Magazine - Year 1989 - Version 2
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Language: HINDI
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मनः स्थिति को सुव्यवस्थित बनायें!
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मानसिक अस्तव्यस्तता की स्थिति तनाव कहलाती है। इसी के चिन्ह सिर में दर्द, चक्कर आना, जी घबराना, अनिद्रा बेचैनी, उत्तेजना आदि के रूप में दिखाई देते हैं। निद्रा, शाँति और विश्राम के लिए मानसिक शिथिलता जरूरी है। पर जब मानसिक स्थिति तनाव ग्रस्त हो तो थकान मिटाने वाली नींद कैसे आए? काम के दबाव से उत्पन्न तनाव तो विश्राम से दूर किया जा सकता है, पर चिन्ताओं से उत्पन्न होने वाला तनाव विश्राम की स्थिति उत्पन्न होने नहीं देता। फलस्वरूप स्थिति लगातार बिगड़ती जाती ह॥
मनोवैज्ञानिकों के अध्ययन के अनुसार बड़े शहरों के निवासी देहात में रहने वालों की अपेक्षा कहीं अधिक इससे ग्रसित पाए जाते हैं।इसके कारण के बारे में उनका मानना हैं, गाँवों का जीवन सीधा और सरल है-जबकि शहरों काजीवन मशनी बन कर रह गया है। जीवन शैली का यह भेद बहुत महत्वपूर्ण है। एक को साधारण कपड़े और साधारण भोजन में सन्तोष है, तो दूसरा अधिक से अधिक घमक-दमक बटोरना चाहता है। कामनाओं की बाढ़ में मन चिन्ताओं और विक्षोभों में डूबा रहे यह स्वाभाविक है। सितार के तारों को अधिक कड़ा करते जायँ तो वे टूट जाँएगें। इसी प्रकार मनःस्थिति यदि अव्यवस्थित व तनाव पूर्ण रहे तो उसकी प्रतिक्रिया समूचे जीवन को तोड़-मरोड़ कर रख देती है।
मनोवैज्ञानिक आर.एस. लाजरस ने अपनी रचना “साइकोलाजिक स्टे्रस एण्ड द कोपिग प्रोसेस” में इसका प्रमुख कारण खुद की मनःस्थिति एवं सामाजिक वातावरण के पारस्परिक सम्बन्धों में होने वाले उतार-चढ़ाव को बताया है। यह उतार-चढ़ाव मुख्य रूप से दो तथ्यों पर टिक है। पहला व्यक्ति की समा से माँग, दूसरा माँग के प्रति उसकी स्वयं की मानसिकता। अधिकाँश लोग समाज से असीमित माँगे रखते हैं, जबकि समाज के देने की क्षमता सीमित है। ऐसी दशा में स्वाभाविक है कि मनःस्थिति अस्तव्यस्त हो चले।
इच्छाओं की बाढ़ को रोक कर परिस्थितियों से ताल मेल बिठाना हमें सीखना होगा। लोगों का साथ निभाने की कला हमें आनी चाहिए। आदमी मिट्टी के खिलौने नहीं हैं जो चाहे जब चाहे जहाँ हटाए बदले जा सकें। कुछ लोग ऐसे होते है। जिनके साथ हमें इच्छा या अनिच्छा से रहना ही पड़ेगा। पड़ोस में जो लोग बसे हैं उनके घर को नहीं उखाड़ फेंका जा सकता? और न ही अपने खेत खलिहान को छोड़कर किसी दूर देश में घोंसला बनाया जा सकता है। पड़ोसी जैसे भी हैं, आखिर रहना तो उन्हीं के साथ पड़ेगा। जरूरी नहीं वे समझाने-बुझाने से हमारी मन मर्जी के अनुसार चलने लगें। यही बात कुटुम्बियों परिवारीजनों के सम्बन्ध में भी है। बूढ़े माँ-बाप, जवान भाई भावज, सयाने, लड़के, धर्म-पत्नी इन सबकी आदतें अपनी मर्जी के अनुरूप हों, यह कोई जरूरी नहीं। जिस तरह हर आदमी की शक्ल में अन्तर होता है, उसी प्रकार उसका व्यक्तित्व भी न जाने कितनी अच्छी खराब विशेषताओं से जुड़ा रहता है। कुछ इनमें से बदलती रहती हैं। अच्छे बुरे बन जाते हैं, और बुरे अच्छे। अरुचि की स्थिति पैदा होते ही उन्हें हटा दिया जाय, खुद हट जाँय या अपनी मर्जी का सुधार कर लिया जाय। ये तीनों बातें कठिन हैं। सरल यही है कि हमें जिन लोगों के साथ रहना पड़े उनके साथ इस तरह गुजर बसर करें, तालमेल बिठाये कि आये दिन का टकराव पैदा हुए बिना समय गुजरता रहें और यथा सम्भव सहयोग की सम्भावनाएँ बढ़ती रहें।
