Magazine - Year 1989 - Version 2
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Language: HINDI
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प्रतिभा का सुनियोजन कैसे व कब?
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किसी की पूर्व संचित सुसंस्कारिता- तपश्चर्या किस स्तर की है? किसकी उज्ज्वल भविष्य के साथ जूड़ी हुई भवितव्यता किस रूप में प्रकट होगी, इसका अनुमान लगाने की एक ही कसौटी है, उसके भीतर उमगने वाली महत्वाकाँक्षा, अदम्य अभिलाषा। उसका स्तर यदि एक उच्चस्तरीय है तो निश्चय ही अनेक प्रलोभनों को चीरता हुआ लक्ष्य एक ही निशाने पर टिकेगा, वह है प्रतिभा परिवर्धन। लोक सम्मान, आत्म संतोष और देवी अनुग्रह की त्रिवेणी इसी आधार पर घर बैठे दौड़ती चली आती है। प्रतिभा के बीजाँकुर जिस खाद पानी को पाकर पल्लवित पुष्पित और फलित होते है उनका नाम है “पुष्य और परमार्थ” पुष्य अर्थात् अपने में ब्राह्मणोचित प्रवृत्तियों का बाहुल्य। परमार्थ अर्थात् ऐसी उदात्त भाव संवेदना, जो देवताओं की तरह देवत्व के अभिवर्धन में आकुलता और आतुरता-पूर्वक जुट पड़े। किसी भी व्यवधान के रोके न रुके।
कहा गया है कि तप और योग साधना से सिद्धि प्राप्त होती ह तप के यों हठयोग जैसे कुछ अतिवादी प्रयोग भी है पर जिसे सरल और सर्व सुलभ कहा जा सके, वह है सर्वतोमुखी संयम जिसके चार चरण होते हैं-इन्द्रिय संयम, अर्थ संयम, समय संयम और विचार संयम। इनका समन्वय बन पड़ता है ऐसी तत्परता में, जिसके साथ सादा जीवन उच्च विचार का तत्वज्ञान सघनतापूर्वक जुड़ा हो। इसे ब्राह्मणोचित जीवन अर्थात् औसत नागरिक स्तर को पर्याप्त मानने की अवधारण भी कह सकते है।
तप के उपरान्त ही योग साधना का कदम उठता है। संयमी ही आदर्शों के समुच्चय पर ब्रह्म के साथ तादात्म्य मिलाने में सफल होता है। संयम के रूप में तप साधना का अनवरत क्रम चह और बन पड़ता है, जिसे अनेकानेक लिप्सा लालसाएँ नोंचती कचोंटती रहतीं है। जिन्हें .... तृष्णा और अहंता की पूर्ति के लिए व्याकुलता सदा सताती रहती है वे विलासिता और अमीरी के अतिरिक्त और क्या कुछ सोच पायेंगे? इनकी खनक ऐसी मदोन्मत्त होती है कि भगवत् चेतना के साथ जुड़ सकने की कोई संभावना ही नहीं रहती। भले ही इस प्रगति को खेल खिलवाड़ समझने वाले कुछ पूजा पत्री जैसे कर्मकाण्डों की लकीर पीटकर मन समझा लिया करें। संयम जन्य पवित्रता अपनाये बिना किसी भी भगवत् दर्शन कर सकने जैसा दृष्टि कोण प्राप्त नहीं होता। स्वर्ग तो परलोक में अपनी पवित्रता के रूप में साथ लेकर जाना पड़ता है। साँसारिक प्रलोभन ही तो भव बन्धन है। जो भौतिक महत्वाकाँक्षा के साथ बुरी तरह कसा बँधा है, उसके लिए मुक्ति की कल्पना करना उपहासास्पद है। कर्म काण्डों की कागज वाली नाव किसी को भी वैतरणी के उस पार तक पहुँचाने में समर्थ नहीं हो सकती। उसके लिए मजबूत आधार ढूढंना होता है, जो निजी जीवन में तप, संयम और बहिरंग जीवन में सद्भावना संवर्धन वाले परमार्थ के अतिरिक्त और कुछ हो ही नहीं सकता। तप और योग वस्तुतः कोई कौतुक कौतूहल नहीं है और न बाजीगरों जैसी हाथ फेरी से कोई उच्चस्तरीय प्रयोजन सधता है। इसके लिए तो जीवन में उत्कृष्टता के समावेश की भावभरी और अनुशासन में जकड़ी हुई जीवनचर्या अपनानी पड़ती है। इससे कम में ऐसी कोई पगडंडी है नहीं, तो राजमार्ग पर चलने के स्थान पर यक्ष गंधर्वों जैसी उड़ान भरकर कहीं से कहीं जा पहुँचने का .... जुटा सके।
