उपयोग किया जाता था। आज यह विद्या लगभग लुप्त प्रायः हो चुकी है। अधिकाँश लोग तो इस पर अविश्वास करने लगे थे, पर विज्ञान की अधुनातन खोजो ने उस शास्त्रीय संभावना को बल प्रदान किया है, जिसमें इसकी विलक्षण सामर्थ्य की चर्चा की गयी है। आज विज्ञान भी इस बात को स्वीकारता है कि ध्वनि में इतनी सामर्थ्य है कि वह भला बुरा किसी भी प्रकार का प्रभाव व्यक्त और वस्तु पर डाल सकती है। भले प्रभाव के रूप में गीत की शक्ति सर्वविदित है और कौतूहल का दुष्प्रभाव आये दिन कितने ही उपद्रव खड़े करता रहता है, इसे सभी जानते है। यह तो स्थूल ध्वनियाँ हुई। विज्ञान ने सूक्ष्म ध्वनियों की भी खोज कर ली है। इनकी शक्ति स्थूल की तुलना में कही अधिक बढ़ी चढ़ी होती है। मंत्र में यही सूक्ष्म ध्वनियाँ काम करती है ओर तरह तरह के प्रभाव परिणाम उत्पन्न करती हैं।
शास्त्रों में मंत्रों की चार शक्तियां बतायी गई है (1) प्रामाण्य शक्ति (2) फल प्रदान शक्ति (3) बहुलीकरण शक्ति (4) आयातयामता शक्ति।
इन सभी का विस्तृत वर्णन महर्षि जैमिनी ने अपने पूर्व मीमंसादर्शन में किया है। उनके अनुसार मंत्रों की प्रामाण्य शक्ति वह है जिसमें शिक्षा, सम्बोधन व आदेश का समावेश रहता है। ऐसे शब्दार्थों से संबोधित माना जा सकता हैं।
पात्र कुण्ड, समिधा, आज्य चरु, हवि, पीठ आदि को अभिमंत्रित करके उनकी सूक्ष्म प्राण शक्ति को प्रखर बनाना, यह ऋत्विजों के मनोयोग, ब्रह्मचर्य, मंत्रोच्चार, तप, आहार और भावना पर निर्भर हैं। इससे मंत्र की फल दायिनी शक्ति सजग होती है। सकाम कर्मों में मंत्र की यही शक्ति सजग होकर इच्छित मनोरथ सिद्ध करती हैं।
इसकी तीसरी शक्ति है ‘बहुलीकरण’ अर्थात् अल्प को अधिक बनाना। अग्नि में मिर्च का छोटा टुकड़ा भर डाल देने से वह वायुभूत होकर पूरे कमरे में फैल जाती है, और उस वातावरण में आने वाले प्रत्येक व्यक्ति को प्रभावित करती है। तेल की कुछ बूंदें जल के विस्तृत सतह को घेर लेती है। विषधर का स्वल्प विष ही पूरे शरीर में फैल कर प्राण संकट खड़ा करता है। इसी प्रकार माँत्रिक का मंत्र और उसे उच्चारण करने वाले अंग अवयव आकार प्रकार में छोटा होने के बावजूद भी उनके पारस्परिक घर्षण से उत्पन्न होने वाली शक्ति चिनगारी की भाँति नगण्य होते हुए भी दावानल बन जाने की सामर्थ्य संजोये रहती है। जहाँ किसी एक व्यक्ति का मंत्र साधना, अनेकों को प्रभावित उत्तेजित करती हो वहाँ बहुलीकरण शक्ति ही क्रियारत समझी जानी चाहिए।
अन्तिम शक्ति आयातयामता है। किसी विशेष क्षमता सम्पन्न व्यक्ति द्वारा विशेष स्थान पर विशेष साधनों के माध्यम से, विशेष विधि विधान के साथ सम्पन्न हुई मंत्रोपासना विशेष शक्ति उत्पन्न करती है। यही आयातयामता शक्ति हैं। विशेष प्रयोजन इसी शक्ति से सधते हैं। कहा जाता हैं कि विश्वामित्र, परशुराम और श्रृंगी ऋषि को यही शक्ति प्राप्त थी। राजा दशरथ का पुत्रेष्टि यज्ञ सम्पन्न करने में वशिष्ठ ने जब अपनी असमर्थता व्यक्त की तो श्रृंगी ऋषि को बुलाया गया। उनने ही इसे पूरा का। यह श्रृंगी ऋषि की आयातयामता शक्ति ही थी।
