Magazine - Year 1989 - Version 2
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Language: HINDI
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प्रतिभाएँ यह तथ्य समझें-समझायें
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मौलिक या आरंभिक रूप में हर वस्तु कच्ची या अनगढ़ ही होती हैं। इसे प्रयत्न पूर्वक सुन्दर-समुन्नत बनाना पड़ता है। खदान में से लोहा या सोना मिट्टी मिले हुए सामान्य स्थिति में मिलता हैं। उन्हें धधकती भट्ठी में गला कर शुद्ध स्थिति में पहुँचाया जाता है। इस गली हुई धातु में से जो उपकरण बनाने होते हैं, उनकी तदनुरूप साँचे में डाल कर ढलाई की जाती है, तभी औजारों या आभूषणों के रूप में उनकी उपयोगिता सिद्ध हो पाती है। इस प्रक्रिया में से गुजरे बिना उनका मूल्याँकन हो ही नहीं पाता। मिट्टी को गीली करके उससे जो बनाया जाय, वह कच्चा ही होता है। कुम्हार चाक पर घुमा कर उसको शक्ल तो दे सकता है, पर वह निर्माण कच्चा ही रहता है। ठोकर लगने पर टूट जाता है। पानी पड़ने पर गल जाता है। उसे यदि चिरस्थाई एवं सुदृढ़ बनाना हो, तो आवे की आग में पकाये बिना और कोई चारा नहीं। पकने वाले को इसमें असुविधा हो सकती है, पर उससे बच निकलने का और कोई विकल्प है नहीं। परिष्कृतता प्राप्त करने के लिए तपाने तपने के अतिरिक्त और किसी तरह समर्थता विनिर्मित होती नहीं।
तप का महात्म्य आचार्यजनों और आप्तजनों द्वारा विस्तारपूर्वक बताया गया है। तपस्वी ऋद्धि-सिद्धियाँ प्राप्त करते हैं, स्वर्ग और मुक्ति जैसी समुन्नत स्थिति में पहुँचते हैं। ऋषिकल्प मनस्वियों का सुसंस्कृत इतिहास इसी आधार पर विनिर्मित हुआ। वे उत्पन्न तो सामान्यजनों जैसी परिस्थितियों में ही हुए पर अपनी तप-साधना द्वारा धरती पर रह कर भी स्वर्ग लोक में निवास काने वाले देवमानवों जैसे बन गये, दिव्य सम्पदाओं, विभूतियों और शक्तियों के अधिष्ठाता बने। कह जाता है कि तप के बल पर ही ब्रह्मा, विष्णु महेश अपने सुविस्तृत दायित्व वहन करते रहने में समर्थ होते हैं। तपस्वी भगीरथ ने गंगा को धरती पर उतार कर दिखाने का श्रेय पाया था। दधीचि की अस्थियाँ इन्द्रवज्र जैसी शक्तिवान तभी सिद्ध हुई जब वे दीर्घकालीन तप-साधना कर चुके। तपस्विनी पार्वती ने शिव को वरण कर सकने जैसे कठिन कार्य में तभी सफलता पायी, जब वे कठोर तप की परीक्षा उत्तीर्ण कर चुकीं। ध्रुव, प्रहलाद की तपश्चर्या प्रसिद्ध है। सप्तऋषियों को वरिष्ठता इसी आधार पर मिली भी। अपने समय में भी महर्षि अरविंद, रमण, पौहारी बाबा आदि की साधनाओं द्वारा उत्पन्न हुए प्रतिफल का गंभीरता पूर्वक मूल्यांकन किया जाता है।
