Magazine - Year 1988 - Version 2
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Language: HINDI
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तेजोवलय का वैज्ञानिक आधार
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मनीषियों का मत है कि मनुष्य से सदैव एक प्रकार की प्राण विद्युत निकलती रहती है, जिसका उद्भव सूक्ष्म शरीर के निर्माण में भाग लेने वाले न्यूट्रान कणों की तीव्रतम गति के कारण होता है। वैज्ञानिकों ने इसे बायोइलेक्ट्रिसिटी, बायोप्लाज्मा, कास्मिक एनर्जी, बाइटल फोर्स, लाइफ-फील्ड आदि अनेकों नामों से सम्बोधित किया है। यह प्राण विद्युत मनुष्य के स्थूल शरीर से कुछ इंचों से लेकर 6 फीट की दूर तक प्रवाहित होती रहती है। इसी को आभामण्डल कहते है। यह प्राण शरीर से विकरित होने वाली विद्युतीय तरंगों से बनता है। समस्त प्राणियों, वृक्ष-वनस्पतियों का अपना अलग-अलग आभामंडल होता है। पाया गया है कि मनुष्य का आभामण्डल उसकी भावनाओं, विचारणाओं तथा आवेग-संवेगों के अनुसार बदलता रहता है।
मनुष्य के अंतर्जगत में सदैव देवा-सुर संग्राम चलता रहता है। दो प्रकार के स्पन्दन सतत् स्पन्दित होते रहते है। मनःसंस्थान और अतः करण में विचारों और भावनाओं की दो धाराएं साथ साथ बहती रहती है। विचारों की धारा ज्ञान से सम्बन्धित होती है। जिनमें बाह्य परिस्थितियाँ और व्यावहारिक जगत भी सम्मिलित है। मनुष्य वातावरण से समाज से शिक्षा स्वाध्याय, सत्संग से अथवा गुरुजनों से जो भी ज्ञान अर्जित करता है, उसी के अनुरूप उसके चिन्तन-मनन और सोचने समझने की एक गोलाकार परिधि सी बनती जाती है। मनःमस्तिष्क में बहते हुए यह विचार ही एक धारा का रूप ले लेते है। अतः करण में प्रवाहित होने वाली क्षुद्र भावनाओं की धारा को कषाय-कल्मषों की धारा भी कहते है। काम क्रोध मद मत्सर, मोह, राग, द्वेष, भय आदि विषय वासनाओं एषणाओं की धारा मनुष्य के सूक्ष्म और कारण जगत में सदैव प्रवाहित होती रहती है, जबकि सब महापुरुषों में उदारता, आत्मीयता, सहृदयता, करुणा, पवित्रता आदि की शुभ कल्याणकारी धाराएं प्रवाहित होती रहती है।
वैज्ञानिकों के मतानुसार विचार-धारा के सतत् प्रवाह से स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर निर्माण में भाग लेने वाले तत्वों के सूक्ष्म परमाणुओं न्यूट्रान कणों में स्पन्दन होता रहता है और उसी से प्रेम ऊर्जा का निर्माण होता है। प्राणमय शरीर भौतिक परमाणुओं से बने होने के कारण दृश्य होता है और उस रंग-रूप भी होता है। अतः उससे विनिर्मित आभामण्डल भी गुण रूप होता है। उसमें अनेकों वर्ण होते है। जैसे पीला, लाल, नीला, हरा, काला आदि।
