Magazine - Year 1988 - Version 2
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Language: HINDI
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ईश्वर के साकार और निराकार रूप की-विवेचना
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परब्रह्म साकार है या निराकार? इस प्रश्न को लेकर प्रायः विवादात्मक चर्चाएं चलती रहती है। चिन्तन का सूत्र सही न होने से गुत्थी सुलझने के स्थान पर और भी उलझ जाती है। यदि लक्षणों पर विचारपूर्वक गवेषणा की जाय तो वस्तुस्थिति समझने में तनिक भी कठिनाई न पड़े और दोनों ही पक्षों को अपने-अपने अनुकूल समाधान मिल जाये।
सर्वव्यापक वस्तुओं में आकाश की, वायु की, ईश्वर की नियति और व्यवस्था भी अदृश्य रह कर अपना काम करती है। उनका व्यापक होना स्वाभाविक है। व्यापक तत्व एकदेशीय नहीं हो सकते। यदि एक स्थान पर एक स्वरूप में वे बंध जायेंगे तो फिर अन्यत्र उनकी उपस्थिति कैसे देखी जा सकेगी? इसलिए परब्रह्म को सृष्टा, नियन्ता, पोषक मानते हुए उसे घट-घटवासी, सर्वत्र समाहित ही माना जा सकता है। ऐसा हुए बिना वह एक क्षेत्र की सम्पदा बन कर रह जायेगा और वहीं रह कर जितना कुछ करते बन पड़ेगा, उतना ही कर सकेगा। सर्वव्यापी होकर जो विशाल भूमिका निभाई जाती है, उसके लिए समर्थ हो सकना संभव न होगा। यह निराकार पक्ष है। जो सूक्ष्म है वह निराकार हो सकता है। शरीर में मन बुद्धि, चित्त और अहंकार का अन्तःकरण चतुष्टय विसंगति है, पर उसे किसी रूप या चिह्न में विद्यमान नहीं देखा जा सकता। उनकी सूक्ष्म शक्ति उन्हें निराकार होने के लिए ही बाधित करती ह। उनकी दर्शन नहीं हो सकता।
तो क्या ब्रह्म का साक्षात्कार नहीं हो सकता? इसके उत्तर में यही कहा जा सकता है कि उसके साथ प्रकृति के स्थूल के कुछ तत्व मिल रहने चाहिए। तभी यह संभव प्रकृति स्थूल है। उसके तत्व अणु, परमाणुओं से लेकर विशालकाय भूधरों, सागरों तक दृश्यमान होते हैं। यो उसके भीतर भी परमचेतना की सत्ता भी विद्यमान है। किन्तु दीखता केवल प्राकृतिक कलेवर ही है। शरीर को ही ले उसके कण-कण में चेतना का निवास है तो भी दीखते केवल अंग-अवयव ही है। उनका पंच भौतिक कलेवर ही दीख पड़ता है। इसी प्रकार समग्र सत्ता का दर्शन कहीं भी, कभी भी नहीं हो सकता। उनके साथ मिश्रण आवश्यक होगा। इनके बिना नाम, रूप? शब्द स्वरूप का समुच्चय बन ही नहीं सकता।
कई व्यक्ति इष्टदेव दर्शन के लिए आग्रह प्रकट करते है। वह आग्रह दिवास्वप्न के रूप में ही प्रकट हो सकता है। यान की परिपक्वावस्था में कल्पना ही प्रतिमा बन जाती है। झाड़ी की भूत बनना इसी को कहते हैं। शंका से डाकिन और मनसा से भूत उत्पन्न होने की कहावत प्रसिद्ध है। स्वप्न देखते समय उसमें चल रही हलचलें भी यथावत् प्रतीत होती है। जिनके साथ लगाव अधिक होता है वह प्रेमी, प्रेमिका प्रायः स्वप्न में याद आते रहते है और कई बार दिवास्वप्न बनकर प्रत्यक्षवत् भी दिख पड़ते हैं।
पानी प्रवाही है। हवा अदृश्य गतिशील। पर दोनों के सम्मिश्रण से बुलबुले बन जाते है। वह चलते, फिरते और आकृतिवान भी होते है। किन्तु वह सादा दृश्य क्षणिक होता है। बुलबुले अधिक देर स्थित नहीं रहते। कुछ ही देर में इधर-उधर भटक कर अदृश्य हो जाते है। ठीक यही बात इष्ट-देव दर्शन की होती है। भावुक और आग्रही अपनी साधना की सफलता इसी रूप में आँकते हैं कि इन्हें छवि की झाँकी हो जाए। हो भी ऐसा ही जाता है। कभी कभी चलती-फिरती धुँधली-सी इष्ट कल्पना से मिलती-जुलती छवियाँ दीख भी पड़ती है। भक्त जन इतने से भी अपनी बिगड़ती बात बना लेते हैं। स्वल्प सन्तोष भी डूबते के लिए तिनके का सहारा बन जाता है।
यदि सचमुच इष्ट देव का दर्शन हुआ होता, देवता इतने दूरवर्ती लोक-लोकान्तरों से लचलकर भक्त की पुकार पर दौड़ा आया होता तो उसे कुछ उपहार भी दिया होता। मनोकामनाओं को पूरा किया होता, गई-गुजरी स्थित से ऊँचा उठा कर किसी उच्च स्थान तक पहुँचाया होता। लेकिन ऐसा कुछ होता नहीं। न लौकिक स्थिति सुधरती है न आत्मिक परलौकिक स्थिति में कोई अन्तर आता प्रतीत होता है। फिर कैसे कहा जाए कि देवता पधारे थे? यदि वे सचमुच पधारे होते तो न ही खाली हाथ आते और न रीति जेब जाते। उनके साथ कुछ न कुछ आदान प्रदान हुआ होता, पर इस बात का कोई चिन्ह नहीं है तो उस प्रतिमा प्रदर्शन का क्या मूल्याँकन किया जाए, उसे किस प्रकार कोई उच्चस्तरीय उपलब्धि माना जाए?