तप और योग के पुण्य और परमार्थ के साथ अविछिन्न रूप से जूड़ी हुई साधना नकद धर्म की तरह है। उसका प्रतिफल हाथों हाथ मिलता है। न देवेच्छा उपलब्ध करने के लिए गिड़गिड़ाने की आवश्यकता पड़ती है और न जन्म जन्मान्तरों तक प्रतिफल प्राप्त होने की आशा लगाये बैठे रहने की विवशता से फला पड़ता है। यथार्थता तुरन्त फलित होती है। विशेषतया आत्मिक प्रगति के क्षेत्र में। संयमी वह है जिसने प्रलोभनों को परास्त करके शरीर सज्जा में इतनी कटौती कर ली, जितने में कि जीवन यात्रा भर निभती रहे। न संग्रह करना पड़े, न अहंकार का दर्प दिखाने के लिए प्रदर्शनों के जंजाल में फँसना पड़े। तपस्वी अपना परिवार .... के समुच्चय रूप में बढ़ाते है। कुटुम्बियों के प्रति तो उनके मन में कर्त्तव्य निर्वाह भर की बात रहती है। विवाहित होने पर भी ऐसे लोग संतान संवर्धन के ऐसे भार से नहीं लदते जिसे वहन करते-करते व्यस्तता और अभावग्रस्तता ही निरन्तर सिर पर छाई रहें। कुटुम्बियों को सुसंस्कारी और स्वावलम्बी बनाना तो न्यायोचित है पर उन्हें लालची, विलासी और व्यसनी बनाने के लिए अनावश्यक सम्पदा सजाने का विवेक की दृष्टि से कोई औचित्य बनता ही नहीं। लोभ और मोह पर अंकुश लगाने वाला कोई भी व्यक्ति तपस्वी संयम या पुण्यात्मा होने का श्रेय प्राप्त कर सकता है।
इस पूर्वार्ध को पार कर लेने के उपरान्त उत्तरार्ध में कोई कठिनाई शेष नहीं रहती है। परमार्थ के लिए ढेरों समय, श्रम, साधना, मनोयोग एवं कौशल बच रहता है। उसके बदले भगवत् कृपा का अजस्र अनुदान सहज स्वाभाविक रूप से किसी भी विवेकवान को प्रचुर परिणाम में हस्तगत होता चलता है।
परब्रह्म के छवि निरूपण में शास्त्रकारों और तत्वदर्शियों ने उसे प्रकाश पुँज माना है। इसी प्रयोजन के लिए प्रायः सविता के ध्यान एवं त्राटक प्रयोग की प्रक्रिया अपनाई जाती है। पर यहाँ और भी गहराई में उतरने की आवश्यकता है और प्रकाश पुँज की संगति देवात्मा स्तर की प्रतिमा के साथ बिठानी चाहिए। देवात्माओं के मुख-मण्डल पर चित्रित किया जाने वाला आभा-मण्डल वस्तुतः उनका तेजोवलय ही है, जिसे मनुष्य प्राणियों में प्रतिभा के रूप में जाना, आँका जाता है। ओजस्वी, तेजस्वी, मनस्वी यों दीपकों की तरह जगमगाते नहीं, फिर भी उनका व्यक्तित्व अलग से निखरे हुए स्तर का प्रतीत होता है। उनकी प्रभाव शक्ति अनेकों को ऊँचा उठाने वाला मार्गदर्शन करती है। ऐसे व्यक्तित्व अज्ञान एवं अनाचार की तमिस्रा में भयावहता को बहुत हद तक कम करते है। उनका संपर्क क्षेत्र उस आलोक का अनुभव करता है, जिसे मानवी गरिमा के अनुरूप ऊर्जा या आभा कहा जा सकता है। यह नकद धर्म है जो प्रतिभावानों द्वारा अर्जित होते देखा जा सकता है।
