Magazine - Year 1988 - Version 2
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Language: HINDI
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लक्ष्य सिद्धि का मर्म (Kavita)
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इस विराट् जीवन पथ को मत निज लघुता से तोलो।
पाना है यदि लक्ष्य पथिक! तो पंख हृदय के खोलो॥
इतने आकर्षण! मन उनकी ओर दौड़ सकता है
इतनी भ्रान्ति!सगा भी तेरा साथ छोड़ सकता है
इतनी धूल भरी आँधी में दगा कुछ न दिखायी
फिर क्यों इस मेले में तूने अंधी दौड़ लगायी?
मत जीवन में अमृत कलश में तृष्णा के विष घोलो।
पाना है यदि लक्ष्य पथिक! तो पंख हृदय के खोलो।
साँसों का सिलसिला अन्त तक साथ न चलने वाला
खड़ा मिलेगा कुछ ही दूरी पर वह विषधर काला
जिसके सर्प दंश से अब तक कोई नहीं बचा है,
अविनाशी ने ही विनाश का शाश्वत सत्य रचा है
साँसें साथ छोड़ दें इससे, पहले ही मन धोलो।
पाना है यदि लक्ष्य पथिक! तो पंख हृदय के खोलो।
आज नहीं कल ही हलचल में जीवन चला न जाये
ऐसा कहाँ न हो तू रोये, हाथ मले पछताये
साँस रोक क्षण भर, अथाह अंबर में दृष्टि लाग तू
कहीं काल के क्रूर हाथ में जाये नहीं ठगा तू
विभूता को बाँधे बैठे वह मन के बंधन खोलो।
पाना है यदि लक्ष्य पथिक! तो पंख हृदय के खोलो॥
रंग ढंग तो क्या? न यहाँ के अंग संग कुछ अपने
देख रहा फिर भी आंखें मूंदे, मायावी सपने
हर अगला पग अंधकार की ओर बढ़ा जाता है
जीवन का हर कर्म काल का कौर बना जाता है
जगा आत्म विश्वास! ज्योति-पथ; पथ पर एकाकी हो लो।
पाना है यदि लक्ष्य पथिक! तो पंख हृदय के खोलो।
*समाप्त*