पानी को गरम करने से वह भाप बनता है और बादलों के रूप में बरसता है। वाष्पीकृत जल ही स्टीम इंजन चलाता है, प्रेशर कुकर के रूप में अपनी उपयोगिता दिखाता है। चिकित्सा के काम आने वाली बहुमूल्य रसायनें तभी बनती हैं, जब उनके अनेक अग्नि संस्कार होते हैं। तपाने, पकाने पर ही अनपढ़ खाद्य स्वादिष्ट व्यंजनों के रूप में परिणत होता है। सूर्य की ऊर्जा तप से उपजी हैं। प्राणियों और वनस्पतियों में प्राण संचार करने में समर्थ होती है घोर शीत के रहते तो जीवन का किसी रूप में उदय संभव नहीं हो पाता। सौर मण्डल के दूरवर्ती ग्रह-उपग्रह इसी कारण निर्जीव हैं कि उन तक सूर्यताप अभीष्ट मात्रा में पहुँच नहीं पाता।
मनुष्य जीवन पर तो यह बात शत प्रतिशत घटित होनी है कि तप-साधना अपना कर ही प्रगतिशीलता और वरिष्ठता का लाभ उपलब्ध होता है। शरीर का स्वाभाविक तापमान घटने पर .... आ दबोचती है। और मृत्यु आ धमकती हैं। ताप आवश्यक हैं। विषाणु उसी के प्रभाव से मरते हैं। धूप पाकर ही उद्यान में फूल खिलने और फलने लगते है।
उच्च उद्देश्यों के लिए किया गया पराक्रम या कष्ट सहज ही तप है। इसका प्रतिफल प्रत्येक महान प्रयोजन में नियोजित हुआ देखा जाता है। आलसी-प्रमादी किसी प्रकार मौत के दिन पूरे करते हैं, जबकि साहस के धनी पुरुषार्थ परायण अपनी प्रचण्ड लगन और पुरुषार्थ के आधार पर तेजी से आगे बढ़ते और तूफान की तरह ऊँचे उठते हैं।
प्रतिभा परिष्कार की उपयोगिता- आवश्यकता समझने वालों को इसके लिए सहमत किया जाना चाहिए कि वे किसी प्रकार ढर्रे का जीवन जीकर दिन गुजारते रहने की सरल प्रक्रिया अपनाये रहने तक संतुष्ट न रहेंगे, वरन् आदर्शों के परिपालन में तत्परता बरतने और कटिबद्ध होने के लिए अपनी संकल्प शक्ति का समग्र प्रयोग करेंगे।
संसार के इतिहास पर दृष्टिपात करने पर एक ही तथ्य उभर कर सामने आता है। कि जिनने आदर्शवाद की दिशा धारा अपनाने के लिए कठोरतापूर्वक आत्मानुशासन करता, जो अवांछनियताओं से डट कर जूझे, जिनने नवसृजन के लिए प्राणपण से प्रयत्न किये वे ही ऐसा श्रेय अर्जित कर सके जिसे अभिनन्दनीय या अनुकरणीय कहा जा सकें। महामानव बनने की बात इससे कम में बनती नहीं। जो इसके लिए कटिबद्ध प्रयत्नरत हैं, उसे और कुछ करने की आवश्यकता नहीं। तपश्चर्या का एक स्वरूप एकान्त साधना और कष्ट साध्य तितिक्षा का भी है, पर वह हर किसी के लिए अनिवार्य नहीं। सदुद्देश्यों के लिए प्रचंड पुरुषार्थ भी एक प्रकार का सर्वसुलभ तप है। उसे अपनाकर असंख्य लोक सेवी अपना और संसार का भला करने और हर दृष्टि से धन्य बनने में समर्थ हुए हैं। गान्धी विनोबा, विवेकानन्द, दयानन्द जैसों की तपश्चर्या सेवा संदर्भ से ही जुड़ी रही उनने अपने को इतना परिष्कृत किया कि उनका व्यक्तित्व दूसरों पर गहरी छाप छोड़ सके और अपनाये हुए कठिनाइयों से भरे मार्ग पर अनेकों को चला सकने में सफल हो सके। इसके अतिरिक्त उन्होंने लोक मंगल के लिए इतना सृजनात्मक प्रयास पुरुषार्थ किया कि उसका प्रभाव बहुमुखी अभ्युदय के रूप में सर्व साधारण के सामने प्रस्तुत हुआ।
