Magazine - Year 1989 - Version 2
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Language: HINDI
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अंतः करण के परिमार्जन से दिव्य शक्तियों का उद्भव!
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आत्मोत्कर्ष के लिए साधना क्षेत्र में उतरना ही एक मात्र उपाय है। अन्तःक्षेत्र का परिशोधन परिमार्जन करना पड़ता है। मलीनताएँ सम्मिश्रित किये रहने पर उसका मूल्याँकन ठीक नहीं हो पाता। जमीन से धातुएँ जब निकलती हैं तो उन सब के साथ मिट्टी मिली होती है। आग की प्रचंड भट्ठी में डालकर उसे तपाना- पिघलाना पड़ता है। इससे मिट्टी वाला अशुद्ध अंश जलकर पृथक् होता है और शुद्ध धातु अपने असली रूप में सामने आती है।
सौर मण्डल के ग्रह, उपग्रह जिस क्रम और जिस गति से अपनी धुरी और कक्षा में घूमते हैं, उसी प्रकार परमाणु भी नाभिक की परिक्रमा करते और धुरी पर घूमते हैं। परमाणु के इर्द-गिर्द घूमने वाले इलेक्ट्रान, प्रोटान, न्यूट्रान की भी वही रीति-नीति होती है, जो सौर मण्डल के ग्रह-उपग्रहों की। इनकी गतिविधियों और परमाणुओं के क्रिया-कलापों में नगण्य सा ही अन्तर पाया जाता है इसी तथ्य पर समस्त ब्रह्मांड का गति चक्र चलता है। ईश्वर को ब्रह्मांड माना जाय, तो व्यक्तित्व को एक सौर मंडल माना जा सकता है। सौर मण्डल का एक इकाई माना जय तो परमाणुओं को उनका अंशधर मानना पड़ेगा। इसका तात्पर्य यह हुआ कि मनुष्य के अन्तराल में विद्यमान शक्तियों की न्यूनता नहीं। प्रश्न केवल इतना भर है कि उन्हें प्रसुप्त स्थिति में पड़े रहने दिया जाय या जाग्रत, सशक्त-सक्रिय बनाया जाय।
इसका एक ही उपाय है कि जो अवांछनियताएं उभरी हुई है, इन्हें दबाया जाय और जो श्रेष्ठता के साथ विद्यमान हैं, उनमें नव जीवन का संचार किया जाय। यह कार्य साधना माध्यम से ही हो सकता है।
साधना के दो पक्ष है। एक तप दूसरा योग। तप का अर्थ है तपाना। किसी वस्तु को तपाने से जो उसमें अनावश्यक तत्व हैं वे हट जाते हैं और शुद्ध स्थिति की सुदृढ़ता उत्पन्न होती है। मिट्टी के बने पात्रों को गरम करने से वे सुदृढ़ और टिकाऊ हो जाते है। ईंटें पकने के उपरान्त पत्थर का काम करती हैं। धातुएँ पकाने से अपने शुद्ध स्वरूप में निखर आती हैं। धूप में कपड़े सुखाने से उनकी सीलन और बदबू उड़ जाती है। पानी का तपाने से ऐसी सशक्त भाप बनती हैं, जो रेलगाड़ी जैसे भारी-भरकम वाहन को खींचे खींचे फिरे। रस भस्में अग्नि संस्कार प्रक्रिया से बनती हैं। शरीर का तापमान जब तक सही रहता है तभी तक जीवन है। घटने से दुर्बलता और बढ़ने से उत्तेजना ऐसी सवार होती है, जो प्राण घातक तक बन सकें।
योग का अर्थ है जोड़ना। जोड़ना किसको, किससे? इसका उत्तर एक ही है आत्मा को परमात्मा से। टंकी के साथ नल का तारतम्य जुड़ा रहता है।, तो नल की टोंटी से तब तक पानी निकलता रहेगा, जब तक कि टंकी पूरी तरह खाली नहीं हो जाती। बिजली घर के साथ जेनरेटर ट्रांसफारमर जुड़ते हैं और फिर उनके कनेक्शन जहाँ कहीं तक जाते हैं, वहाँ करेण्ट बराबर चलता रहता है। हिमालय के साथ जुड़ी हुई नदियों का प्रवाह तब तक चलता रहता है जब तक कि हिम भण्डार पूरी तरह गल कर समाप्त नहीं हो जाता। यही स्थिति आत्मा की भी है। सम्बन्ध मजबूती से जुड़ जाय तो दोनों की एकता में कोई अन्तर नहीं रह जाता। परमात्मा के गुण आत्मा में प्रकट होने लगते हैं।