वैज्ञानिकों ने अनेक अनुसंधान में पाया है कि जैसे व्यक्ति के स्वास्थ्य में सुधार होता जाता है। विचारधारा, भावना और गुण, गर्म, स्वभाव में ऊर्ध्वगामी, उच्चस्तर परिवर्तन करने पर व्यक्ति के मन मस्तिष्क और अंतःकरण में जिस गति से उत्कृष्टता का समावेश होता आभामण्डल भी तद्रूप शुभ्र और विकसित होता जाता है। भावनाओं के परिष्कार और रंगों के ध्यान विशेषण प्रातः उदीयमान स्वर्णिम सूर्य के ध्यान द्वारा प्राण ऊर्जा अभिवर्धन होता है। जैसे-जैसे प्राणमय सूक्ष्म .... परिपुष्ट होता और ओजस्वी-तेजस्वी बनता जाता है, शरीर से सतत् विसरित होने वाली प्राण ऊर्जा प्रभाव क्षेत्र-’लाइफ फील्ड’ बढ़ता जाता है। इसमें .... और दूर दूर तक का वातावरण प्रभावित होता है पर पक्षी एवं मानव पवित्र आत्माओं महान संत, योगियों इसी लाइफ फील्ड - अर्थात् आभामण्डल के प्रभाव, जन्मजात विरोध भाव भूलकर शान्तिपूर्वक उन सान्निध्य में पास-पास बैठे रहते है।
आभामण्डल को रंगों के आधार पर 6 भागों में विभक्त किया गया है (1) काला-परा बैंगनी से बैंगनी तक (2) नीला (3) हरा (4) लाल (5) हल्का पीला और (6) .... के समान श्वेत। ये सभी रंग भौतिक परमाणुओं के सम्मिश्रण के कारण होते है।
थियोसोफिकल सोसायटी की जन्मदात्री मैडम ब्लैवेटस्की अनुसार मनुष्य का आभामण्डल एक बहुत ही जटिल और उलझा हुआ अभिव्यक्तिकरण है, जो उस क्षेत्र में कार्यरत विभिन्न प्रभावों से निर्मित होता है। आभामण्डल में लगे लेने वाले कुछ तत्व स्थूल शरीर से बाहर निकलते होते है तो कुछ सूक्ष्म और कारण शरीर से। तीनों शरीर निकलते वाले प्रकाश पुँज एक दूसरे में मिल जाते है। मिश्रित रूप में उसी एक स्थान में छाये रहते है। विशेषज्ञों ने आभामण्डल को पाँच भागों में विभक्त किया है।
(1) हेल्थ ऑरा (2) वाइटल आँरा (3) कास्मिक आँरा (4) आँरा आफ करेक्टर (5) आँरा आफ द स्प्रिचुअल।
हेल्थ आँरा या स्वास्य आभामण्डल प्रायः रंगहीन होता और स्थूल शरीर के चारों और से सीधी रेखा के रूप में स्फुटित होता रहता है। वाइटल आँरा को सक्रिय आभा कहते है। इसे सूक्ष्म शरीर से विकरित माना गया है। वह इच्छा शक्ति द्वारा नियंत्रित होता है। सूक्ष्म शरीर से निकलते समय इसका रंग हल्का गुलाबी आभायुक्त होता है र बाहर आते ही नीले रंग में परिवर्तित हो जाता है। कॉस्मिक आँरा को जीवन दर्पण या अभिव्यक्तिकरण का .... भी कहते है जिससे मनुष्य की भावनाएं इच्छाएं प्रतिविम्बित होती है। इस आभामण्डल का रंग नियमित रूप से परिवर्तित होता रहता है। ईर्ष्या, द्वेष, काम, क्रोध आदि विषय विकारों की एक लहर से ही इसका रंग बदल तो है। क्रोध की एक चिनगारी अंदर सुलगते ही आभा रंग गहरा सुर्ख लाल हो जाता है। अचानक भयभीत होने पर आभामण्डल का रंग बदल कर कुछ ही क्षणों में .... धूसर रंग का हो जाता है। चरित्र आभा स्थायीक्षणों वाला होता है और मनुष्य के व्यक्तित्व की वर्तमान भाव भूतकालीन चारित्रिक विशेषताओं को दर्शाता है। आध्यात्मिक ज्योतिर्मंडल-द आँरा ऑफ द स्प्रिचुअल वर- विशेष प्रकार के प्रकाश पुँजों से निर्मित पवित्र आत्माओं संत, ऋषियों में एक देदीप्यमान आभामंडल के रूप में पाया जाता है।
