Magazine - Year 1988 - Version 2
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Language: HINDI
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धर्म का शाश्वत सनातन स्वरूप
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मानवी जीवन की प्रगति यात्रा का क्रम क्या हो? कैसे इसे दु्रुत बनाया जाय? यह प्रारम्भ से ही मनीषियों को चिन्तन का केन्द्र रहा है मानव की काया, प्राण व मन की सुगठित बनाते हुए अतिमानस तक की विकासयात्रा सम्पन्न करने के साथ सामाजिक परिप्रेक्ष्य में व्यावहारिक जीवन श्रेष्ठ, समुन्नत व आदर्श कैसे बनाया जाय। इस पर सैद्धान्तिक विवेचन एवं व्यवहारिक मार्गदर्शन प्रदान कर व्यष्टिगत एवं समष्टिगत जीवन के सभी पक्षों को ध्यान में रखते हुए सर्वतोमुखी विकास की जो प्रणाली आविष्कृत हुई, महापुरुषों ने उसका नाम ‘धर्म’ दिया।
यद्यपि मानवीय ज्ञान की समस्त विद्याएं मनुष्य के विकास के लक्ष्य को लेकर ही विकसित हुई है, किन्तु इनमें से प्रत्येक का गहनता से अवलोकन करने पर स्पष्ट होता हैं कि ये सभी एकांगी हैं। सर्वांगीणता एवं सार्वभौमिकता की दृष्टि से विकसित जीवन के लिए आवश्यक सूत्रों को हृदयंगम कराना धर्म की अपनी विशिष्टता है। इन सूत्रों को हृदयंगम कर जीवन लक्ष्य की और पहुंचने का विवेकपूर्ण सचेतन प्रयास करना ही यथार्थ अर्थों में धार्मिक होना है। प्रख्यात चिन्तक स्वामी पवित्रानन्द अपनी कृति “माडर्न मेन इन सर्च ऑफ रिलीजन” में इसको और अधिक स्पष्ट करते हुए बताते है - धर्म का तात्पर्य है “वर्तमान एक जीवन में ही अनेक जीवनों का निचोड़ लेना।” यही कारण है कि सच्चे धार्मिक व्यक्ति का जीवन के प्रति दृष्टिकोण उसके आदर्शों के प्रति सहानुभूति रखने वाले लोगों के अतिरिक्त अन्य सभी के लिए अबोधगम्य रहता है।
सर्वांगीण विकास के इन सूत्रों का अन्वेषण तथा कालक्रम परिस्थितियों परिवेश की दृष्टि से संशोधन समय-समय पर विभिन्न महापुरुषों ने किया है। इन अन्वेषकों तथा संशोधनकर्ताओं के निर्धारण के आधार पर सार्वभौमिक विकास की एक ही प्रणाली धर्म ने परिस्थितियों एवं परिवेश के अनुरूप विभिन्न स्वरूप पाए। इसी तथ्य पर गहन चिन्तन के उपरान्त अपने प्रतिपादित निष्कर्ष में उल्लेख करते हुए बर्नार्डशा ने श्रुति के कथन को दुहराया कि “धर्म एक है उसके स्वरूप अवश्य भिन्न है।”
