Magazine - Year 1991 - Version 2
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Language: HINDI
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सुदृढ़ संकल्प बल के सहारे आरोग्य प्राप्ति
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कभी माना जाता था कि कष्ट साध्य और चिरस्थायी बीमारियाँ भी छुटपुट रोगों की तरह शरीरगत खराबियों के कारण उत्पन्न होती हैं, पर अब यह माना जाने लगा है कि मन का शरीर पर पूरा नियंत्रण है और स्वस्थता, रुग्णता के लिए भी वही उत्तरदायी है। अन्तर्द्वन्द्व, रुग्ण मानसिकता, अशुद्ध चिन्तन ही मस्तिष्क को असंतुलित करता और शरीर को ऐसे चित्र-विचित्र रोगों से व्यथित करता है जो चिकित्सा करते कराते भी काबू में नहीं आते।
अशुद्ध चिन्तन-अस्वस्थ भावनायें विभिन्न शारीरिक रोगों का कारण बनती हैं। देखा गया है कि कोई मानसिक कष्ट होने पर सारा शरीर शिथिल हो जाता है और क्रियाशक्ति में स्पष्टतः अस्तव्यस्तता दीखने लगती है। भय, चिन्ता शोक, निराशा जैसे प्रसंगों पर किसी भी मनुष्य का चेहरा उदास और सारा शरीर शिथिल देखा जा सकता है। क्रोध, अपमान, द्वेष, प्रतिशोध की स्थिति में किस प्रकार अंग-प्रत्यंगों में उत्तेजना दीख जाती है, इसे किसी आवेश ग्रस्त पर छाये हुए भावोन्माद को देखकर सहज ही देखा-समझा जा सकता है। प्रसन्न और निश्चिन्त रहने वाले स्वस्थ रहते और दीर्घजीवी बनते हैं। इसके विपरीत क्षुब्ध रहने वाले अकारण दुर्बल होते जाते हैं। और अकाल मृत्यु से असमय मरते हैं। यह तथ्य स्पष्ट करते हैं कि शरीर संस्थान पर आहार-विहार का, जलवायु का जितना प्रभाव पड़ता है, उससे कहीं अधिक भाव संस्थान का प्रभाव पड़ता है। विचारणा भावना की शुद्धता-उत्कृष्टता ही समग्र स्वास्थ्य का मूलाधार है।
इस संदर्भ में चिकित्सा मनोविज्ञानियों ने गहन खोजें की है और पाया है कि प्रेम, मैत्री, दया, करुणा और परोपकारी विचारणाओं से ओत-प्रोत व्यक्ति स्वस्थ रहते और दीर्घजीवी होते हैं। इसके विपरीत विकृत चिंतन एवं भावना क्षोभ से ग्रस्त मनुष्य अनेकानेक रोगों से घिरा रहता है। “इन्फलुएन्स ऑफ द माइण्ड अपॉन द बॉडी” नामक अपनी कृति में सुप्रसिद्ध चिकित्सा मनोविज्ञानी डॉ. अलबर्ट ड्यूक का मत है कि विक्षिप्तता, मूढ़ता, अंगों का निकम्मा हो जाना, पाण्डुरोग, केश-पतन, घबराहट, मूत्राशय के रोग, चर्मरोग, फोड़े-फुँसी, एक्जिमा आदि अनेक स्वास्थ्य नाशक रोग मानसिक विकारों एवं भावनात्मक उद्वेलनों के परिणाम मात्र हैं। मानसिक क्षोभ, भावनात्मक उद्वेलन, निषेधात्मक चिन्तन यह सभी सूक्ष्म शरीर की विकृतियाँ है। जिनका स्थूल शरीर पर सीधा प्रभाव पड़ता है। इसी प्रकार परिष्कृत दृष्टिकोण, स्वस्थ उदात्त चिन्तन, आदर्शवादी विचारधारा सूक्ष्म शरीर को तेजस्वी प्रखर बनाती हैं और उसका श्रेष्ठ प्रभाव स्थूल शरीर पर भी स्पष्ट देखा जा सकता है।
“ऐन आयरल विल” नामक पुस्तक के लेखक एवं अमेरिका के प्रख्यात आध्यात्मवेत्ता डॉ. मॉरडन का यह कथन अक्षरशः सत्य है और भारतीय अध्यात्मोपचार की पुष्टि करता है कि “मनुष्य अपने विचार उच्चस्तरीय बना ले, नये कर ले, चरित्र को ऊँचा उठा ले तो अपने शरीर का कायाकल्प कर सकता है।” जब मन-मस्तिष्क की धुलाई सफाई वैज्ञानिक उपकरणों से हो सकती है और प्राणियों एवं मनुष्यों को वंशवर्ती बनाया और मनचाही दिशा में मोड़ा-मरोड़ा जा सकता है तो कोई कारण नहीं कि अध्यात्म साधना के उपचार प्रयोगों से मनोमयकोष को अधिक परिष्कृत और सबल संपन्न न बनाया जा सके।
मनः संस्थान अर्थात् मनोमयकोष ज्ञान, अनुभव एवं कौशल का ही नहीं प्रतिभा का भी क्षेत्र है। उत्कृष्टता के प्रति आस्था के बीज इसी भूमि में उगते है। संकल्प शक्ति का उद्गम केन्द्र यही है। समूचे काय कलेवर को अपने अंचल में यही समेटे हुए है। इस क्षेत्र के अस्त-व्यस्त और विकृत स्थिति में बने रहने पर उसकी प्रतिक्रिया शारीरिक मानसिक स्वास्थ्य पर विनाशकारी प्रभाव डालती है। मनःक्षेत्र का शोधन व सशक्त किये जाने की साधना उसकी धुलाई-सफाई कर समग्र स्वास्थ्य का आधार ही नहीं खड़ी करती, वरन् उसे समुन्नत,-सुसंस्कृत बनाने एवं प्रतिभा प्रखरता से सुसज्जित करने का काम भी बहुत हद तक पूरा करती है।