सघन अन्धकार वाली निविड़ निशा में दिग्भ्रान्त एवं भटकावग्रस्त पथिकों के लिए आकाश में जगमगाते तारागण अवलम्बन बनते है और लक्ष्य तक पहुँचने में दूरवर्ती होते हुए भी निकटवर्तियों की तरह सहायता करते है। प्रतिभाओं के संबंध में यह उदाहरण पूरी तरह लागू होता है। उनके अस्तित्व और क्रिया-कलाप ऐसा वातावरण बनाते है, जिसमें भटकाव की गुंजाइश कम होती चली जाय। फिर उच्च उद्देश्यों की सहायता हेतु चन्द्रमा की चाँदनी उगती है। देर सबेर में अरुणोदय वाली ऊषा भी पुण्य प्रभात लेकर आ उपस्थित होती है।
प्रतिभाओं की सशक्तता सर्वविदित है। उनने इस ऊबड़-खाबड़ धरती को सुषमा, सम्पदा और सुन्दरता से सुनियोजित बनाया है। विज्ञान, अर्थतंत्र, शासन, दर्शन, धर्म, अनुशासन उसी की देन है। यहाँ तक कि ईश्वर के प्रज्वलित स्वरूपों को भी उन्हीं ने गढ़ा है। संसार में जहाँ भी, जो भी चमत्कार दीख पड़ते है उनके पीछे प्रतिभाओं का ही कौशल एवं वर्चस्व काम करते देख जा सकता है। उपलब्ध उदाहरणों में अनेकानेक एकसे गिने और गिनाये जा सकते हैं जो विपन्न परिस्थितियों में उत्पन्न हुए, साधन रहित, अभावों के बीच भी उनने इतनी बड़ी उन्नतियाँ कर दिखाई, जिन्हें देखते हुए आश्चर्य चकित रह जाना पड़ता है। संसार के महामानवों में से कितने ही इसी स्तर के है। कईयों ने छोटे सिपाही से बढ़ कर सेनाध्यक्ष और शासनाध्यक्ष बनने का अवसर पाया। कईयों ने अपने निर्माण कार्यों में अपने कौशल का असाधारण परिचय दिया। चीन की दीवार, मिश्र के पिरामिड, भारत का ताजमहल, अमेरिका की “स्टेच्यू ऑफ लिबर्टी,” पीसा की मीनार, अंगकोरवाट के खण्डहर, ईस्टर द्वीप की दैत्याकार मूर्तियाँ आदि देखने के लिए संसार के कोने कोने से लोग पहुँचते रहते है और सोचते है कि यह सब कैसे बन पड़ा होगा? स्वेज और पनामा की नहरों का निर्माण समुद्रों के साथ खिलवाड़ करने जैसा है। नीदरलैण्ड वालों ने तो समुद्र के आधिपत्य वाला एक विशाल भू-भाग अपने कब्जे में ले लिया और बनाये हुए बाँध से लहरों को टकराने और वापस लौटते रहने के लिए बाधित कर दिया। सामन्त-काल के मध्य में जो घटित होता रहा और कुप्रचलनों के रूप में लोक मान्यता का अंग बनता रहा, उस अनय विजय की अपनी दर्द भरी कथा गाथा है। पर यह सब किया गया उन्हीं के द्वारा, जो देखने में तो सामान्य जनों जैसे ही लगते थे पर उनमें प्रतिभा का भण्डार भरा अवश्य पड़ा था। भले ही उसका दुरुपयोग हुआ हो, भले ही उसे स्वार्थपूर्ति के लिए, अहमन्यता का दर्प दिखाने के लिए प्रयुक्त किया गया हो, पर इतना तो मानना ही पड़ेगा कि उनकी साहसिकता और कर्म निष्ठा असाधारण थी। अदम्य उत्साह ने मार्ग के अवरोधों और प्रतिद्वंद्वियों से टक्कर ली और दृढ़ निश्चयों के सहारे दुर्गम प्रतीत होने वाले पर्वतों पर चढ़ते हुए ऊँचाई के चरम शिखर पर जा पहुँचे। यह बीजाँकुर हर किसी के भीतर जन्मजात रूप से विद्यमान है। अन्तर इतना ही है कि कुछ उन्हें विस्मृत उपेक्षित किये रहते है और गई गुजरी, अनगढ़ एवं लगभग परावलम्बी स्थिति में गुजारा करते है। कुछ है जिन्हें बड़प्पन दिखाने के लिए उद्दण्डता अपनाने का मार्ग सरल पड़ता है।