आपत्ति काल में एकान्त साधना से भी बढ़कर सेवा साधना का महत्व बन जाता है। अग्निकाण्ड, भूकम्प, बाढ़ दुर्भिक्ष, महामारी आदि की विपत्तियों से जन समुदाय को बचाने के लिए जो भावना पूर्वक जुटते और उदार सेवा साधना का परिचय देते हैं, उन्हें आत्म संतोष भी मिलता है और लोक सम्मान भी। साथ ही दैवी अनुग्रह का प्रत्यक्ष रसास्वादन करने का अक्सर भी हाथों हाथ उपलब्ध होता है। तप साधना का भी अन्तिम लक्ष्य यही है। ऋषि ने देवदूत के प्रश्न का उत्तर देते हुए अपनी आन्तरिक आकाँक्षा इतने भर में व्यक्त कर दी कि उन्हें स्वर्ग नहीं चाहिए, न राज्य चाहिए न मुक्ति। मात्र इतनी इच्छा है कि दुख-दैन्य से घिरे हुए प्राणियों की व्यथा निवारण के कुछ काम आ सकूँ। वस्तुतः ऐसे ही देवात्मा बिना कन्दराओं के खोजे, जनसाधारण के बीच रहते हुए अपनी उदारता का परिचय देते हुए उसी पद को प्राप्त करते हैं जो तपस्वियों के लिए निश्चित है, निर्धारित है।
आत्म-परिष्कार और लोक-परिष्कार की संयुक्त साधना ऐसी है, जिस अपना कर काम काजी व्यक्ति भी सामान्य जनों जैसा गृहस्थ जीवन व्यतीत करते हुए भी अपने साथ अनेकानेकों की प्रतिभा परिष्कार कर सकने में सफल, समर्थ हो सकता है। यह युग संधि का आपत्ति काल है। इसमें अवांछनियताओं से जूझना आपत्ति धर्म है। साथ ही वातावरण को सुधार-परिष्कार की ऊर्जा से भर देना भी महत्वपूर्ण कार्य हैं। इन दिनों इस प्रक्रिया को प्रतिभा परिष्कार के लिए अपनाया जाना चाहिए।
भाव संवेदनाओं से भरा-पूरा भक्तियोग
मनुष्य में शारीरिक संरचना और बुद्धिकौशल भी बढ़ा चढ़ा है पर उसकी सर्वोपरि विशेषता जो अन्यान्य जीवों के पास नहीं है, मात्र उसकी ही विभूति है-भाव संवेदना। अपना सुख बाँट देने और दूसरों का दुख बटा लेने की प्रवृत्ति। सघन सहकारिता ओर उदार सेवा साधना मात्र उसी के हिस्से में आई है इसी कारण उसे ईश्वर का युवराज कहा जाता है। सृष्टि का मुकुटमणि भी।
बलिष्ठता और कुशलता की दृष्टि से अन्य जीव भी अपने-अपने स्तर की विशेषताएँ धारण किये हुए हैं। ह्वेल और हाथी जैसे विशालकाय, चीते जैसे धावक, गेंडे जैसे सुदृढ़, क्या और मकड़ी जैसे शिल्पी, कुत्ते जैसे घ्राण विकसित एवं अनेक स्तर की अतीन्द्रिय क्षमताओं से सम्पन्न अनेक प्राणी पाये जाते हैं। मनुष्य उनसे पीछे है। न व आकाश में पक्षियों की तरह उड़ सकता है और न पानी की गहराई में मछली की तरह निर्बाध रूप से रह सकता है। साँप जैसे बिना हाथ पैरों के सरपट दौड़ लगाना भी उसके वश में नहीं हैं। उतने पर भी उसने सहकारिता के आधार पर न केवल परिवार की, समाज की, शासन की व्यवस्था की है, वरन् विज्ञान, व्यवसाय, उत्पादन, कला कौशल के अनेक क्षेत्र भी विकसित किये हैं। यह सब तभी संभव हो सका, जब उसमें आत्मीयता की सद्भावना उभरी और उसी के सहारे सहकार, अनुदान का बहुविधि उत्कर्ष बन पड़ा। आदर्शों की स्थापना, उदात्त लोक मंगल के निमित्त बढ़ी चढ़ी योजना बनाने में भी उसकी भाव संवेदना ही सहायक हुई है।
