Magazine - Year 1988 - Version 2
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Language: HINDI
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सादगी और संतोष की जिन्दगी!
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वस्तुओं की प्रचुर मात्रा भी मनुष्य को सन्तोष नहीं दे सकती, पर इससे ठीक उल्टी विधि अपनाने से काम बन जाता है। मन को सन्तोष का अभ्यस्त कर लिया जाय तो इच्छा की पूर्ति सहज ही हो जाती है। मनुष्य की आवश्यकताएं स्वल्प हैं। उपभोग भी एक सीमा तक ही हो सकता है। उतना उपार्जन करना और साधन जुटाना सरल है। अतएव इच्छाएं सीमित रखने, उपभोग को औचित्य की मर्यादा में रखने तथा कठिन परिश्रम से उपार्जन में जुटे रहने पर कोई कारण नहीं कि इच्छाओं की पूर्ति न हो सके। अभावग्रस्तता और दरिद्रता का रोना आलसी, अपव्ययी रोते है या फिर जिनकी आकाँक्षाएं असीमित है।
संग्रह और उपभोग पर सीमा बाँन लगना चाहिए। इसके लिए औचित्य की मर्यादा और देख वासी के स्तर की होनी चाहिए। एक परिवार के सदस्य आमतौर से एक ही स्तर का रहन सहन तथा निर्वाह अपनाते है। भले ही उनमें से कोई अधिक खाये, पहने भी, यह भी नहीं हो सकता, इससे असमानता बढ़ेगी, मनोमालिन्य पनपेगा और ऐसी परम्परा चल पड़ेगी, जिसके रहते स्नेह सौजन्य का टिक सकना कठिन है, इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए यदि सादगी का जीवन जिया जाए तो कम आजीविका वाले व्यक्ति भी प्रसन्नता भरे गुजार सकते हैं और सन्तोष के साथ रह सकते है।
अपव्यय अपने आप में एक बड़ा दुर्गुण है। कोई व्यक्ति अधिक कमाता है तो इसका अर्थ यह नहीं है कि उस कमाई को फिजूल खर्च में फूँक दिया जाए। इस पैसे से ज्ञान-वृद्धि जैसे स्वार्थ और दूसरों की सहायता करने जैसे परमार्थ साधे जा सकते है। उससे आत्म कल्याण और लोक कल्याण के लिए बहुत कुछ किया जा सकता है। ठाट-बाट का अहंकारी प्रदर्शन तथा विलासी शौक-मौज के अपव्यय में हाथ खुला छोड़ने पर आदत बिगड़ती है और अधिक खर्च करने की इच्छा होने लगती है। वह बढ़ते बढ़ते नशेबाजों जैसी कुटेब बन जाती है। ऐसे कुटैवग्रस्तों का काम उचित उपार्जन से नहीं चलता, वह कम पड़ता है। इसलिए बढ़ी हुई जरूरतों को पूरा करने के लिए अनुचित मार्ग अपनाने पड़ते हैं। अधिकाँश अपराधियों के मूल रूप में यही देखा जाता है।
यह सोचना सही नहीं है कि जितने ठाट बाट से रहेगा वह उतना ही बड़ा समझा जायेगा। यह बचकाना-चिन्तन समझदारों का नहीं होता। बड़प्पन सज्जनता है और उसकी पहचान सादगी से होती है। सादगी का अर्थ है-नम्रता, निरहंकारिता। अपने को जन-साधारण स्तर का समझने वाला खर्चीला रहन-सहन नहीं अपना सकता, क्योंकि उसमें क्षुद्रता और अहमन्यता की स्पष्ट गंध आती है। जो समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्वों का अनुभव नहीं करते, वे ही संग्रही, विलासी और अहंकारी की भूमिका निभा सकते हैं। ऐसे लोगों से स्वार्थ साधने वाले ही चाटुकारी भरी मुँह सामने प्रशंसा कर सकते हैं। पीछे पीछे भी उनके मुँह से यथार्थता निकलती है। स्वार्थी, संकीर्ण और निष्ठुर प्रकृति के व्यक्ति ही प्रायः महत्वाकाँक्षी होते हैं। उदारचेता अधिक कमाने पर भी सीमित साधनों से सादगी का निर्वाह करते हैं और उन महत्वकाँक्षाओं से दूर रहते है। ऐसा न करने पर समय और श्रम का अधिकाँश भाग खप जाता है। इस संदर्भ में कटौती करने पर व्यक्तिपरक कार्यों में संलग्न हो सकता है, जो सद्गुणों की अभिवृद्धि कर सके और सर्वत्र सुख-शान्ति का वातावरण बना सके।
लोग अच्छी बातों की नकल कम और बुरी बातों की अधिक करते हैं। एक अपव्ययी अनेकों को उस का आदि बना देता है। फलतः दोष रोष और असन्तोष तीनों ही बढ़ते और वातावरण को विषाक्त करते हैं। वस्तु इच्छाओं को सन्तोष तथा सादगी की जिन्दगी जीना ही श्रेयस्कर है।