कालक्रम की दृष्टि से हिन्दू धर्म को इतिहासविज्ञ सर्वाधिक प्राचीन मानते हैं धर्म के साथ हिन्दू जोड़ने का तात्पर्य केवल इतना है कि सूत्रों के अन्वेषक हिन्दीवासी थे। इसके पश्चात् परिस्थितियों एवं परिवेशन के अनुसार संशोधन व अन्वेषण हुए तथा परसिया में पारसी धर्म का उदय हुआ। प्रो. ए.वी. डब्ल्यू जैक्सन अपनी कृति परसिया पास्ट एंउ प्रोजेण्ट में पारसी धर्म के अधिष्ठाता जरथुस्त्र को एक ऐतिहासिक व्यक्ति की मान्यता प्रदान करते है। कुछ इतिहासकार पौरष्य व दुग्धोवा की इन सन्तान का काल ईसा से 6़000 ई. पूर्व तथा कुछ ईसा से 12000 ई. पूर्व मानते है। इनके पश्चात् मूसा, ईसा, मुहम्मद आदि महापुरुषों के द्वारा यहूदी, ईसाई एवं इस्लाम धर्मों का उदय हुआ। इसी तरह चीन में ईसा से 604 वर्ष पूर्व लाओत्से के द्वारा ताओ धर्म लगभग 424 वर्ष पूर्व कन्फ्यूशियस द्वारा कन्फ्यूशियस धर्म प्रकाश में आए। जापान में शिन्तो धर्म तथा भारत में बौद्ध धर्म व जैन धर्म का उदय इसी संशोधन व अन्वेषण की परम्परा में हुआ।
यद्यपि ये सभी धर्म सार्वभौमिकता के एक ही शाश्वत सिद्धान्त व लरु का बोध कराने वाले हैं किन्तु प्रत्येक में मत–मतांतरों तथा व्याख्यानों की बहुलता के अम्बार में शाश्वतता छुप-सी गई हैं सर्वसामान्य को यह प्रतीत होने लगा है कि यह विभिन्नता धर्म के स्वरूपों की न होकर स्वयं धर्म की हैं।
प्रत्येक स्वरूप में उल्लिखित सिद्धान्तों का गहन अध्ययन व गवेषणात्मक विवेचन वस्तु स्थिति को प्रकट करता है। सिद्धान्तों की दृष्टि से पारसी, यहूदी, ईसाई, धर्म एक है। पारसियों का आहुरमज्द ही यहूदियों का यहोवा, ईसाइयों का स्वर्गस्थ पिता तथा मुसलमानों का अल्लाह है। ईश्वर व जीव के पारस्परिक सम्बन्ध स्नेहमय है। इसी तरह बौद्ध धर्म, जैन धर्म, कन्फ्यूशियस धर्म, ताओ-धर्म, शिन्तो धर्म सभी स्वर्णिम नियमों की बात करते हैं। इन धर्मों को प्रकारान्तर से नीति का विशद विवेचन कहा जा सकता है। बौद्ध एवं जैन विवेचन की कुछ दार्शनिक मीमांसाओं में विभेद होने पर भी दोनों ही आदर्शोन्मुखी जीवन जीने की नीतियों का प्रायः एक जैसा प्रतिपादन करते हैं। यही स्थिति कन्फ्यूशियस धर्म में है। इसमें उल्लेखित स्वर्णित नियम भी उपरोक्त जैसे ही हैं इन नियमों के पाँच प्रकारों में जैन का तात्पर्य है अच्छाई मनुष्य-मनुष्य में प्रेम सम्बन्ध। चुन त्स का भाव है सच्ची श्रेष्ठ मनुष्यता, “लि” का मतलब है। औचित्य उत्तम व्यवहार इसका एक व्यर्थ जीवन का नियम व्यवस्था से भी है। “ते” का अर्थ है शक्ति किन्तु कन्फ्यूशियस के मन्तव्य से शक्ति का शारीरिक, भौतिक स्तर पर नहीं मौखिक स्तर में होता है। पाँचवे नियम वेन का अर्थ है शंति का कलाएं। इसी तरह ताओ धर्म में ताओ का अर्थ है मार्ग। इसे लाओत्से परम कारण मानते हुए इसकी प्राप्ति तु नैतिक व अनंत जीवन जीने का मार्ग निर्देशित करते है। जापान के शिन्तो धर्म का मर्म समझाते हुए टोकियो विश्वविद्यालय के तत्कालीन प्राध्यापक डॉ. शिशिजी इशीकावा अपने विचारपूर्ण निबन्ध इन्ट्रोडक्शन टू शिन्तोथियोलॉजी में कहते है- कि शिन्तो का तात्पर्य है ईश्वरीय मार्ग इसमें ईश्वर के केनकार्ड अर्थात् सगुण व यूकार्ड अर्थात् निर्गुण दोनों ही पक्ष स्वीकारने के साथ जीवन को उन्नत व विकसित बनाने हेतु नीति नियमोँ का सुनियोजित विवेचन है।