वैयक्तिक जीवन में यदि किसी को आनन्द भरी उमंगों से अनुप्राणित देखा जाय तो समझना चाहिए कि उसके अन्तःकरण में भाव तरंगों की निर्झरिणी उमँगी है। इसी के कारण उल्लास का उद्भव होता है। और व्यक्ति उन कामों को करने के लिए उद्यत होता है जिन्हें मानवी गरिमा के अनुरूप कहा जाता है, जिनमें उत्कृष्ट आदर्शवादिता का असाधारण समावेश पाया जाता है।
दरबारी, चापलूस, चमचे, ठग, व्यभिचारी अक्सर मीठी बातें करते और व्यवहार में उदार, शिष्ट, मधुरता दिखाई देखे जाते है। अपराध क्षमा करने के लिए भी कई लोग मतलब निकालने वालों की ही तरह दीनता दर्शाते और हितैषी बनने का स्वाँग रचते देखे गये हैं। पर यह सब उनका छद्म, पाखंड भर होता हैं काम निकलते ही निगाह फेर लेते और तोता चश्मी का प्रत्यक्ष उदाहरण बनते देखे गये हैं। वास्तविक भाव संवेदना इससे अलग चीज है। इसके मूल में आत्मीयता का व्यापक विस्तार रहता है जो उदार आदर्शवादियों के साथ जुड़ा होता है। आत्मा सीमित होती है। वह जब व्यापक, विस्तृत क्षेत्र में अपनत्व को फैलाती है तो परमात्मा बन जाती है। परमात्मा के लिए सभी अपने हैं। वह व्यापक भी है और सर्व हितैषी भी। उसके अनुदान हर किसी पर बिना किसी बदले की आकाँक्षा के बरसते हैं। शरीर धारी व्यक्ति भी इसी परमात्म सत्ता को अपने अन्तराल में धारण करके उतना ही उदार और महान बन सकता है। पर यह संभव तभी है जब प्यार की उत्कृष्टता एवं असीमितता हो। प्यार में सेवा सहायता का सद्भाव इसलिए उमड़ता रहता है कि उसमें आत्मीयता का गहरा पुट लगता है अपनी हित कामना में अधिकाधिक ध्यान स्वार्थ सिद्धि पर रहता है। इस तथ्य को जब सुविस्तृत किया जाता है तो वह परमार्थ बन जाता हैं। चिंतन और प्रयत्न स्वार्थ सिद्धि के निमित्त होता है वह आत्म विस्तार की स्थिति में अन्यान्यों के लिए भी करना पड़ता है।
अपनत्व ही प्यार है। इसमें लोकाचार का निर्वाह या शिष्टाचार का प्रदर्शन आवश्यक नहीं। मनुहार करने या उपहार देने की भी आवश्यकता नहीं पड़ती। प्रदर्शन करने या आकर्षित करने के लिए जाल भी नहीं बिछाना पड़ता यह सब तो परायों को चुंगल में फँसाने के लिए करना पड़ता है। भय, आतंक, उत्पीड़न के आधार पर जिस प्रकार दुर्दान्तों को वशवर्ती किया जाता है उसी का दूसरा तरीका प्रेम प्रदर्शन भी है। उसमें भोले भावुक सहज फँस जाते हैं। चिड़ीमार, मछलीमार, सपेरे, इसी आधार पर शिकार पकड़ते हैं। भगवान को वशवर्ती बनाने और उनसे तरह-तरह की मनोकामनाएँ पूरी कराने के लिए पूजा परक कर्म–काण्डों का-स्तवन कीर्तन का आडम्बर रचा जाता है। पर यथार्थता के अभाव में वह पोल वाला ढोल दबाव की परीक्षा में कसौटी पर खरा नहीं उतर पाता। काठ की हाँडी बार-बार कहाँ चढ़ती है? कलई देर तक कहाँ टिकती है। मुखौटे देर तक लोगों को भ्रम में नहीं रख पाते। वस्तु स्थिति खुलकर रहती हैं।