तप में तितिक्षा द्वारा अपने को तपाना और दुर्गुणों को जलाना पड़ता है। इसमें दोष, दुर्गुणों कुसंस्कारों को जलाकर व्यक्तित्व में सन्निहित श्रेष्ठ के तत्वों को उजागर करना पड़ता हैं। शुद्ध स्थिति में पहुँचने पर वस्तु का मूल्य अनायास ही अत्यधिक बढ़ जाता है, कोयले का शुद्ध स्वरूप हीरा है। भाप से उड़ाना हुआ पानी डिस्टिल्य उपयोग किया जाता है। मनुष्य की उत्कृष्टता दुर्गुणों के छिद्रों से होकर बह जाती है। यदि उन्हें रोक दिया जाय, तपाकर मजबूत टाँके लगे बर्तन जैसा बना दिया जाय, तो फिर प्रवाह की निरर्थकता का खतरा नहीं रहता।
योग में जब परमात्म सत्ता के साथ आत्म सत्ता की घनिष्टता होती है तो द्वैत मिटकर अद्वैत बन जाता है। परमात्मा की सभी विशेषताएँ आत्मा में अवतरित होने लगती हैं। नाला जब नदी में मिल जाता है, तो उसका गंदा जल भी गंगा जल के सदृश्य पवित्र माना जाने लगता है। आग में जब ईंधन पड़ता है, तो दोनों की घनिष्टता एक रूप में प्रकट होती है। ईंधन भी आग की तरह जलने लगता है और कुछ क्षण पहले जो लकड़ी सा नगण्य था वही अग्नि के गुणों से भर जाता है और उसे कोई छूने का साहस नहीं करता बेल में निजी गुण जमीन पर फैलने का है, पर जब वह पेड़ से लिपट जाती है, तो उतनी ही ऊपर उठ जाती है, जितना लम्बा कि पेड़ होता है। बाँसुरी जब अपने को पोला कर देती है, अपनी निजी अहंता का परित्याग कर देती है तो बसी के रूप में विकसित हो जाती है और वादक द्वारा छेड़े गये मधुर स्वर उसमें से निनादित होते हैं। व्यक्ति काया की दृष्टि से ही जीवधारी रहता है, पर गुण, कर्म, स्वभाव से वह ईश्वरवत हो जाता है।
तपस्वी को अपनी अवाँछनीय आदतों से संघर्ष करना होता है और उन्हें परास्त करना पड़ता है संकीर्ण स्वार्थता, विलासिता, मोहग्रस्तता, लोभ, लिप्सा, .... जैसे अनेक कुसंस्कार ऐसे हैं, जिनका उन्मूलन न किया जाय तो अन्तराल की स्थिति झाड़ झंखाड़ उगे बीहड़ जैसी हो सकती हैं और उस स्थान पर उपयोगी कृषि करना, उद्यान उगाना संभव नहीं हो पाता। कपड़ा पहले धोया जाता है जब उस पर रंग चढ़ता है। तप को कपड़ा धोना समझना चाहिए और योग का परमात्मा के रंग में अपने को रंगना।
जिस प्रकार दोनों पहिये सही होने पर गाड़ सही रीति से चल पड़ती है, आन्तरिक दिव्य क्षमताओं को विकसित करने के लिए इन्हीं दो क्रिया-कलापों को खाद पानी की तरह प्रयुक्त करना पड़ता है। आत्मशोधन एवं आत्म परिष्कार की दिव्यशक्तियों की सिद्धियों-ऋद्धियों को अपने भीतर से उभारने का एक मात्र उपाय है।
जो छद्म प्रयोजनों से ताँत्रिक जैसे आधारों का अवलम्बन करके कोई चमत्कारी विशेषताएँ उत्पन्न कर लेते हैं, बाजीगरी स्तर की होती हैं। न तो उनमें वास्तविकता होती है और न टिकाऊपन। उनका उपयोग मात्र लोगों को प्रभावित करने, भ्रम में डालने भर के लिए किया जा सकता है। वे चकाचौंध उत्पन्न करके किसी की आँखों को चौंधिया सकती हैं। ऐसा तो सम्मोहन विधा हिप्नोटिज्म से भी हो सकता है कि सांप बिच्छू, शेर, ईश्वर देवता आदि के दर्शन करा दिये जाँय। यह दिवा स्वप्न हैं जो समय की कसौटी पर खरे नहीं उतरते। जिसको देवता अनुग्रह पूर्वक दर्शन दें उन्हें अपनी दिव्य विभूतियाँ प्रदान करके उच्चस्तरीय भूमिका में क्यों नहीं पहुँचा देंगे? यदि ऐसा कोई परिवर्तन अपने में दृष्टिगोचर नहीं हुआ है, चिन्तन, चरित्र और व्यवहार में निकृष्टता ही छाई रही है तो समझना चाहिए कि स्थिति पूर्ववत् गई-गुजरी ही बनी हुई है। लोगों को भ्रम में डालने के लिए अपने प्रभाव और प्रताप के झूठे किस्से भी गढ़े जा सकते हैं। बाजीगरों को भाँति किन्हीं को भ्रम में डालने वाला कौतुक चमत्कार भी दिखाया जा सकता है। किन्तु यह निश्चित है कि व्यक्तित्व को परिमार्जित किये बिना कोई सिद्ध पुरुष नहीं बन सकता।