घुटन को हार की तरह छाती से चिपटाए रहना ठीक नहीं। एक बात सामने आयी उस पर विचार किया और सिनेमा की फिल्म की तरह दिमाग के पर्दे से हटा दिया। जब हम फेफड़े में साँस को रोके नहीं रख सकते। तो किसी विक्षोभ को ही मन में जमाकर, दबाकर क्यों बैठें रहें! नई साँस लेने के लिए जरूरी है कि पुरानी साँस बाहर निकले। भविष्य का निर्माण करने वाले विचारों को आमन्त्रित करने के लिए जरूरी है, जो बीत चुका उसकी कष्टदायी यादों को विस्मरण के गड्ढे में धकेल कर छुटकारा, पाएँ। खाली बैठे रहने पर न जाने कितनी इच्छाएँ कामनाएँ, ऊट-पटाँग विचार मन में उमड़ा करते हैं। इनमें पिण्ड छुड़ाने का सरल तरीका यह भी है कि ठाली पन दूर किया जाय। बहुत से काम ऐसे हैं। जो मानसिक गड़बड़ी में भी किए जा सकते हैं। झाडू लगाना, कपड़े धोना, जैसे काम अभ्यस्त हाथ करते रह सकते हैं। तैरना, खेलना, किसी काम से दूसरी जगह चले जाना जैसे छोटे परिवर्तन उत्तेजित मनःस्थिति को हलकी कर सकते हैं।
दूसरों से बहुत ज्यादा अपेक्षा न करना भी एक कारगर, उपाय है। सामान्यतया देखा यह जाता है कि बाप-बेटे से बहुत अधिक आशाएँ रखता है। उसके द्वारा हवाई किले बनाए जाने के सपने देखे जाते हैं। इसी प्रकार तमाम तरह की अपेक्षाएँ पड़ोसियों, कुटुम्बियों, रिश्ते-नातेदारों से की जाती हैं। ये सभी पूरी होने से तो रहीं। न पूरी होने की स्थिति में मन को विक्षुब्ध होना पड़ता है।
इस विक्षुब्धता जन्य तनाव से बचने के लिए जरूरी है कि अपनी अपेक्षाओं, को कम से कम रखा जय। अपनी मांगों को सिकोड़ा जाय। इसके लिए मन को प्रशिक्षित करना होगा। मन तो छोटे बच्चे की तरह है। जिस किसी चीन को पाने के लिए दौड़ पड़ता है। न पाने पर रोता मचलता है। यह रोने मचलने की स्थिति ही तो तनाव है। वह न रोए मचले, इसके लिए तरह-तरह के उदाहरण उसके सामने रखने होंगे। दुनिया के ख्याति प्राप्त रसायनज्ञ डाँ. प्रफुल्ल चन्द्र राय अपने वेतन के छोटे से हिस्से से अपना काम चला लेते थे, शेष धन गरीब विद्यार्थियों, सेवाभावी, संस्थाओं में नियोजित करते थे। माँगें कम रखने का मतलब है-इस स्थिति स्थाई रूप छुटकारा पाना।
यही बात परिवेश-परिस्थितियों के सम्बन्ध में है। बात घर परिवार अड़ोस-पड़ोस की हो या दफ्तर कार्यालय की। जब भी कोई ऐसी समस्या उठे तो शान्त मनःस्थिति रख कर विचार करने का प्रयास करना चाहिए। एक हाथ ताली नहीं बजती। गलती दोनों ओर से होती है। इसमें अपनी गलती कहाँ है-उसे ढूँढ़ कर दूर करने की कोशिश की जाय। प्रायः होता यह है कि छोटी सी बात को बड़ा बना दिया जाता है। तिल का ताड़ बनाने वाली इस आदत की वजह से न जाने कितने लोग मन का विक्षोभ भुगतते रहते हैं। थोड़ी समझदारी बरत लेने-संगति बिठाकर चलने में किसी तरह की तनाव जन्य स्थिति का न आना स्वाभाविक है।
काम की चिन्ताओं का बोझ दफ्तर या कार्य स्थल पर ही रहने देना ठीक है। हर समय इसे बेवजह ढोने से कोई भलाई नहीं। क्योंकि इस तरह काम को तो पूरा किया नहीं जा सकता। सिर्फ उधेड़बुन के कारण तनाव हाथ लगता है। जिस समय काम करें, पूरे मनोयोग से करें। प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर करें सके बाद तो उसे उसी जगह छोड़ कर हँसी-खुशी की हलकी -फुलकी जिन्दगी जीना ही अच्छा है। धीरे धीरे किन्तु लगातार इस तथ्य पर अमल करने से ऐसी स्थिति आने नहीं पाती।
मानसिक स्तर व जीवन क्रम को ऐसा सँजोया जाय, इस प्रकार सुसंयत किया जाय कि आयेदिन की तनाव जन्य परेशानियों का सामना ही न करना पड़े। चिन्तन और जीवन शैली में ठीक तरह से सामंजस्य बिठा कर चलने और हँसने हँसाने की आदतों को अपना कर तनाव से एवं तद्जन्य व्यथाओं से सहज ही छुटकारा पाया जा सकता है।