अपनों के साथ अपनी वस्तुओं के साथ स्वाभाविक लगाव होना है। उन्हें सुरक्षित, समुन्नत, सुव्यवस्थित रखने के लिए सहज उत्कंठा रहती है। यहाँ सब तभी बन पड़ता है, जब आत्म भाव को विस्तृत करके उसकी लपेट में दूसरों को भी जकड़ लिया जाय। ऐसी दशा में सभी अपने लगते है, साथ ही प्यारे भी। उनका साज संभाल में मन रहता है। सुन्दर, सुविकसित, सुसज्जित, सुसंस्कृत बनाने के लिए भी जो करता है, वह भावना इतनी गहरी और प्रबल होती है कि बिना सेवा सहयोग किये काम चलता ही नहीं।
प्रिय पात्र के सान्निध्य में रस बरसता है। उसमें दोष नहीं गुण ही दीखते हैं। बिछुड़ने को जी नहीं करता। मन में उमंगें उठती है। कि सब कुछ उसी पर निछावर कर दें। भक्त और भगवान का विलय समर्पण इसी रूप में सुना समझा जाता है। किन्तु कठिनाई यह है कि परब्रह्म सर्वव्यापी होने से शक्याँ नियम रूप हैं। उसकी समीपता वैसी नहीं मिल सकती, जिस प्रकार कि मनुष्य अपने प्रियजनों के साथ गुँथते हैं। यह तो शरीरधारियों के साथ ही बन पड़ना संभव है। आत्मा परमात्मा का अंश होने के कारण प्रेयसी की तरह प्रेम से लबालब-सराबोर है। उसका अपना आपा जिस पर भी प्रतिबिंबित होता है, वही परम प्रिय लगने लगता है। पर जब यह आत्मीयता सीमित लोगों तक थोड़े पदार्थों तक परिसीमित होती है तो अन्य सभी वस्तुएँ उपेक्षित हो जाती हैं और नीरस लगने लगती हैं सदा सर्वदा आनंद उभरता रहें, इसका एक ही आधार है कि हर किसी को आत्म-स्वरूप माना जाय।
इसी मनःस्थिति को चरितार्थ करने के लिए लोकसेवा का व्रत लेना पड़ता है। वह लोक सेवा भी इच्छुकों की इच्छा पूर्ति के लिए नहीं वरन् उसे पवित्र, परिष्कृत प्रखर बनाने के लिए निश्चयपूर्वक नियोजित रहती है। यही है लोक मंगल की साधना। इसी को सत्प्रवृत्ति संवर्धन या जन मानस का परिष्कार कहते हैं। सेवा धर्म का यही केन्द्र बिन्दु हैं।
यथा अवसर विपत्ति ग्रस्तों की सहायता करना, संकटों से उबारना प्रगति में सहयोग करना भी उदारता का चिन्ह हैं और सराहनीय भी। पर न तो हर कोई इतना कर सकने में समर्थ होता है। और न विपत्तिग्रस्त ही हर समय, हर जगह हाथ पसारे खड़े होते हैं। इसलिए धन साध्य, दान शीलता यदा-कदा ही जब कभी बन पड़ती है किन्तु आत्म परिष्कार और सत्प्रवृत्ति संवर्धन की प्रक्रिया ऐसी है जिसे घर बाहर अपनों परायों से निरन्तर सम्बद्ध किया जा सकता है। जिनसे आत्मीयता का सुविस्तृत करने और उसे उत्कृष्टता के साथ जोड़ने का रहस्य समझ लिया समझाना चाहिए कि उसने भाव संवेदनाओं से भरा पूरा भक्तियोग सिद्ध कर लिया।