आँरा का सर्वप्रथम वैज्ञानिक अध्ययन लंदन के सेण्ट सेमस अस्पताल के चिकित्सा विशेषज्ञ डॉ. वाल्टर .... ने किया। विशेष प्रकार के रंगीन काँच के माध्यम से जब उन्होंने शरीर एवं उसके विभिन्न अंग अवयवों का पर्यवेक्षण किया, तो उन्हें उनके चारों और एक चमत्कार आभा दिखाई पड़ी, जिसे उन्होंने आँरा की संज्ञा दी और शरीर से निकलने वाली एक प्रकार की बिजली इसे कहा।
.... के बाद कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी के .... बैग्नाँल ने इसके कार्य विद्युत होने को निर्विवाद रूप से सिद्ध कर दिया। उन्होंने पहली बार भौतिकी भाषा में इसकी व्याख्या की। उनका कहना था कि आभामण्डल हवा द्वारा प्रभावित नहीं किया जा सकता, किन्तु यदि त्वचा के अति निकट कोई चुम्बक रखा जाए, तो उसकी ओर इसके आकर्षण को स्पष्ट देखा जा सकता है। इतना ही नहीं एक आवेशित कन्डक्टर के चारों और वैद्युतिक क्षेत्र की तरह यह उभरे हुए स्थानों, यथा - नाक उंगलियों के पैरों से बाहर की ओर तथा जननांगों के चारों और अधिक उभरा दिखाई पड़ता है। बैग्नाँल ने आँरा को दो स्पष्ट भागों में विभक्त किया है - बाहरी धुन्ध वाला भाग तथा भीतर का तेजपूर्ण चमकदार भाग। बैग्नाँल एवं अन्य अनेकों का कहना है कि इस अंदरूनी हिस्से में त्वचा से समकोण बनाती हुई अनेक नाड़ियां होती है। इन नाड़ियों से थोड़े थोड़े समय पर सर्चलाईट की भाँति तीक्ष्ण प्रकाशयुक्त किरणें निकलती रहती है जो शरीर से अनेकों फुट बाहर आकर फिर तिरोहित हो जाती है। इन्हें देखने के लिए बैग्नाँल ने एक विशेष प्रकार का चश्मा तैयार किया, जिसके लेन्स खोखले थे। इनमें विशेष प्रकार का रंग डायसाईनिन भरा था। इस रंग की विशेषता यह है कि इसके माध्यम से देखने से आँख की दृश्य सीमा बढ़ जाती है, वह अधिक संवेदनशील बन जाती है और वह सब कुछ देख सकती है, जो सामान्य स्थिति में उसकी क्षमता से परे हो।
इसके पश्चात् किर्लियन ने अपने विशेष यंत्र से आँरा का अध्ययन किया। उन्होंने इस यंत्र से जब एक ताजी पत्ती का पर्यवेक्षण किया तो उसके रोग-छिद्रों से तीक्ष्ण प्रकाश पुँज निकलते पाया, किन्तु देखा गया कि जैसे जैसे कोशिकाएं मरती गई ये पुज भी बुझते गए। एक ही प्रजाति की जातियों में आँरा-पैटर्न समान पाया गया, मगर रोगी पत्तियों में यह पृथक प्रकार का दिखाई पड़ा। जन्तुओं में यह उसके आन्तरिक मनोभावों की अभिव्यक्ति है और उसमें आये परिवर्तन के आधार पर बदलता रहता है। इस उपकरण से पहल बार जाना जा सका कि क्यों कोई हाथ पैर कट जाने के बाद भी उसकी उपस्थिति का अहसास करता रहता है। विर्लियन ने देखा कि स्थूल अंग के पृथक हो जाने के बावजूद भी उसका सूक्ष्म भाग स्थूल अंग के पृथक हो जाने के बावजूद भी उसका सूक्ष्म भाग स्थूल शरीर से जुड़ा रहता है। जब एक आधी कटी पत्ती का चित्र इस यंत्र से लिया गया, तो उसमें सम्पूर्ण पत्ती की तस्वीर मौजूद थी। इसे “फैण्टम इफेक्ट” नाम दिया गया।