शब्द अथवा मंत्र में स्थूल शक्ति तो होती है। पर उसकी सूक्ष्म शक्ति को ग्रहण धरण करने के लिए मंत्र साधक को संयमी होना पड़ता है, तभी वह उस शक्ति का सफलतापूर्वक उपयोग कर उसका लाभ उठा पाता है। महाभारत की कथा है। अश्वत्थामा और अर्जुन ने मंत्रचलित सघन अस्त्र का प्रयोग किया। अस्त्र और स्थिति की भयंकरता को देखकर बीच में व्यासजी आ खड़े हुए और दोनों से अस्त्र वापस लेने का आग्रह करने लगे। अर्जुन ब्रह्मचर्य पालने के कारण ऐसा करने में सफल हुए, पर अश्वत्थामा असंयमी होने के कारण ऐसा न कर सके।
शपथ ब्राह्मण में नृमेध और यरुच्छेप का एक उपाख्यान आता हैं। दोनों में इस बात का विवाद छिड़ा कि कौन सफल माँत्रिक हैं। नृमेध लकड़ी से धुआं भर निकाल सका, पर यरुच्छेप ने मंत्रोच्चार करके गीली लकड़ी में अग्नि प्रकट कर दी। इस पर यरुच्छेप ने कहा कि तू मंत्रोच्चार भर जानता है। हमने उसकी आत्मा से साक्षात्कार किया है।
कौत्स मुनि ने अपने ग्रन्थ में मंत्रों को अर्थ प्रधान नहीं वरन् ध्वनि प्रधान बताया है। उनके अनुसार बीज मंत्र ही, श्री, क्लीं आदि में उनके अर्थ से नहीं, ध्वनि से प्रयोजन सिद्ध होता है। नेषध चरित्र के 13 वें सर्ग में उसके लेखक ने इस बात को और भी अधिक स्पष्टतापूर्वक समझाया है। कहा जाता है कि दक्षिणी इंग्लैण्ड के सैलिसबरी के मैदान में स्थिति पाषाण कालीन स्टोनहेन्ज नामकसंरचना के खण्डहर मध्य में ध्वनि करने से वे बुरी तरह काँपने लगते है। अतः वहाँ संगीत बजाने के साथ साथ गाना भी निषिद्ध है शेर की दहाड़ और हाथी की चिंघाड़ से लोग डर जाते हैं। सैनिकों को यह आदेश होता है कि किसी पुल से गुजरते समय कदम मिला है कि किसी पुल से गुजरते समय कदम मिला कर न चले, अन्यथा उसकी तालबद्ध ध्वनि तरंगें पुल को गिरा सकती है। इसी ध्वनि विज्ञान पर मंत्रों की रचना आधारित है। उनके अर्थों का उतना महत्व नहीं, इसी से कौत्स मुनि ने उन्हें अनर्थक कहा है। वैसे यह बात सभी मंत्रों पर लागू नहीं होती।
मंत्र में निहित इसी शक्ति का प्रयोग विभिन्न प्रयोजनों में किया जाता है। एक घटना 1971 की है, जब मलाया के राजा परमेसुरी अगोंग थे। उनकी पुत्री शरीफा साल्बा का विवाह होने जा रहा था। शादी आरंभ होने में अभी कुछ समय बाकी ही था कि वर्षा आरम्भ हो गई। इतनी घनघोर शुरू हुई कि वह रुकने का नाम ही नहीं लेती। राज परिवार में चिंता व्याप्त हो गई। ऐसा लगने लगा कि शायद अब शादी आगे टल जाय, पर तभी राजा को वहाँ के प्रसिद्ध माँत्रिक रहमान की याद आयी। उसे बुलाया गया उसने कुछ प्रयोग किये और थोड़ी ही देर पश्चात् वहाँ बारिश पूर्णतः थम गई। यद्यपि आकाश में अभी भी सघन बादल थे और उस स्थान को छोड़ कर नगर के समस्त भाग में तेज वर्षा हो रही थी। इस दृश्य को देख कर ऐसा लगता था मानो किसी ने उससे ऊपर छतरी लगा दी हो। विवाह भली भाँति सम्पन्न होकर धूम धाम से समाप्त हुआ। इसके बाद रहमान ने दूसरा मंत्र पढ़ा और उस क्षेत्र में पुनः वर्षा प्रारम्भ हो गई।
एक बार न्यूयार्क के माउण्टसिनाई अस्पताल में एक जख्मी व्यक्ति उपचार के लिए ले जाया गया। उसने गर्म धातु का स्पर्श कर लिया था। औषधि उपचार से काफी हिस्सा नियंत्रण में आ गया, पर हाथ की कुछ अंगुलियों इतनी भयंकरता से जली थी कि डाक्टरों को उन्हें काट देने के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं सूझ रहा था, तभी कुछ व्यक्तियों की सलाह पर मंत्र शक्ति को आजमाया, गया। कुछ ही दिनों के मंत्र उपचार से ऊंचाइयां ठीक हो गई। इस घटना का उल्लेख तत्कालीन समय की प्रमुख, चिकित्सा पत्रिका एचीवमेण्टस ऑफ फिजिकल मेडिसिन एण्ड रिहेबिलिटेशन में छपा था।
