Magazine - Year 1989 - Version 2
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Language: HINDI
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स्वस्थ मनोरंजन मनुष्य की एक नैसर्गिक आवश्यकता!
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मन को विश्राम देने की कला का नाम मनोरंजन है। इसी को आह्लाद खुशी अथवा हल्कापन लाने वाली विद्या भी कहा जाता है। शरीर को आराम देने के साथ मन के आराम की भी जरूरत हैं। विश्राम काल में शरीर को ढीला छोड़ना पड़ता है, और मनोरंजन के समय मन ढीला हो जाता है। यद्यपि बिना मनोरंजन के भी मन की थकान मिटाना संभव है। पर वह उच्च स्तरीय योग साधनाओं में लगे लोगों के लिए ही सम्भव है। जन सामान्य के लिए थके मन को राहत दिलाने का काम मनोरंजन के द्वारा ही बन पड़ता है। इसी कारण थक जाने के बाद लोग सिनेमा-टी.वी. देखने, गीत संगीत सुनने, कहानी, चुटकुले पढ़ने में खाली समय लगाकर मन को बहलाते हैं।
इस थकान मिटाने की जरूरत सभी को है। चौबीस घण्टे काम में जुटे रहने की सामर्थ्य साधारणतया किसी को नहीं होती। परिस्थिति विशेष में जब कभी भले ही सामान्य से अधिक काम किया जा सके। किन्तु इस ढर्रे को रोज अपनाने की चेष्टा करने पर रोग, अतिशयता, दुर्बलता का बिना बुलाए आधमकता गैर वाजिब नहीं है। अतएव जरूरी है शक्ति के अनुसार काम करने के बाद थकान को मिटाया जाय।
विश्राम के समय शरीर तो अपनी खर्च की हुई ताकत को पुनः अर्जित कर लेता है। पर इसके साथ मन की सक्रियता भी जुड़ी रहती है। मानसिक शक्तियों का खर्च होना भी स्वाभाविक है। मन तो सोते समय भी निष्क्रिय नहीं रहता। दिन भर जिन क्रिया कलापों में व्यस्त रहा गया है। रात को सोते समय इसकी क्रियाशीलता उसी धारा में बनी रहती है। यदि ऐसा न हो तो भी मन न जाने कितनी इच्छाएँ, संकल्प, विकल्प सँजोने में जुटा रहता है। क्योंकि सोते समय शरीर को तो विश्रामावस्था में छोड़ देते हैं, पर मन को भुला दिया जाता है, वह बेचारा उस समय भी काम में जुटा रहता है। इसे आराम मिले यह फिर से अपनी क्षमता का अर्जन कर सके, इसके लिए मनोरंजन निहायत जरूरी हैं।
पर यह प्रक्रिया मन से जुड़ी रहने के कारण केवल उथले स्तर तक सीमित नहीं है। इसका प्रभाव बहुत गहरा है। व्यक्तित्व की अनेक परतें इससे अछूती नहीं रहतीं। यही कारण है कि मनोवैज्ञानिकों ने इसकी शुद्धता और स्वस्थता अनिवार्य बताई है। स्वस्थ मनोरंजन जहाँ व्यक्ति को नई ताजगी देता, जीवन में रस घोलता और मनोभूमि में नूतन शक्ति का संचार करता है वही इसका अशुद्ध और अपरिष्कृत रूप उसे नीरस, कुण्ठित और पथभ्रष्ट बनाता है। जिस तरह स्वस्थ शरीर वाले व्यक्ति अनुपयुक्त आहार का क्रम अपना कर अपने शरीर स्वास्थ्य को चौपट कर लेते हैं, उसी तरह स्वस्थ मानसिकता का विनष्टीकरण अस्वस्थ मनोरंजन द्वारा सम्पन्न होता है। इसका अवलंबन मनुष्य को कुमार्गगामी और दुर्व्यसनी बना देता है। जहाँ स्वस्थ भाव में इससे व्यक्ति को आगे बढ़ने की प्रतिकूलताओं से डटकर लोहा लेने की, कठिनाइयों से संघर्ष करने की प्रेरणा मिलती है।
यह भी सही है, कि दुनिया के महापुरुषों से सामान्य जनों तक जिनकी प्रवृत्तियाँ विचार और कार्यक्षेत्र अलग-अलग रहते हैं और कोई भी चीज एक दूसरे से नहीं मिलती, इसके प्रति समान रूप से सजग रहते हैं। सभी व्यक्तियों में हास्य विनोद और आमोद-प्रमोद की प्रवृत्ति समान रूप से विद्यमान रहती है।