विश्व के सभी महत्वपूर्ण धार्मिक स्वरूपों पर किया गया चिन्तन इनकी एकात्मता पर सोचने के लिए हमें बाध्य करता है। इनका यह अनितीय भाव भारतीय वाङ्मय के वेद अर्थात् ज्ञान के शीर्षस्थ भाग अर्थात् वेदान्त में स्पष्ट भावित होता है। यह अपने प्रथम सिद्धान्त नाम रूप मिथ्या में सारे द्वंद्वों का निराकरण करता है। इसका तात्पर्य है कि नाम रूप का मोह ही सारे झगड़े की जड़ हैं। वास्तविकता भी यही हैं। अर्नाल्ड टायनवी एन हिस्टोरियन अप्रोच टू रिलीजन में कहते है ‘6 धर्म के नाम पर हुए प्रायः सभी झगड़े सिद्धान्तों के लिए नहीं वान् स्वरूपों के लिए हुए हैं।
स्वरूपों को कुछ अधिक महत्व देने के कारण ही जहाँ यह कहा जाता है कि जो ईसा को नहीं मानता वह ईसाई नहीं, मूसा, मुहम्मद, बुद्ध, जैन, ताओवादी, कन्फ्यूशियस आदि को न मानने वाला, क्रमशः यहूदी, मुसलमान, बौद्ध, जैन, ताओवादी, कन्फ्यूशियस मतावलम्बी नहीं वहीं, राम, कृष्ण कोन मानने वाले, सगुण या निर्गुण को स्वीकारने अथवा अस्वीकार करने वाले सभी सहता से इस सनातन भाव को ग्रहण कर सकते हैं। स्वामी अभेदानन्द अपने एक वक्तव्य में कहते हैं कि “यहाँ आस्तिक व नास्तिक के मध्य भी काई तकरार नहीं, क्यों कि इसके सिद्धान्त मनोवैज्ञानिक है जो सभी को सहज स्वीकार्य है।”
नाम, रूप का आवरण हटा देने पर विश्व के सभी धर्म यहाँ अपना एकत्व प्राप्त कर लेते हैं नैतिक नियमों का प्राधान्य मानने वाले बौद्ध, जैन कन्फ्यूशियस वेदान्त में वर्णित साधन चतुष्टय व षट् सम्पत्ति ग (शमुँ, दम, उपरति, तितीक्षा, भुभुक्षत्व, नित्यानित्य विवेक) में एकत्व प्राप्त करते है। जबकि पारसी, यहूदी, ईसाई इसलाम इसके द्वैत भाव से एकीकृत होते हैं। किन्तु ईसा के आय एण्ड माय ओन सेल्फ तथा सूफियों के अनहल हक् क स्वर निनाद के साथ इनका एकत्व विशष्टाद्वैत से होता है। यही स्थिति शिंतों के सगुण निर्गुण के साथ है जबकि ताओ पूर्णतया अद्वैत सिद्धान्त के ब्रह्म के सदृश्याही हैं इसे ताओं-ते- किंग नामक कृति में निराकार मन वाणी से परे बताया गया है यही नहीं सभी धर्म स्वरूपों का मोह छोड़ने के साथ जहाँ परमोच्च भाव में प्रतिष्ठित होते हैं। वही वे अद्वैत तत्व में समाहित हो जाते है।
फ्राँस के प्रसिद्ध पत्रकार तथा विचारक जीन हर्बर्ट अपनी कृति डायवर्सिटी इन यूनिटी में उपरोक्त तथ्य से सहमति व्यक्त करते हुए कहते हैं कि सिद्धांतों एवं शाश्वत मँलयो की अपेक्षा मतों एवं मतवादों तथा तत्सम्बन्धी वर्गीकरण के नाना विभेदों में अपना सारा चिन्तन केन्द्रित करन के कारण ही हमें एकत्व में अनेकत्व भासित होने लगा हैं। इसी को वास्तविकता समझ बैठने के कारण ही शाश्वत मूल्यों से विमुखता तथा प्रेम के स्थान पर द्वेष ही हमारे पल्ले पड़ रहा हैं।
