Magazine - Year 1991 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
श्रावणीपर्व की विशेष कार्यकर्ता गोष्ठी
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
इस माह “पूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी” प्रसंग के अंतर्गत उनके द्वारा आज से तीन वर्ष पूर्व शाँतिकुँज में कार्यकर्ताओं के बीच विशेष गोष्ठी की चर्चा की जा रही है। वे सभी प्रसंग जो इस चर्चा में आए हैं, आज भी उतने ही सामयिक हैं, जितने उस समय थे। सभी परिजनों से उस अवसर विशेष की भागीदारी करने के उद्देश्य से इस विशिष्ट गोष्ठी का वर्णन प्रस्तुत है।
हमारे तुम सब के बीच आने का एक ही उद्देश्य है कि हम समाज को सही व्यक्ति देकर जायँ। व्यक्ति होते तो यह सारा समाज नया हो जाता। सारे समाज का कायाकल्प हो जाता। पचास आदमी गाँधी के, बुद्ध के साथ थे। वे युग परिवर्तन कर सके क्योंकि उनके पास काम के इन्सान थे। विवेकानन्द के साथ निवेदिता थीं और कुछ काम के व्यक्ति थे। आज जहाँ देखो, वही जानवर नजर आते हैं। यदि काम के इंसान होते तो जमीन पलट दी गयी होती। तुम सब यहाँ आए हो तो काम के आदमी बन जाओ। हमने जीवन भर व्यक्ति के मर्म को छुआ है व अपना ब्राह्मण स्वरूप खोलकर रख दिया। नतीजा यह कि हमारे साथ अनगिनत आदमी जुड़े। तुम यदि सही अर्थों में जुड़े हो तो अपना भीतर वाला हिस्सा भी लोकसेवी का बना लो व समाज के लिए कुछ कर डालने का संकल्प ले डालो।
यहाँ शाँतिकुँज में न्यूनतम पाँच सौ सशक्त कार्यकर्ताओं की, सही मायने में आदमियों की जरूरत है। आदमियों के लिए जमीन प्यासी है व आकाश प्यासा है। यदि पूर्ति हो जाय तो सारा सपना हमारा पूरा हो जाय। हमने ठहरने, खाने, पीने की सारी व्यवस्था कर दी है। यहाँ आने वाला हर व्यक्ति अध्यात्म के, समाज सेवा के रंग में रंगकर जाय, यही हमारा उद्देश्य है। यह काम अकेले संभव नहीं है। तुम्हारा सहयोग इसके लिए हमें चाहिए। इसके लिए हमें तुम से कुछ भी नहीं व्यक्तित्व की साधना व तुम्हारा निष्काम समर्पण चाहिए।
गाँधी जी ने अपने साथ रहने वालो सभी व्यक्तियों का व्यक्तित्व बना दिया था। वे, जो पूरी तरह जुड़े धन्य हो गये। श्रेय सौभाग्य के अधिकारी बने। तुम भी सही अर्थों में जुड़ जाओ तो तुम सबका व्यक्तित्व बने, सभी सँवर जाएँ। आज से 63 वर्ष पूर्व हमने वसंत पर्व पर अपने भगवान से दीक्षा ली थी। यह कहना था कि अब “मैं समाप्त होता हूँ व “आप” जीवित होते हैं। आपकी इच्छा मुख्य, मेरी इच्छा गौण। समर्पण किया था हमने। अनगिनत उसकी उपलब्धियाँ हैं। हमारा व्यक्तित्व हमारी मार्गदर्शक सत्ता ने शानदार बना दिया। तुम सबका भी ऐसा ही बन जाए, यदि तुम मन व आत्मा से समर्पण कर दो। यह हम कह इसलिए रहे हैं कि कहीं भावावेश में घर छोड़कर आए हो व मन में तुम्हारे दुःख क्लेश बना रहे, इसके स्थान पर एक ही बार में सारी स्थिति स्पष्ट हो जाए। कहीं के तो बन सको तुम!