ऐसी ही एक घटना दिसम्बर 1967 की कादम्बिनी पत्रिका में छपी थी, जिसमें मंत्रोपचार द्वारा पीलिया रोग निवारण भी एक प्रत्यक्ष घटना की चर्चा की गई थी। गांवों में कुत्ते और साँप के विष को मंत्र द्वारा ही निर्विष कर दुर्भाग्यग्रस्त व्यक्ति का उपचार किया जाता हैं।
योगवाशिष्ठ 6/9/81/39) में मंत्र की चिकित्सा शक्ति पर प्रकाश डालते हुए लिखा गया है कि जैसे हर्र खाने में पाचन संस्थान में तीव्र गति होती है और दस्त लग जाते हैं, उसी प्रकार दृढ़ भावना से युक्त यरलव आदि मंत्रों अक्षर शरीर पर असर डालते हैं।
अश्विनी कुमार के भैषज तंत्र में भी मंत्र शक्ति का उपयोग उपचार क्षेत्र में किये जाने का उल्लेख मिलता है। इसमें चार प्रकार के भैषज बताये गये है पवनौकष, जलौकष, वनौकष और शाब्दिक। शाब्दिक भैषज से तात्पर्य है मंत्रोच्चार एवं लयबद्ध गायन। जहाँ आयुर्वेद के प्रमुख ग्रंथ चरक संहिता में विभिन्न प्रकार के रोगों के उपचार के लिए मंत्रोपचार की चर्चा की गई है, वही सामवेद में ऋचाओं के बायन का माहात्म्य स्वास्थ्य लाभ के क्षेत्र में बताया गया है।
मंत्र की इसी शक्ति का प्रयोग तंत्रशास्त्र में कृत्या-घात, जैसे प्रयोगों में किया जाता है। पर यहाँ उच्चारण संबंधी भूल न सिर्फ वाँछित मनोरथ प्राप्ति से प्रयोक्ता को वंचित कर देती है वरन् उसका दुष्परिणाम भी उसे भुगतना पड़ता है। ऐसी पौराणिक कथा है कि त्वष्टा से मंत्रोच्चारण में एक स्वर ही गलती हुई थी और उसका परिणाम विपरीत हो गया। त्वष्टा इन्द्र को मारने वाला पुत्र उत्पन्न करना चाहते थे, किन्तु स्वर संबंधी उच्चारण की भूल से जिसे इन्द्र ने ही मार डाला, ऐसा वृत नामक असुर उत्पन्न हुआ और उनका प्रयोजन पूरा न हो सका।
इससे प्रमाणित होता हैं कि मंत्रशक्ति में कितनी प्रचण्ड सामर्थ्य विद्यमान है। मनीषियों की मान्यता है कि सृष्टि के आदि में “शब्द” उत्पन्न हुआ। उसका ध्वनि प्रवाह ओंकार जैसा था। उसके बाद अन्यान्य तत्वों की उत्पत्ति हुई। यह आज के भौतिकीविदों की “विंगबैंग” थ्योरी का ही स्वरूप माना जा सकता है। सृष्टि की परोक्ष सत्ता इसी ओंकार से प्रस्फुटित हो प्रत्यक्ष कलेवर धारण करती चली गयी। ओंकार ध्वनि शास्त्र का बीज है। उस अकेले को ही इतने प्रवाहों में गाया जा सकता है कि सातों स्वरों का परिचय उस अकेले से ही प्रादुर्भूत हो सके। हो सकता है - मंत्र चिकित्सा, संगीत उपचार के अनुसंधान के क्षेत्र में अगले दिनों ऐसे भी प्रयोग चल पड़े कि समस्त श्रुति ऋचाओं की बीज मंत्र ओंकार ही विभिन्न ध्वनि लहरियों में प्रयुक्त किया जा सके एवं मंत्र संगीत चिकित्सा का एक परिपूर्ण ढाँचा खड़ा किया जा सके।
आज विज्ञान के पास वह सब कुछ है जिससे प्रयोगों की परिणति को, उनकी क्रिया पद्धति को जांचा परखा जा सकता है। समय आ रहा है कि स्थूल की शोध क्रमशः सूक्ष्म स्तरों को स्पर्श कर रही हैं शब्द शक्ति को चेतना का ईंधन माना गया है जो अंदर विद्यमान प्राणाग्नि को प्रज्वलित कर प्रसुप्त क्षमताओं को जगाती है। ऐसे यंत्र भी आने वाले समय में आविष्कृत होंगे जो इन सूक्ष्म कंपनों को पकड़ सकेंगे जो मंत्रोच्चारण एवं ऋचाओं के गायन की प्रक्रिया में उत्पन्न होते हैं एवं शरीर के अंग-प्रत्यंग को, चारों ओर के वातावरण पर अपना प्रभाव डालते हैं। फिर वे रहस्य भी जाने जा सकेंगे जो अभी तक अविज्ञात हैं।