आवश्यकता एकतत्व बोध की है। इसी को प्रतिपादित करते हुए सुविख्यात विचारक डॉ. भगवानदासअपीन रचना “द इसेन्शियल यूनिटी ऑफ ऑल रिलीजन्स” में कहते है कि द वन टू गाँड, विश्वात्मा, ओवरसोल, एनिमा मुण्डी, द टोटल माइण्ड, द यूनिर्वल सेल्फ ऑफ ऑल आदि नामे की अख्ज्ञराभिव्यंजना से भ्रमित न होकर धर्म के उस शाश्वत स्वरूप का अनुकरण, अनुसरण करना चाहिए जो एक है किन्तु अनेक स्वरूपों में प्रतिभासित हो रहा है। इसी तथ्य को स्वामी विश्वानन्द सत्य स्वीकारते हुए अपनी कृति यूनिटी ऑफ रिलीजन्स में कहते हैं कि प्रत्येक धर्म के मुख्यतः तीन पक्ष है दर्शन, आधारभूत सिद्धान्त व नीति। तीनों ही दृष्टिकोणों से परखने पर स्पष्टतया धर्म एक है, उसके स्वरूपों में भले ही विविधता गोचर हो।
वेदान्त इन भासित होने वाले स्वरूपों की कमणमुक्त को अपनी माला में यथोचित स्थान देता हुआ गीता के कथन की भवि सर्व मिदं प्रोक्त सूत्रें मणि गणाँ इवा को प्रमाणित करता हुआ स्पष्ट करता हैं कि कि धर्म के विभिन्न स्वरूप मणियों के सदृश है, जबकि धर्म की शाश्वतता सूत्र की तरह एक है। यही सूत्र इन सभी का आधार हैं इसके नष्ट होने से सभी का अस्तित्व नष्ट होने की संभावना है आवश्यकता इस सूत्र को समझने तदनुरूप आचरण की महत्ता प्रतिपादित करने की है।
वेदान्त के द्वारा इ परमोच्च भाव की व्याख्या के कारण ही प्रो. मैक्सूमूलन सिक्स सिस्टम्स ऑफ इंडियन फिलॉसफी नामक कृति में में इसे उस वास्तविकता के नाम से बताते है जो मानव मन द्वारा प्राप्य है। जर्मन दार्शनिक शोपेनहावर इसे जीवन व मृत्यु का सहचर व शान्ति प्रदाता मानते है। प्रो. ई. डढब्लयू हाँपकिन्स इसे थेल्स, पैरमिनिडीज की विचारणा का आधार बताते हुए मानव मात्र के लिए कल्याणकारी मानते है। कील विश्वविद्यालय के तत्कालीन प्राध्यापक दर्शनशास्त्री पालडायसन ने इसकी कल्याण कारित तथा सार्वभौमिकता के ही कारण इस पर ग्रन्थों की रचना (वेदान्त दर्शन का भाव्य आदि) भी की।
विविध स्वरूपों के व्यामोह में न उलझकर शाश्वत मूल्यों के परिपालन को आधार मानकर ही जीवन लक्ष्य की प्राप्ति सम्भव है। स्वामी विवेकानन्द एक स्थान पर कहते है कि स्वरूपों के व्यामोह ने ही समय समय पर मनुष्य का पशु के स्तर पर उतारा है जबकि एकत्व के बोध ने महापुरुष उपजाकर मानवता का सुशोभित किया है। इस भाव को हृदयंगम कर तद्नुरूप व्यवहार करने से मानव जाति सही अर्थों में धर्मपरायण हो सकती है। मानवता अपना खो सौंदर्य पुनः पाकर उज्ज्वल भविष्य की आधारशिला रख सकती है। यह मात्र यूटोपिया नहीं, एक सुनिश्चित संभावना भी हैं।