सज्जनता की आम प्रकृति झंझटों से बचे रहने और विग्रहों को अनदेखा करते रहने की होती है। उसमें उन्हें सुविधा दीखती है। इसलिए उसे दया, क्षमा, अहिंसा आदि का आवरण उठाकर सम्मानित सद्भावना की देवी बनाकर प्रतिष्ठित कर देते है। प्रतिरोध के अभाव में उद्दण्डता का क्षेत्र विस्तार होना स्वाभाविक है। प्रतिरोध के अभाव से अनाचार को जो सस्ती सफलता मिलती है उसके कारण उसका दुस्साहस दिन दूना रात चौगुना बढ़ता रहता है। अनीति के अभिवर्धन का एक बड़ा कारण वही है-उसका संगठित प्रतिरोध न होना। जबकि आतंकवादी संगठित होकर परस्पर एक दूसरे को समर्थन सहयोग देते हुए एक दूसरे की हिम्मत बढ़ाते रहते है। संसार में अनाचार की जीत बोलने के असंख्यों घटनाक्रम है। अभी भी वे छोटे बड़े छद्म प्रकट रूप में अपनी बलिष्ठता का श्रेय प्रतिरोध की दुर्बलता को ही जाता है। उद्दण्डता तो आतिशबाजी की तरह कुछ समय ही कौतुक दिखाती है और धूमधड़ाका दिखाकर अपनी मौत मर जाती है। ध्वंस के कौतुक इसी प्रकार के होते है। स्थायित्व और सृजन का वर्चस्व तो उस प्रतिभा में ही पाया जाता है जो आदर्श के साथ सुसम्बद्ध एवं समर्पित बनकर रहती है।
बड़े अनर्थ दिशाभूल से ही होते है। जंक्शन पर खड़ी रेलगाड़ी गलत लीवर दब जाने के कारण निर्धारण दिशा की अपेक्षा दूसरी ओर चल पड़ती है और अनचाहे स्टेशनों को पार करती हुई कहीं से कहीं जा पहुँचती है। सामान्य जन तो छोटे दायरे में ही बनाव बिगाड़ करते रहते है। उनकी प्रतिक्रिया भी छोटी ही होती है। पर जब मदोन्मत्त हाथियों का झुण्ड आक्रोश में भरकर बिगाड़ पर उतारू होता है तो फसल को रौंदता, पेड़ों को उखाड़ता, झोपड़ों को उछालता और प्राणियों को कूटता कुचलता कुहराम मचा देता है। आज का बहुमुखी विनाश और कुछ नहीं मात्र प्रतिभाओं के हाथ में पहुँची हुई शक्ति का दुरुपयोग मात्र है। उसी ने तत्व दर्शन पर प्रत्यक्षवाद की आड लेकर करारा आक्रमण किया है और नियामक शक्ति की कर्मफल व्यवस्था पर से विश्वास उठा दिया है। उद्दण्डता आवेशग्रस्त हो तो वह जो कुछ भी न कर गुजरे कम है। लोक मानस पर छाई हुई अनाचार उसी का प्रतिफल है। निरंकुश अनाचारों का प्रचलन उसी के कारण संभव होता है। धर्म के साथ कर्तव्य पालन आत्म संयम, उदार व्यवहार जैसी मानवोचित मर्यादाओं का परिपालन भी सम्मिलित है। यदि उसकी जड़ कटेगी तो शालीनता का प्रचलन बन कैसे पड़ेगा? मर्यादाओं और .... का नियंत्रण स्वीकार कौन करेगा? इन दिनों ऐसी ही उच्छृंखल स्वतंत्रता ने मानव स्वभाव में अपनी गहरी जड़ें जमाली है।
मनःस्थिति परिस्थितियों की जन्मदात्री है। विचार कार्य का रूप धारण करता है। आकाँक्षा अग्रगामी योजना बनाती और साहस भर पुरुषार्थ में जुट पड़ती है। इन दिनों यह प्रयोग ध्वंस के लिए हो रहा है। तात्कालिक लाभ को ही सर्वोपरि मानने की यह परिणति है इसे प्रतिभाओं का भटकाव कहा जा सकता है। यदि प्रतिभाओं को सही दिशा दी जा सके, उनकी शक्ति को सुनियोजित किया जा सके तो पुनः सतयुगी परिस्थितियाँ अवतरित कर पाना संभव है। यह सुनियोजन यदि सुनिश्चित हो सके तो उज्ज्वल संभावनाएँ अगले दिनों ही देखी जा सकेंगी।