इसकी आवश्यकता और महत्ता इतनी है कि इसे जीवन का अभिन्न अंग कहा जाना कोई अतिशयोक्ति न होगी। पर इसे दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि उसके स्तर की ओर हमारा कोई ध्यान नहीं रहता। गरीबी अशिक्षा संकीर्णता अथवा कुछ अन्य जो भी कारण हों, अधिकाँश लोग इसकी जरूरत तो महसूस करते हैं, पर इसके महत्व और प्रभाव को नहीं समझते। अथवा यह कहा जाय कि उसे हेय स्तर का बनाए रखने में ही मन के किसी कोने को प्रसन्नता मिलती हैं।
एटकिन्सन ने अपने उपरोक्त ग्रन्थ में इसके अच्छे और बुरे स्तर के बारे में स्पष्ट धारणा व्यक्त की है। उनके अनुसार जो पशु प्रवृत्तियाँ भड़काये, दोष-दुर्गुणों को उभारे वह हेय तथा जो मानवीय गुणों के प्रति आस्था जाग्रत करे वह उत्कृष्ट। इस माप दण्ड के आधार पर सभी उपलब्ध मनोरंजन साधनों का विश्लेषण किया जा सकता है।
आजकल उपयोग में लाए जा रहे साधनों में फिल्म व साहित्य की प्रमुखता है। किन्तु खेद है, इस कसौटी पर कसने में निराशा ही हाथ लगती है। फिल्में देखकर पशु प्रवृत्तियों के शिकार हुए लोगों की कितनी ही घटनाएँ नित्य प्रकाश में आती हैं। गीत संगीत के नाम पर अधिकतर फिल्मी गानों का ही उपयोग किया जाता है। प्रचलित साहित्य की भी यही हालत है। मानवीय गुणों के प्रति आस्था जाग्रत करने वाले उपन्यास, कहानियाँ, कविताएँ कम ही दिखाई पड़ती हैं और सस्ती रोमाँटिक पुस्तकों की बाढ़ दिखाई देती है।
लोग इनका उपयोग इस कारण करते हैं कि उन्हें मनोरंजन की आवश्यकता खुराक मिलती रहे। परन्तु प्रभाव की बारीक बातों का चयन करने की क्षमता जनसाधारण में नहीं होती। यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि व्यस्तता की अपेक्षा खली समय में मन बड़ी गहराई से प्रभावित होता है। हम जब निश्चित मुद्रा में अवकाश के समय कोई बात सुनते हैं तो देर तक वह स्मरण में बनी रहती है और बड़ी जल्दी में कहीं जा रहे हो तो कोई बात सुनकर भी वह जल्दी भूल जाती है। व्यस्त लोगों को अपने आस-पास क्या हो रहा है? इस बात का भी ध्यान नहीं रहता।
अमेरिकन मनोवैज्ञानिक जे.ए..फ्लेमिंग ने “द स्टडी आफ ह्यूमन साइक” में मनोरंजन की प्रक्रिया की तुलना सम्मोहन से की है। उनके अनुसार सामान्यता मनोरंजन हम उसी समय करते हैं जब हमारा मन खाली हो। उधेड़ बुन में फँसा मन प्रायः मनोरंजन नहीं पसंद करता। सम्मोहन भी खाली मन में डाले गए कुछ संकेत ही हैं। विशेष उपचारों एवं तकनीकों के कारण भले ही उसकी शक्ति में कुछ बढ़ोत्तरी हो जाती हो, लेकिन मूल में एक ही तथ्य है- खाली मन में डाले गए संकेत और निर्देश। मनोरंजन के प्रभावशाली होने की भी यही रीति-नीति है। वह तथ्य को प्रेरणाएँ बनाकर प्रस्तुत करता हैं।
इसका प्रभाव संस्कारों के रूप में भी पड़ता है। यदि वे तत्काल कोई प्रभाव नहीं भी दर्शाते तो कालांतर में जब संस्कार दृढ़ हो जाते हैं, तब अपना घातक असर पैदा करते हैं। अतः मनोरंजन को केवल थकान मिटाने का साधन ही नहीं बल्कि मन को प्रभावित करने वाली एक कला के रूप में देखा जाना चाहिए और जो चीज कुरुचि जगाए, विकृतियाँ बढ़ाए, उनसे दूर रहना चाहिए।
एक परिष्कृत एवं स्वस्थ रूप वह भी है, जो मन के साथ-साथ शरीर को भी लाभ पहुँचाए। इस दृष्टि से खेल-कूद कबड्डी आदि क्रीड़ा अभ्यासों को भी शामिल किया जा सकता है। इसका इतना ही मतलब है कि मन के खिंचे हुए तार थोड़े ढीले करें और जीवन वीणा को इस योग्य रहने दें कि पुनः जब उसका साज बजाना हो तो, वह पहले की भाँति सक्रिय सतेज और सुमधुर हो। हमें मनोरंजन के महत्व और स्तर को समझ कर उसे अस्वास्थ्यकर और हानिप्रद ढंग से प्रयोग में नहीं लेना चाहिए।