छवि दर्शन का आग्रह समय-समय पर और भी कई भक्तजनों को होता रहा है। अर्जुन ने कृष्ण से इसी के लिए अनुरोध किया था। यशोदा यही वांछा संजोये बैठी थी। कौशल्या को अपनी गोदी में भगवान खिलाने का मन था पर वहाँ तो हाड़-माँस का छोटा बालक भर दीख पड़ता था। काकभुशुण्डि ने इन सबसे बढ़ कर साहस कर दिखाया, वे मरने-मारने पर तैयार हो गये। बालक राम यदि वस्तुतः परब्रह्म है तो शंका निवारण के लिए परीक्षा के निमित्त कटिबद्ध हुआ जाए। वे चावल खाते राम के मुँह में घूस गये। किन्तु देखा क्या जो उपरोक्त अन्य सन्तों ने देखा था। उन्हें दिखाया गया था कि भगवान को देखना है तो वह चर्मचक्षुओं के सहारे संभव नहीं, उसके लिए दिव्य नेत्र खोलने होंगे। इस समस्त विश्व ब्रह्माण्ड को ही ईश्वर का विराट रूप समझना होगा। सभी को इतने पर ही सन्तोष करना पड़ा। जिसके किन्हीं जनक-जननी के उदर से उत्पन्न हुए शरीर से भगवान का आरोपण किया, उन्हें इतने भर से ही संतोष करना पड़ा। ऐसा तो कोई भी कर सकता है। प्रति को पत्नि को संरक्षक को अभिभावक को गुरु को भगवान माना जा सकता है। वे तद्नुरूप फलित भी होते हैं। यह श्रद्धा की शक्ति का चमत्कार है उसने मिट्टी की प्रतिमा को द्रोणाचार्य, पाषाण को परमहंस की काली और छोटे खिलौने को मीरा का गिरधर गोपाल बना दिया था। पर उनकी सामर्थ्य, श्रद्धावान तक है सीमित रही। मिट्टी के द्रोणाचार्य ने एकलव्य के अतिरिक्त किसी को भी मनुष्य विद्या नहीं सिखाई। मीरा के अतिरिक्त गिरधर गोपाल ने कहीं भी एक पत्थर तक नहीं उठाया रामकृष्ण की प्रचण्ड चेतना शक्ति काली उन्हीं के लिए जगद्धातृ थी। पर जब चोर प्रतिमा के मुँह में हाथ डाल कर जीभ उखाड़ ले गये तो उनसे आत्म रक्षा तक न बन पड़ी।
प्रतिमा पूजन सार्थक है या निरर्थक? इस प्रश्न के उत्तर में यही कहा जा सकता है कि जड़ के भीतर भी चेतन की विद्यमानता का दर्शन इस आधार पर विकसित किया जा सकता है। श्रद्धा के बल पर गोबर को गणेश बनाया जा सकता है। गोल पत्थर को शिव शालिग्राम। वे दर्पण की प्रतिच्छवि एवं गुम्बज की प्रतिध्वनि की तरह अपनी ही चेतना को इच्छानुरूप परिलक्षित कर सकती है। देवता या ईश्वर के रूप से भी पर यहाँ यह ध्यान रखने योग्य है कि जिसने उस पर श्रद्धा का आरोपण नहीं किया है, उसके लिए वह निर्जीव पदार्थ, एक बुत मात्र है। आकृति और श्रृंगार ही उसका आकर्षण हो सकता है। निजी आरोपण के अभाव में वह श्रद्धा, सम्वर्धन में सहायक नहीं हो सकती और न जाँच-पड़ताल की किसी कसौटी पर खरी ही उतर सकती है।