इन सारे प्रयोग-परीक्षणों से एक बात स्पष्ट हो गई कि सभी जीवधारियों में किसी न किसी प्रकार का ऊर्जा मैट्रिक्स होता अवश्य है, भले ही उसका रूप आकार भिन्न भिन्न हो। यह बात भी सुनिश्चित है कि वह स्थूल शरीर से पूर्णतः यह है क्या? इसके कार्य क्या है और भौतिक शरीर में इसकी आवश्यकता क्यों पड़ती है? इस आशय पर गहन अध्ययन रूस में चल रहा है। किरोव स्टेट यूनिवर्सिटी, अलमा-अता के जैववैज्ञानिक इस ऊर्जा का अध्ययन इलेक्ट्रान माइक्रोस्कोप से कर रहे है। उनका कहना है कि यह और कुछ नहीं, आयनीकृत कणों का प्लाज्मा-समूह है। वे यह स्वीकारते है कि पदार्थों की प्लाज्मा अवस्था अति उच्च तापक्रम पर प्राप्त होती है और शरीर तापमान पर इस प्रकार की किसी प्रक्रिया का अब तक कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं हुआ है, किन्तु शरीर शास्त्री यह भी मानते है कि यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। ऐसा संभव हो सकता है, क्योंकि विज्ञान की यह शाखा बिल्कुल नई है। अभी तक हमने इसके बारे में जो कुछ जाना-समझा है, वह नगण्य सा है और काफी कुछ जानना अभी शेष है।
वैसे तो आँरा हर व्यक्ति में न्यूनाधिक मात्रा में पाया जाता है, पर महापुरुषों और पवित्र आत्माओं के शरीर व मस्तक के चारों ओर पाया जाने वाला आभामण्डल अपेक्षाकृत अधिक विस्तृत व विशेष आभायुक्त होता है। ऐसी स्थिति में इसे “आँरिओल-ज्योतिचक्र” कहते है। सिर के चारों ओर छाये रहने वाले प्रकाश पुँज को “प्रभामण्डल” या हैलो” कहा गया है। जब मस्तिष्क का सहस्रार चक्र जाग्रत हो जाता है, तो सहस्र दल कमल से सहस्रों-सहस्र प्रकाश-रश्मियाँ प्रस्फुटित होती है और सिर के चारों ओर वृत्ताकार रूप में प्रभामण्डल का निर्माण करती है। इसका रंग सुनहरा चमकीला होता है। यह वर्ण स्थायी होता है और इसे पवित्र मनुष्यों द्वारा चर्म-चक्षुओं से भी देखा जा सकता है।
ग्रन्थों में प्रभामण्डल की उत्पत्ति केवल आध्यात्मिक और महान पुरुषों में ही होती बतायी गयी है। रामकृष्ण परमहंस और योगी अरविंद के बारे में कहा जाता है कि जब वे गहन ध्यान की स्थिति में होते थे तो उनके सिर के चारों और बादलों जैसा एक चमकीला धुन्ध दिखाई पड़ता था। यह घेरा तब तक बना रहता था, जब तक वे ध्यानावस्था में रहते थे। ध्यानभंग होते ही यह तिरोहित हो जाता था। देवी देवताओं और राजे-महाराजाओं के मुकुट के साथ लगाया
यह एक सुनिश्चित अकाट्य तथ्य है कि व्यक्ति अपनी अंत की शक्तियों को जगाकर अपना आभामण्डल, प्रभाव क्षेत्र बढ़ाते रह सकता है। सामान्य से सामान्य मानव से महामानव बनने की विद्या का क्षेत्र हर किसी के लिए खुल पड़ा है। विचारणा-भावनाओं के परिष्कार एवं अंतः वे उदात्तीकरण की प्रक्रिया से प्रसुप्त शक्तियों को जगा लेना सबके लिए संभव है।