Magazine - Year 1991 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
जिलाधीश चाईसेन (Kahani)
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
बहुत समय पूर्व जापान के एक जिले के जिलाधीश थे-चाईसेन। उनके हाथ में सरकार ने बहुत सत्ता दे रखी थी।
एक व्यापारी अपना कुछ बड़ा काम सरकार से निकालना चाहता था। इसके लिए जिलाधीश का सहयोग अपेक्षित था। व्यापारी अशर्फियों की थैली लेकर पहुँचा और बोला-यह भेंट स्वीकार करें, मेरा काम कर दें। इस भेंट की बात कोई भी नहीं जान पायेगा।
चाईसेन ने कहा यह कैसे हो सकता है कि कोई न जाने। धरती, आसमान, मेरी आत्मा, आपकी आत्मा और परमात्मा पाँच की जानकारी में तो बात आ गई, उस पाप का भेद तो खुल ही गया। कृपा कर अपनी अशर्फियाँ वापस ले जाइये, अपने कर्तव्य और उत्तरदायित्व को झुठलाना मेरे किसी भी प्रलोभन के बदले संभव न हो सकेगा।
कुछ चाहा गया है वह उतनी ही मात्रा में उसी अनुपात में उपलब्ध हो सकेगा। प्रयत्न की कमी, परिस्थितियों की प्रतिकूलता एवं स्वभाव की भिन्नता से भी ऐसा हो सकता है। किंतु यह भी संभव है कि काम चलाऊ, स्थिति होने पर भी अपने को संतोष न मिले और सदा असंतोष एवं खिन्नता को ही मनःस्थिति बनी रहे। अप्रसन्नता की स्थिति में मानसिक विकास रुक जाता है। उदासी की स्थिति में समग्र चिन्तन बन नहीं पाता और उस अधूरेपन के कारण रास्ता भी सही नहीं मिलता। अप्रसन्नता तो ऐसा मनः क्षेत्र बना देती है जिसकी उर्वरता और प्रखरता एक प्रकार से पलायन ही कर जाय और व्यक्ति समझदार सुयोग्य होते हुए भी मूर्ख जैसे आचरण करने लगे। उल्टा सोचे और उल्टा करे। ऐसी स्थिति में परिणाम का उलटा होना स्वभाविक ही है।
शरीर पर मनःस्थिति का असाधारण प्रभाव पड़ता है। प्रसन्नता चेहरे पर प्रफुल्लता बनकर उभरती है। आँखों में तेज रहता है और होठों पर मुसकान। ऐसी दशा में कुरूप या वयोवृद्ध भी सुन्दर सलोना लगता है। प्रतीत होता है कि उसे अनेक सफलतायें मिली हैं। उनके लिए उसे समुचित क्षमतायें और परिस्थितियां प्राप्त हैं। अन्यथा ऐसा न होता तो यह उमंग उत्साह भरी मनःस्थिति कहाँ से उपलब्ध होती। सफलता एक प्रकार की सम्पन्नता है, जिसमें असाधारण आकर्षण पाया जाता है। वह दर्शकों पर अपनी छाप छोड़ती है और अपनी ओर खींचती है।
शरीर पर प्रसन्नता का अनोखा असर पड़ता है। दुर्बलता की स्थिति में भी साहस और उत्साह बना रहता है और उतना काम करते बन पड़ता है जितना कि अच्छे भले आदमी कर सकते हैं। इसके विपरीत उदास या उद्विग्न शरीर निरोग होते हुए भी बीमारी जैसी स्थिति में जा पड़ता है। उसे हर समय थकान चढ़ी रहती है। निराशा छाई रहती है और छोटा काम भी पर्व जैसा कठिन प्रतीत होता है।
यह लगता भर है कि रक्त माँस की बहुलता से मनुष्य अधिक पुरुषार्थ कर सकता है। बड़े काम करने वाले बलिष्ठ होते हैं पर वस्तुतः बात वैसी है नहीं। उदासी हर आयु में वृद्धावस्था में भी महँगी पड़ती है। उसके रहते क्रमबद्धता नहीं बन पड़ती और अस्त−व्यस्त व्यक्ति चूक पर चूक करता जाता है। एक कदम में ठोकर लग जाने पर दूसरा उठाने की हिम्मत नहीं पड़ती।
कमल का फूल खिलता तो पानी से ऊपर है पर उसकी जड़ें नीचे जलाशय की तली में रहती हैं। प्रसन्नता भी एक फूल है जो देखते ही चेहरे पर वस्तुतः उसका मूलभूत कारण अंतःकरण के अन्तराल में रहता है। आत्मविश्वास और आत्मपरिष्कार का सम्मिलित स्वरूप ही प्रसन्नता के रूप में खिलता और अपनी शोभा तथा सुगंध से सारे वातावरण को सुरुचिपूर्ण शोभायमान बनाता है। यह परिवर्तन प्रसन्नता का आधार बदल देने मात्र से हो सकता है।
कुरूपता, अभाव और खिन्नता को यदि हम देखें तो उसका विस्तार भी उतना ही दीख पड़ेगा जितना कि सुन्दरता, सम्पन्नता और सद्भावना का। दिन जितना बड़ा है, रात भी उतनी ही। रात जितनी बड़ी है, उतना ही दिन भी। दिन प्रधान मानकर चलें तो प्रकाश से वास्ता पड़ेगा और रात भर जागते रहें तो सर्वत्र अंधकार ही अंधकार दिखाई देगा। हम शुभ सोचें, शुभ करें और शुभ की संभावना को ही कल्पनाक्षेत्र में विचरण करने दें तो जो पक्ष चुना गया है। वही हमारे साथ आवेगा।