हमने जो समर्पण किया, बदले में हमारी मार्गदर्शक सत्ता ने हमें स्वयं को सौंप दिया। हमारे अंदर प्रभावोत्पादकता भर दी। वाणी में, लेखनी में, व्यक्तित्व में, दैनन्दिन आचरण में यही तुम्हारे अंदर भी आ जाएगी। भगवान के हम कोई संबंधी थोड़े ही हैं। जो उन्होंने हमारे साथ कोई विशेष पक्षपात किया हो। तब तुम्हें भी क्यों नहीं वही सब मिल सकता है जो हमें मिला। बल कसौटी एक ही “अहं” को गलाना-विसर्जन, समर्पण जब तक अहंकार जिन्दा है, आदमी दो कौड़ी का है। जिस दिन यह मिट जाएगा आदमी बेशकीमती हो जाएगा। ‘अहं’ ही है, जिसके कारण न सिद्धाँत, न सेवा, न आदर्श आ पाते हैं। व्यक्ति लोकसेवा के क्षेत्र में प्रवेश करके भी उच्छृंखल स्तर का अनगढ़ बना रहता है। तुम्हें ईसा मसीह की बात सुनाता हूँ। उनके शिष्यों ने उनसे कहा कि हम भी आपके सम्मान महान, बड़ा बनना चाहते हैं। हम क्या करें? तो उन्होंने एक ही जवाब दिया। बच्चों, जीवन भर मैं तिनका बना, विनम्र बना, गला तथा इसीलिए इतने बड़े वृक्ष के रूप में विकसित हो सका। अपनी इच्छा शक्ति समाप्त कर दी तो सही अर्थों में बड़े बन गए। पहले तुम सब भी तिनके के समान छोटे बनो। तुम वैसा बन गए तो पेड़ भी बन सकोगे, इसमें कोई सन्देह नहीं है। वास्तव में सेण्टपाल भी इसी प्रकार सच्चे ईसाई थे व ईसा के बाद विकसित हुए। उनकी पीढ़ी के दूसरे महापुरुष वे विनम्रता-सेवाभाव निरहंकारिता के कारण ही बने।
व्यक्ति को पहचानने की एक ही कसौटी है कि उसकी वाणी घटिया है या बढ़िया। व्याख्यान कला अलग है। मंच पर तो सभी शानदार मालूम पड़ते हैं। प्रत्यक्ष संपर्क में आते ही व्यक्ति नंगा हो जाता है। जो प्राण वाणी में है वही परस्पर चर्चा-व्यवहार में परिलक्षित होता है। वाणी ही व्यक्ति का स्तर बताती है। व्यक्तित्व को बनाने के लिए वाणी की विनम्रता जरूरी है। प्याज खाने वाले के मुँह से, शराब पीने वाले के मुँह से जिस प्रकार गंध आती है, पायरिया वाले मसूड़े के मुँह से जिस प्रकार गंध आती है-वाणी की कठोरता ठीक इसी प्रकार मुँह से निकलती है। अशिष्टता छिप नहीं सकती। यह वाणी से पता चल ही जाती है। अनगढ़ता मिटाओ, दूसरों का सम्मान करना सीखो, तुम्हें प्रशंसा करना आता ही नहीं मात्र निन्दा करना आता है। व्यक्ति के अच्छे गुण देखो, उनका सम्मान करना सीखो तुरंत तुम्हें परिणाम मिलना चालू हो जाएँगे। वाणी की विनम्रता का अर्थ चाटुकारिता नहीं है। फिर समझो इस बात को। कतई मतलब नहीं चापलूसी का वाणी की मिठास से। दोनों नितान्त भिन्न चीजें हैं, दूसरों की अच्छाइयों की तारीफ करना, मोटी वाणी बोलना एक ऐसा सद्गुण है जो व्यक्ति को चुम्बक की तरह खींचता व अपना बनाता है। दूसरे सभी तुम्हारे अपने बन जाएँगे, यदि तुम यह गुण अपने अंदर पैदा कर लो। इसके लिए अंतः के अहंकार को गलाओ। अपनी इच्छा, बड़प्पन, कामना, स्वाभिमान को गलाने का नाम समर्पण है, जिसे तुमसे करने को मैंने कहा है व इसकी अनन्त फल श्रुतियाँ सुनाई हैं। अपनी इमेज विनम्र से विनम्र बनाओ मैनेजर, इंचार्ज की, बाँस की नहीं बल्कि स्वयं सेवक की। जो स्वयं सेवक जितना बड़ा है, वह उतना ही विनम्र है, उतना ही महान बनने के बीजाँकुर उसमें है। तुम सबमें वे मौजूद हैं। अहं की टकराहट बंद होते ही वे विकसित होना आरंभ हो जाएँगे। तुमने हमसे दीक्षा तो ली है, पर यह अपने अंदर टटोलो कि तुमने समर्पण किया कि नहीं। यही पर्यवेक्षण इस श्रावणीपर्व पर अपने अंतरंग का करो।
हमारी एक ही महत्वाकाँक्षा है कि हम सहस्र भुजा वाले सहस्रशीर्षा पुरुषः बनाना चाहते हैं। तुम सब हमारी भुजा बन जाओ, हमारे अंग बन जाओ यह हमारे मन की बात है। गुरु-शिष्य एक दूसरे से अपने मन की बात कहकर हलके हो जाते हैं। हमने अपने मन की बात तुमसे कह दी। अब तुम पर निर्भर है कि तुम कितना हमारे बनते हो। पति-पत्नी की तरह