Magazine - Year 1991 - Version 2
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Language: HINDI
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दो दिशाधाराएँ हैं, कौन सी वरण करें?
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प्रगति की अनेक दिशाधाराएँ हैं। सभी आकर्षक, सभी सुन्दर, सभी सरस, सभी मधुर। पर इनमें किसी एक का चुनाव करना पड़ता है। बिना दिशा निर्धारण किये कुछ करने में लगा रहना ऐसा ही है, जैसे बिना पहुँचने का स्थान सोचे किसी राह पर अनायास ही चल पड़ना। किसी भी दिशा में चल पड़ने वाला व्यक्ति कहीं भी पहुँच सकता है। उसकी अनिश्चित बुद्धि भ्रम जंजालों में फँसाती रहती है और एक काम अधूरा छोड़ कर दूसरे में लग जाने की सलाह देती रहती है। व्यक्ति समय बहुत गँवाते हैं और किसी नियत लक्ष्य तक पहुँच नहीं पाते।
सम्पदा एकत्रित करने का लक्ष्य सबसे सुहावना है क्योंकि पैसे के बल पर सुविधा साधन ही उपलब्ध नहीं होते, किसी खर्चीले प्रपंच के सहारे प्रख्यात भी बना जा सकता है। किन्तु कठिनाई यह है कि न्यायोपार्जित धन उतना ही कमाया जा सकता है जिससे निर्वाह चलता रहे, इन दिनों हर आदमी की इच्छा धनाढ्य बनने और प्रख्यात बनने की है। इन दोनों क्षेत्रों में इतनी प्रतिस्पर्धा है कि हर व्यक्ति एक दूसरे को पीछे धकेल कर स्वयं आगे बढ़ना चाहता है। इसके लिए सीधे और सरल तरीके काम नहीं देते। इस निमित्त आतंक अपराध, छल और प्रवंचना का आश्रय लेना पड़ता हैं यह माध्यम ऐसे हैं जिनमें हिस्सा बँटाने वाले कुछ चापलूसों को छोड़ कर शेष के मन में स्वाभाविक घृणा उपजती है। ईर्ष्या और द्वेष का परिकर बढ़ता है। अनेक प्रतिद्वन्द्वी आपस में टकराते हैं। फलतः उसी वर्ग के लोग आपस में कट मरते हैं। चोर लुटेरों का आपसी मनोमालिन्य इतना उभरता है कि एक दूसरे को किसी न किसी जाल जंजाल में फँसा देने का कुचक्र रचा जाता रहता है।
फिर मनुष्य के भीतर एक और सत्ता है जिसे आत्मा कहते हैं। वह कुमार्गगामी को काटती कचोटती रहती है, फिर आत्मा का अधिपति परमात्मा भी है, जो घट-घट की भावनात्मक जानकारी रखता है। उसका कर्म विधान ऐसा अकाट्य है कि आज नहीं तो कल उसका प्रतिफल मिले बिना नहीं रहता। बुराई का अन्त बुरा होना निश्चित है। सच ही कहा गया है कि देर है, अन्धेर नहीं। कुमार्ग पर चल कर कमाया हुआ वैभव टिकता नहीं। वह बीमारी, चोरी, मुकदमेबाजी, नशेबाजी जैसी विपत्तियों और दुर्घटनाओं, प्रपंचनाओं के माध्यम से निकल जाता है। ठहरता नहीं। यदि ठहरा होता तो उचक्कों के अब तक महल बन गये होते और वे असंख्यों का नेतृत्व कर रहे होते। सभी उनका सम्मान कर रहे होते। वस्तुतः प्रकृति की व्यवस्था ऐसी है कि अनीति के मार्ग पर एक सीमा तक किसी को चलने देती है। इसके बाद उसकी बढ़ोत्तरी बन्द हो जाती है और प्रतिक्रिया चल पड़ती है।